क्या भारत को अब भी दो बच्चों की नीति की जरूरत
१३ जुलाई २०२१भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में जनसंख्या नियंत्रण के लिए 'दो बच्चों की नीति' लागू करने की बात सरकार ने कही है. इसके लिए उत्तर प्रदेश पॉपुलेशन (कंट्रोल, स्टेबलाइजेशन एंड वेलफेयर) बिल का मसौदा तैयार कर लिया गया है. इसके मुताबिक दो बच्चों की नीति का उल्लंघन करने वालों को तमाम सुविधाओं से वंचित करने का प्रावधान है. बिल के मुताबिक दो से ज्यादा बच्चे पैदा करने वाले स्थानीय चुनावों में हिस्सा नहीं ले सकेंगे. उनके सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन करने और प्रमोशन पाने पर भी रोक होगी और उन्हें सरकार से सब्सिडी का लाभ भी नहीं मिलेगा. राज्य के स्वास्थ्य मंत्रालय के बजाए कानून मंत्रालय की ओर से तैयार किया गया यह जनसंख्या नियंत्रण कानून का प्रस्ताव जबरदस्त चर्चा का विषय बना हुआ है.
वैसे उत्तर प्रदेश ऐसा करने वाला भारत का पहला राज्य नहीं है. यहां असम, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, तेलंगाना और आंध्र प्रदेश जैसे कई राज्यों में पहले ही दो बच्चों की नीति लागू है. हालांकि इनमें कुछ छूट भी मिलती रही है. लेकिन फिलहाल चिंता की बात यह है कि भारत सरकार की ओर से हाल ही में जारी किए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2019-20) के मुताबिक भारत के 22 में से 19 राज्यों में पहले ही जनसंख्या में गिरावट आ रही है. यानी 15 से 49 साल की महिलाओं के दो से कम बच्चे हैं. ऐसे में हाल ही में कई बीजेपी शासित राज्यों की ओर से ऐसे कानूनों को प्रस्तावित किया जाना गले नहीं उतरता.
भारत को जनसंख्या नियंत्रण की कितनी जरूरत
साल 2019-20 में स्वास्थ्य मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया था कि 2025 तक भारत में प्रजनन दर गिरकर 1.9 हो जाएगी. जबकि जनसंख्या स्थिरता के लिए इसे कम से कम 2.1 होना चाहिए. कोरोना के चलते इसमें और गिरावट आ सकती है. इसके बावजूद सरकारें जनसंख्या नियंत्रण कानून क्यों चाहती हैं. जानकार कहते हैं कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के मुताबिक भारत में अब भी 40% लड़कियों की शादियां 18 साल से कम उम्र में हो जाती है. जिससे उनके प्रजनन की उम्र 15-49 के बीच कई बार मां बनने का खतरा है. इसे रोकने और उनके बच्चों के बीच अंतर को बढ़ाने में जनसंख्या नियंत्रण नीति की जरूरत होती है. अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या विज्ञान संस्थान (IIPS), मुंबई में रिसर्च स्कॉलर अजीत कनौजिया कहते हैं, "अगर हम जनसंख्या के जिलेवार वितरण पर नजर डालें तो कई इलाकों के लिए दो बच्चों की नीति अब भी काम की हो सकती है."
जानकारों के मुताबिक असली समस्या अब लोगों को इस बात पर जागरुक करने की नहीं है कि उन्हें दो ही बच्चे पैदा करने चाहिए बल्कि यह जागरुकता लाने की है कि तीसरे बच्चे से कैसे बचें. अब ज्यादातर माता-पिता दो ही बच्चे चाहते हैं लेकिन उनको इस बात की जानकारी नहीं होती कि तीसरे गर्भ से कैसे बचना है. जिसके चलते महिला तीसरी बार भी गर्भवती हो जाती है. गर्भवती होने के बाद भी इस बच्चे से बचने का तरीका उसे नहीं पता होता और अंतत: उन्हें तीसरे बच्चे को भी पालना पड़ता है. सही तरीकों के बारे में अज्ञानता के चलते महिलाएं चौथी और पांचवी बार भी गर्भवती हो जाती है.
कानून बनाने के बजाए वर्तमान नीतियों पर ध्यान
जनसंख्या नीति का समर्थन करने के बावजूद जानकार इसे कानून बनाकर सख्ती से लागू कराने के खिलाफ हैं. उनका मानना है कि राज्यों को पहले से मौजूद सिस्टम पर ध्यान देना चाहिए. फिलहाल ग्रामीण इलाकों में परिवार नियोजन का काम आशा, आंगनवाड़ी और एएनएम स्वास्थ्य कर्मियों के जिम्मे होता है. जिन्हें बच्चा पैदा होने के बाद माता-पिता को परिवार नियोजन के बारे में जानकारी देनी होती है. 1-2 हफ्ते के अंदर यह मीटिंग जरूरी होती है क्योंकि बच्चे को जन्म देने के 3-4 हफ्ते के अंदर महिला फिर गर्भवती हो सकती है. जानकार बताते हैं कि यह प्रक्रिया जमीन पर सही से काम नहीं कर रही और सिर्फ कागजी हो गई है.
उनके मुताबिक ठेकेदारी की प्रक्रिया के चलते सरकारी उपायों की घटिया गुणवत्ता ने सरकारी अस्पतालों में मौजूद गर्भनिरोध के उपायों से लोगों का विश्वास उठाया है. नेशनल न्यूट्रिशन मिशन के तहत महिला और बाल स्वास्थ्य पर उत्तर प्रदेश के कई जिलों में काम कर चुके विनय कुमार कहते हैं, "नसबंदी के लिए लगाए जाने वाले सरकारी कैंप में आशा कार्यकर्ता के पास लोगों की संख्या पूरी करने के टारगेट होते हैं और कई बार वे लोगों को बिना पूरी जानकारी दिए इनमें ले आती हैं. यह बात खुलने पर एक पूरे समुदाय में नसबंदी के प्रति डर का माहौल बन जाता है. खराब गुणवत्ता के चलते अब कॉपर टी, माला डी और निरोध जैसे उपाय भी अप्रभावी और अप्रासंगिक हो गए हैं."
इंडिया स्पेंड की एक रिपोर्ट में इसका प्रभाव दिखा. रिपोर्ट के मुताबिक भारत में 2008 से 2016 के बीच कंडोम के इस्तेमाल में 52 फीसदी की और पुरुष नसबंदी में 73 फीसदी की कमी आई. जिससे देश में कराए जाने वाले गर्भपातों की संख्या बढ़ी. रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में अब भी आधे से ज्यादा गर्भपात असुरक्षित तरीकों से कराए जाते हैं. जानकार कहते हैं, सरकारी गर्भनिरोधक उपायों से भी लोग बेवजह भयभीत नहीं होते. इससे जुड़ी बुरी खबरें अक्सर आती रहती हैं. मसलन 2014 में छत्तीसगढ़ के बिलासपुर में एक ही दिन में 83 महिलाओं की नसबंदी की गई थी, जिसमें से 13 की मौत हो गई थी.
सेक्स एजुकेशन से आ सकता है बड़ा बदलाव
जानकारों के मुताबिक जनसंख्या के नियंत्रण का सबसे अच्छा और सबसे सही तरीका है सेक्स एजुकेशन. उत्तर प्रदेश के कानून में इसके लिए प्रावधान नहीं है. इसमें हाईस्कूल लेवल से ही 'जनसंख्या नियंत्रण पर जागरुकता' की पढ़ाई कराने की बात कही गई है लेकिन सेक्स एजुकेशन का जिक्र नहीं है. विनय कुमार कहते हैं, "हर किशोर-किशोरी को इंसानी प्रजनन की पूरी जानकारी होना जरूरी है. इसके बिना जनसंख्या नियंत्रण के सारे उपाय नाकाम रहेंगे. लेकिन समस्या यह है कि वर्तमान बीजेपी सरकारों में जब मंत्री खुलकर इसके बारे में बात ही नहीं कर सकते तो यह जागरुकता कहां से आएगी? वे जमीनी उपाय नहीं करते और एक दिन अचानक जनता को दोषी ठहराकर बलपूर्वक जनसंख्या पर लगाम लगाना चाहते हैं."
आंकड़े भी इस बात का समर्थन करते हैं. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (2015-16) के आंकड़ों के मुताबिक देश में 15 से 49 साल के बीच की 3 करोड़ में से 13 प्रतिशत महिलाएं अपनी प्रेग्नेंसी में अंतर को बढ़ाना या उसे रोकना चाहती थीं लेकिन रोकथाम के उपायों तक उनकी पहुंच नहीं थी. विनय कुमार कहते हैं, "ऐसे हवा-हवाई कदमों के चलते ही सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि यह कदम राजनीतिक दांव है और मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने की कोशिश है." भारत में आज भी मुस्लिम समुदाय में बहुविवाह का प्रचलन है. और उत्तर प्रदेश के कानून में खासतौर से स्पष्ट किया गया है कि दो शादियों से भी दो से ज्यादा बच्चे पैदा होने पर ऐसे लोग तमाम सरकारी लाभों से वंचित कर दिए जाएंगे.
बुरा असर डालेगा ये कानून
सभी एक्सपर्ट ये मानते हैं कि परिवार नियोजन को जब भी बलपूर्वक लागू कराने की कोशिश की जाएगी, यह लिंग की पहचान कर गर्भपात कराने में बढ़ोतरी करेगा. यह भारत के महिला-पुरुष अनुपात को भी बिगाड़ने का काम करेगा. जनसंख्या के तेजी से बूढ़े होने में भी इसकी भूमिका होगी. इससे महिलाओं की तस्करी और जबरदस्ती कराए जाने वाले देह व्यापार के मामले भी बढ़ सकते हैं. यह भी हो सकता है कि महिलाएं गर्भपात के लिए गैरकानूनी दवाओं का इस्तेमाल करें, जिनके बुरे प्रभाव उन्हें जीवन भर झेलने पड़ें. वे गर्भपात कराने के लिए फर्जी डॉक्टर के चंगुल में भी फंस सकती हैं. जिससे उनकी प्रजनन क्षमता खत्म होने का भी डर रहेगा.
अजीत कनौजिया कहते हैं, "अगर दो से ज्यादा बच्चे पैदा होने पर सरकारी लाभ खत्म किए जाने की बात होगी तो पहले बच्चे पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन दूसरे बच्चे के तौर पर लोग किसी भी हाल में लड़का ही चाहेंगे और इससे निश्चित तौर पर गर्भपात बढ़ेंगे. जिससे दूसरे बच्चे का लिंगानुपात और खराब होगा. जो पहले ही भारत में बहुत खराब है." हाल ही में की गई एक रिसर्च में सामने आया था कि दूसरे और तीसरे बच्चों के मामले में लड़कियों का लिंगानुपात तेजी से गिर रहा है.
हाशिए पर पड़े समुदायों को पहुंचेगा नुकसान
इस कदम से समाज में हाशिए पर मौजूद लोगों को ज्यादा नुकसान का डर भी है. जानकारों के मुताबिक ज्यादातर लोग जो सरकारी नौकरियों में आ रहे हैं, वे एक-दो बच्चे ही पैदा करना चाहते हैं क्योंकि ऐसे ज्यादातर लोग मध्यवर्गीय परिवारों से आते हैं और एक पीढ़ी पहले से ही घर में दो या ज्यादा से ज्यादा तीन बच्चों को देख रहे हैं. विनय कुमार कहते हैं, "जिनकी प्रगति इस कानून से बाधित होगी वो अपने परिवार में पहली बार ग्रेजुएट और पोस्टग्रेजुएट हुए लोग हैं. यह उनके लिए एंट्री बैरियर का काम करेगा."
एक समस्या यह भी है कि जब भारत में राज्यों की ओर से जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की बात जोरों-शोरों से हो रही है, केंद्र सरकार पिछले साल ही सुप्रीम कोर्ट से कह चुकी है कि वह दो बच्चों की नीति को अनिवार्य नहीं बनाएगी. दुनिया भर में जनसंख्या की प्राकृतिक वृद्धि को जबरदस्ती बदलने की योजनाओं का बुरा असर ही हुआ है. चीन का उदाहरण पूरी दुनिया के सामने है. एक बड़ी युवा जनसंख्या के बिना भारत को विनिर्माण क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने का सपना भी पूरा नहीं कर पाएगा. ऐसे में जनसंख्या नियंत्रण का कानून बनाने से अच्छे के बजाए बुरे प्रभाव ज्यादा होना तय है.