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क्या ब्राजील फिर तानाशाही की ओर जाएगा?

निखिल रंजन
८ अक्टूबर २०१८

भ्रष्टाचार मिटाने का वादा, सेना और धार्मिक समुदायों का समर्थन और कुलीन वर्ग की लामबंदी. ब्राजील में एक बार फिर वही दिख रहा है जो दुनिया के कई और हिस्सों में हाल के वर्षों में दिखता रहा है.

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Brasilien Präsidentenwahl in Rio de Janeiro Jair Bolsonaro
तस्वीर: Reuters/R. Moraes

बीते सालों में ब्राजील ना सिर्फ दक्षिण अमेरिका, बल्कि दुनिया के पटल पर अपनी आर्थिक प्रगति, राजनीतिक सुधारों और प्रगतिशील विचार की वजह से भी उभरा है. समाज के निचले तबके तक विकास का लाभ पहुंचाने और उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने में हुई प्रगति के साथ ही उदारीकरण और अंतरराष्ट्रीय मंचों पर बढ़ती मौजूदगी ने बहुत से लोगों के मन से यह बात भुला दी थी कि यह वही देश है जहां 1964 से लेकर 1985 तक सैन्य तानाशाही थी और जहां देश की राजनीति में सेना की बड़ी भूमिका रहती आई है. आखिर ऐसा क्या हुआ है ब्राजील में कि दुनिया को फिर से तानाशाही का वही दौर याद आने लगा है.

दरअसल सेना का एक कप्तान जो बीते कई दशकों से संसद में मौजूद था, बदली परिस्थितियों में वह देश की बागडोर संभालने का सबसे बड़ा दावेदार बन कर उभरा है. इस धुर दक्षिणपंथी उम्मीदवार ने एक झटके में देश की समस्याओं को हल करने का दावा किया है. बात सिर्फ दावे तक रह जाती तो चल जाता लेकिन जब चुनाव के पहले चरण में उसे 46 फीसदी वोट भी मिल गए तो लोगों को यकीन आ गया कि यह पार्टी इतनी भी कमजोर नहीं है. कप्तान हैं जायर बोल्सोनारो  और पार्टी है सोशल लिबरल पार्टी. पार्टी के नाम में लिबरल जरूर है लेकिन बोल्सोनारो के तेवर बिल्कुल भी लिबरल यानी उदार नहीं हैं.

Brasilien Bildkombo Jair Bolsonaro und Fernando Haddad
जाइर बोल्सोनारो और फर्नांडो हद्दादतस्वीर: Reuters/P. Whitaker/N. Doce

पहले चरण में जीत के बाद बोल्सोनारो  ने फेसबुक लाइव पर अपने विजय उद्घोष में कहा कि ब्राजीलियाई लोग "समृद्धि, आजादी, परिवार और ईश्वर की तरफ जाने वाला रास्ता" पकड़ सकते हैं या फिर वेनेजुएला की ओर जा सकते हैं. बाद में इस भाषण को ट्विटर पर भी प्रसारित किया गया. पूरे लैटिन अमेरिका में इन दिनों यह नारा गूंज रहा है कि वामपंथी पार्टियों को वोट देने का मतलब है देश का हश्र वेनेजुएला जैसा होगा.

तो क्या ब्राजील में सचमुच दक्षिणपंथ की जीत हो गई है? कई दशकों से ब्राजील में रह रहे वरिष्ठ पत्रकार शोभन सक्सेना कहते हैं, "इसे दक्षिणपंथ नहीं, धुर दक्षिणपंथ कहिए. बोल्सोनारो लोकतंत्र में सबसे कम आस्था रखने वाले उम्मीदवार हैं. सेना उनके पक्ष में खुल कर आ गई है और उन्हें धार्मिक कुलीनों का भी समर्थन मिल गया है." ब्राजील में एवेंजेलिकल चर्चों के संगठन ने पिछले कुछ हफ्तों में बोल्सोनारो को समर्थन देने के लिए खुल कर प्रचार किया है. देश में उनके रेडियो स्टेशन भी चलते हैं और सोशल लिबरल पार्टी की जीत में उनकी भूमिका अहम है. 

बोल्सोनारो ने भ्रष्टाचार के खिलाफ पहले से ही चल रही मुहिम को तेज करने के साथ ही सरकारी कंपनियों को बेच कर अर्थव्यवस्था सुधारने के वादे और वामपंथी पार्टियों के खिलाफ जम कर जहर उगल कर समर्थन जुटाया है. नारीवादी और समलैंगिक नारों के प्रति गुस्सा और भ्रूण हत्या की मुखालफत, ये सब उनकी नीतियों में शामिल है. पेरिस जलवायु समझौते से बाहर आने का एलान भी बोल्सोनारो पहले ही कर चुके हैं. अब संसद में इसी पार्टी का दबदबा है और अगर दूसरे चरण के चुनाव की बाधा वो पार कर जाते हैं तो राष्ट्रपति पद भी उन्हीं के पास होगा. बोल्सोनारो ने सेना के पूर्व प्रमुख को अपना डेपुटी बनाया है. दरअसल सामाजिक सुधारों और निचले तबके के विकास ने देश में ही एक वर्ग को आहत भी किया है और बोल्सोनारो की जीत में यही वर्ग बड़ी भूमिका निभा रहा है.  

ब्राजील की राजनीति में यह बड़ा बदलाव है. इस सदी के आरंभ में देश की सत्ता पर काबिज हुए लूला इनासियो दा सिल्वा ने देश में आर्थिक असमानता को कम करने में अहम भूमिका निभाने के साथ ही उसे अंतरराष्ट्रीय पटल पर मजबूत पहचान भी दिलाई. हालांकि देश को कई बड़ी समस्याओं से मुक्त कराते कराते कब उनकी पार्टी भ्रष्टाचार के आरोपों में घिर गई, इसका उन्हें भी अंदाजा नहीं हुआ. खुद लूला दा सिल्वा के ऊपर भी भ्रष्टाचार के आरोप लगे. उन्हें पद छोड़ना पड़ा और वह फिलहाल जेल में हैं. हालांकि शोभन सक्सेना ने डीडब्ल्यू से बातचीत में कहा, "बहुत से लोग, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय भी मानता है कि लूला दा सिल्वा अपराधी नहीं, बल्कि राजनीतिक कैदी हैं. उन्हें उनके सुधारवादी कदमों से नाराज हुए कुलीन वर्ग की नाराजगी की वजह से सजा काटनी पड़ रही है." लूला की उत्तराधिकारी डिल्मा रूसेफ भी भ्रष्टाचार के आरोपों से मुक्त नहीं रह सकीं और उन्हें महाभियोग चला कर हटाया गया.

फिलहाल देश में वामपंथी और उदारवादी धड़ा बिखरा हुआ है जबकि धुर दक्षिणबंदी लामबंद हैं. हालांकि पहले चरण के चुनाव में मिली शिकस्त ने वामपंथियों को भी एकजुट होने पर मजबूर किया है. पहले चरण में बोल्सोनारो को टक्कर देने वाले फर्नांडो हद्दाद को 29 फीसदी वोट मिले हैं. अब वो दूसरी छोटी पार्टियों को एकजुट करने की कोशिश में हैं. दूसरी तरफ बोल्सोनारो दूसरे चरण के लिए स्वतंत्र उम्मीदवारों का समर्थन जुटाने की कोशिश में हैं. तीन हफ्ते बाद दोनों की एक बार फिर टक्कर होगी और फैसला तभी आएगा. विश्लेषकों के मुताबिक फिलहाल यह कहना मुश्किल है कि चुनाव में जीत किसकी होगी लेकिन इतना तय है कि मुकाबला जोरदार होगा. इसके साथ ही यह भी तय है कि देश की राजनीति पर उग्र दक्षिणपंथ का असर बहुत ज्यादा दिखेगा.

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