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कुलदीप नैयर का निधन

मारिया जॉन सांचेज
२३ अगस्त २०१८

पत्रकारिता जगत के पुरोधा माने जाने वाले 95 साल के कुलदीप नैयर का निधन हुआ. यह कहना अतिशयोक्ति न होगी कि कुलदीप नैयर के निधन के साथ ही भारतीय पत्रकारिता में एक स्वर्णिम अध्याय की समाप्ति हो गई है.

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Indien Journalist Kuldip Nayar gestorben
तस्वीर: Imago/Zumapress

 

तीन साल पहले 25 जून को आपातकाल के चालीस वर्ष पूरे होने के अवसर पर अपने एक लेख में कुलदीप नैयर ने कहा था कि प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने खुद को इतना सरकार-समर्थक बना लिया है  कि आज देश में आपातकाल की घोषणा करने की जरूरत ही नहीं है. उन्होंने मीडिया पर नर्म हिंदुत्व के असाधारण रूप से बढ़े प्रभाव का भी जिक्र किया था और लोकतंत्र के भविष्य के प्रति गहरी चिंता प्रकट की थी. इस संदर्भ में उन्होंने आपातकाल में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के चापलूसों द्वारा उनकी व्यक्तिपूजा का माहौल बनाने की हरकतों को भी याद किया था और बताया था कि  किस तरह पहले यशपाल कपूर ने "देश की नेता इंदिरा गांधी" और फिर देवकांत बरुआ द्वारा "भारत इंदिरा है और इंदिरा भारत है" के नारे गढ़े थे. उन्हें आज के भारत में उस काल की अनुगूंजें सुनाई पड़ रही थीं.

अपने देश और समाज के प्रति गहरे सरोकार, लोकतांत्रिक मूल्यों और धर्मनिरपेक्षता के प्रति उनकी अगाध निष्ठा, अपने विचारों को बेबाक ढंग से प्रकट करने का साहस और क्षमता, और युवा पत्रकारों का मार्गदर्शन और उनका उत्साह बढ़ाने के लिए तत्पर रहने की आदत- ये सभी ऐसे गुण थे जिन्होंने कुलदीप नैयर को भारतीय पत्रकारिता जगत में एक विशाल वट वृक्ष का दर्जा दे दिया था. उन्होंने पत्रकारिता उर्दू अखबारों से शुरू की थी और शायद इसीलिए उनका अपनी जमीन के साथ जुड़ाव अंत तक बना रहा.

Indien Journalist Kuldip Nayar gestorben
कुलदीप नैयर ने कई किताबें भी लिखींतस्वीर: Imago/Hindustan Times

1980 और 1990 के दशकों में नैयर साहब के साथ मेरी बहुत बार भेंट भी हुई और लंबी बातें भी. वे पत्रकारिता के अपने लंबे अनुभव को बहुत उदारता के साथ बांटते चलते थे. 1985 में देश में सिंडिकेटेड स्तंभ का सिलसिला उन्होंने ही शुरू किया. तब मैं अंग्रेजी साप्ताहिक 'द संडे ऑब्ज़र्वर', जिसके संपादक विनोद मेहता थे, में विशेष संवाददाता था. इस नए ट्रेंड पर फीचर लिखने के लिए मैं उनसे पहली बार मिला. बातचीत के दौरान मुझे दो बातों ने बेहद प्रभावित किया. एक तो यह कि आयु, अनुभव और छवि के लिहाज से मुझसे इतने बड़े होने के बाद भी उनका व्यवहार निहायत दोस्ताना और बराबरी का था. दूसरे, मेरे बारे में उनके पास पूरी जानकारी थी जिससे पता चलता था कि वे न केवल एक बेहद सजग पत्रकार हैं बल्कि युवा पत्रकारों में उनकी कितनी गहरी दिलचस्पी है. इस पहली मुलाकात के बाद जब भी उनसे मिलना हुआ, उनकी गर्मजोशी और स्नेह बढ़ता ही गया. और, उनका यह व्यवहार लगभग सभी युवा पत्रकारों के साथ था और अनेक उनमें अपना अभिभावक देखते थे.

सभी पार्टियों के नेताओं के साथ उनके घनिष्ठ संबंध रहते थे. लगभग पूरे जीवन वे सत्ता का विरोध ही करते रहे. केवल विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने उन्हें लंदन में भारत का उच्चायुक्त बनाकर भेजा. बाद में 1997 में जब इंद्र कुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने तो उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत किया गया. यदि नृतेत्वशास्त्र की शब्दावली में कहें तो लंबे अरसे तक पत्रकार के रूप में राजनीति पर नजर रखने के बाद कुलदीप नैयर राजनीतिक प्रक्रिया में प्रेक्षक-भागीदार बन गए थे. सियालकोट में जन्म लेकर देश-विभाजन की त्रासदी को खुद झेलने वाले नैयर साहब भारत-पाकिस्तान मैत्री के सबसे बड़े पैरोकारों में से एक थे. 1980 के दशक में जब उन्होंने पाकिस्तानी वैज्ञानिक अब्दुल कादिर खान का इंटरव्यू लिया, तभी पूरी दुनिया को पाकिस्तान की परमाणु अस्त्र बनाने की क्षमता के बारे में प्रामाणिक रूप से पता चला.