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कुदरत के रहस्यों की पढ़ाई: बायोनिक्स

३० मार्च २०११

प्रकृति से सीखना न कि क्लासरूम में, इंसानों को यह बात बहुत लुभाती है. मिसाल के तौर पर ओटो लीलियेंथाल, जिन्होंने लगभग 150 साल पहले सीधे चिड़ियों से सीख ली और विमान बनाया. ऐसी दिलचस्प पढ़ाई भी यहां की यूनिवर्सिटी में है.

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तस्वीर: AP

प्रकृति के कारनामों का तकनीक में इस्तेमाल करना, यह छोटी सी बात अब एक वैज्ञानिक विषय बन गई है. जर्मनी में केवल ब्रेमन विश्वविद्यालय में इसे पढ़ाया जाता है. हाइके जीगलर ने इस तरह की पढ़ाई के बारे में और जानकारी हासिल की.

विश्वविद्यालय की इमारत के बेसमंट में एक प्रयोगशाला है जिसकी दीवारों में टाइलें लगी हुई हैं और जमीन भी टाइलों से ढकी है. आम तौर पर या तो कालीन होते हैं या फिर लकड़ी. लेकिन प्रयोगशाला में काम पानी से होता है. 2 मीटर लंबा एक पाइप कमरे के बीचों बीच जाती है और एक पंप के जरिए पानी हमेशा इसमें आता जाता रहता है. सेबास्टियान मोएलर एक स्टूल पर खड़े होते हैं और शार्क मछली का एक पंख जैसा हिस्सा पाइप के पारदर्शी सतह से पानी में घुसाते हैं.

''यह फिन सिलिकन का बना हुआ है और बहुत लचीला है. सोचा जाए तो यह मछली का एक सबसे सरल मॉडल है और फिर भी हमारे पास एक अच्छा सिस्टम है जो शार्क के फिन जैसा है.''

इस मॉडल को मोएलर ने खुद तैयार किया है. बायोनिक्स की पढ़ाई में मोएलर भौतिक विज्ञान, रसायनशास्त्र, इन्फॉर्मैटिक्स और गणित पढ़ रहे हैं. साथ ही उन्हें मैटीरियल साइंस की भी पढ़ाई करनी है और इसी सेमेस्टर पास भी करना है. मोएलर इस बात से परेशान थे कि शार्क मछली के पंख जैसे फिन से एक और पंख जैसा परत क्यों लटकता है. उनका कहना है कि प्रोफेसरों से पूछने पर भी सही जवाब नहीं मिला, और फिर उन्होंने तय किया कि जवाब खुद ढूंढ निकालेंगे.

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कुदरत से सीखोतस्वीर: picture-alliance / OKAPIA KG, Germany

बायॉनिक्स में प्रकृति और उसके कारनामों के पीछे विज्ञान के खेल को पता करने की कोशिश की जाती है. इसलिए बायॉनिक्स पढ़ रहे हर छात्र को सबसे पहले जीव जंतुओं के बारे में पता करना पड़ता है. प्रोफेसर आंटोनिया केसल कहती हैं, ''सबसे पहले पता करने की कोशिश की जाती है कि कोई भी जानवर देखने में ऐसा क्यों होता है जैसा कि वह होता है. एक पौधा कैसे काम चलाता है, इसके पीछे का रहस्य क्या है.''

मोएलर प्रयोगशाला में घंटों गुजार चुके हैं. प्रयोग करने पर पता चला कि शार्क के फिन पर एक और परत इसलिए होती है ताकि पानी में वह अपनी गहराई पर नियंत्रण रख सके. और जब उसकी पूंछ का फिन और तेजी से काम करता है तब भी यह परत गहराई नापने में लगा रहता है. मोएलर ने पता किया कि मछली की फिन का स्वभाव कैसा होता है जब वह मोटी या पतली यां नर्म या सख्त होती है. मोएलर को लगता है कि इस बात के पता चलने पर तकनीक में काम कर रहे उद्योगों को भी फायदा होगा. कहते हैं, ''जहाजों या पंडुब्बियों में इस खोज का फायदा उठाया जा सकता है और शायद उन्हें लचीला बनाने में भी फायदा हो. इसका मतलब यह कि जहाज में हमेशा कोई बहुत ही कड़ा और धातु का प्रोपेलर बनाना जरूरी नहीं है. मेरे काम से शायद यह निष्कर्ष निकाले जा सकतें हैं.''

बायॉनिक्स का कोर्स सात सेमेस्टर का होता है और एक सेमेस्टर में छह महीने होते हैं. पांचवें सेमेस्टर में विदेश यात्रा की तैयारी होती है. मोएलर ने कुछ वक्त बाहामास में एक शोध प्रयोगशाला में गुजारे. मोएलर कहते हैं कि इस वक्त में उन्होंने मिसाल के तौर पर नए रोबोट सिस्टमों पर काम किया जिनकी तकनीक मछलियों के तैरने से निकाली गई थी. ब्रेमन में इस वक्त बैचलर और मास्टर की पढ़ाई के लिए 27 और 14 सीटे हैं. लेकिन बाकी विश्वविद्याय भी इस तरह की पढ़ाई का फायदा अपने छात्रों को देना चाहते हैं.

गेल्सेनकिर्शन में इसी तरह का एक और प्रोग्राम शुरू हो रहा है जिसमें 60 सीटे होंगी. प्रोफेसर केसल का कहना है कि इस तरह की पढ़ाई को लगभग हर क्षेत्र में लगाया जा सकता है जहां तकनीक पर काम हो रहा हो. मिसाल के तौर पर रोबोटिक्स में या फिर हवाई उद्योग, जहाज उद्योग और ऊर्जा उद्योग में भी. इसकी वजह यह है कि बायॉनिक्स की पढ़ाई करने वाले दो तीन विषयों में काम कर रहे विशेषज्ञों की बात जानते हैं और इन विषयों को जोड़ सकते हैं. केसल कहती हैं कि बायॉनिक्स का विशेषज्ञ जीव विज्ञान पढ़ने वालों के साथ साथ तकनीकी विशेषज्ञों की भी बात समझ सकते हैं. वे इंजीनियरों से बात कर सकते हैं और समझ सकते हैं कि परेशानी कहा हैं. वे तुरंत जान सकते हैं कि कहां किस मसले को सुलझाया जा सकता है और क्या किसी एक विषय पर काम करना समझदारी की बात है.

रिपोर्ट: हाइके जीगलर/मानसी गोपालकृष्णन

संपादन: ओंकार सिंह जनौटी