1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

काम को पहचान मिलीःसौमित्र चटर्जी

२४ मार्च २०१२

इस साल का दादा साहेब फाल्के अवार्ड बांग्ला फिल्मों के अभिनेता सौमित्र चटर्जी को दिया गया है. सत्यजीत रे की फिल्म अपूर संसार के उन्होंने अपना फिल्मी सफर शुरू किया.

https://p.dw.com/p/14Ppq
तस्वीर: AP

दादा साहब फाल्के अवार्ड के एलान के बाद सौमित्र चटर्जी ने कहा ‘इस अवार्ड से 53 साल की मेरी मेहनत को मान्यता मिली है और देश के लोगों पर मेरा भरोसा सही साबित हुआ है.' आमतौर पर पुरस्कारों से दूर रहने वाले सौमित्र सिनेमा जगत के इस सबसे बड़े अवार्ड से बेहद खुश हैं. सत्यजीत रे के पसंदीदा अभिनेता रहे सौमित्र ने उनकी 15 फिल्मों में काम किया है जिनमें सोनार केला, चारुलता व घरे-बाईरे उल्लेखनीय हैं. सौमित्र एक कवि भी हैं और उनकी 14 किताबें प्रकाशित हो चुकी हैं. इस अवार्ड के लिए जब उनके नाम का एलान किया गया तब वह कोलकाता के एक स्टूडियो में गौतम घोष की बांग्ला फिल्म शेष अंको (आखिरी हिसाब) की शूटिंग कर रहे थे. पेश है इस मृदुभाषी अभिनेता से इस मौके पर की गई बातचीत के मुख्य अंश

दादा साहब फाल्के अवार्ड पाकर कैसा लग रहा है?

मुझे काफी खुशी हो रही है. यह कहूं तो ज्यादा सही होगा कि मैं खुद को बेहद सम्मानित महसूस कर रहा हूं. आधी सदी से भी लंबे मेरे फिल्मी सफर को सराहना और एक नई पहचान मिली है. सबसे खुशी की बात यह है कि यही एक ऐसा अवार्ड है जो अब भी राजनीति से परे है. अब तक जितने भी लोगों को यह अवार्ड मिला है वह सब निर्विवाद रहे हैं. सत्यजित रे, मृणाल सेन और तपन सिन्हा जैसे फिल्मकारों की जमात में शामिल होना बेहद गर्व की बात है. इस अवार्ड से महसूस होने लगा है कि अपने लंबे करियर में अब तक मैं सही राह पर ही चला हूं?

आपको पहले भी कई अवार्ड मिल चुके हैं. लेकिन आपने 2001 में नेशनल अवार्ड लेने से मना कर दिया था. उसकी कोई खास वजह?

मुझे राजनीति पसंद नहीं है. मैं चुपचाप अपना काम करने में विश्वास करता हूं. वह अवार्ड राजनीति से प्रेरित था. उस समय ज्यूरी के सदस्यों ने लोकप्रिय और मुख्यधारा की सिनेमा के साथ पक्षपात किया था. इसलिए मैंने तब उसे ठुकरा दिया था. लेकिन बाद में महसूस हुआ कि दर्शकों को अवार्ड पसंद हैं. इसलिए वर्ष 2007 में मैंने वह अवार्ड ले लिया. सच कहूं तो पुरस्कारों में मेरा कभी भरोसा नहीं रहा. लेकिन मैंने कुछ पुरस्कार इसलिए ले लिए कि मेरे प्रशंसकों के दिल नहीं टूटें. लेकिन इस पुरस्कार की बात ही कुछ और है. यह सबसे अलग है.

आपको दुनिया सत्यजित रे के हीरो अपू के तौर पर जानती है. आपका पहला प्यार क्या है सिनेमा या रंगमंच?

ARCHIV Frankreich Cannes Film Festival "Ghare-Baire" Schauspieler Soumitra Chatterjee
तस्वीर: AP

मेरा पहला प्यार तो रंगमंच ही है.  मुझे फिल्मों और नाटकों, दोनों में अभिनय करना पसंद है. लेकिन जब निर्देशन की बात आती है तो मेरी पसंद नाटक है. मैंने फिल्मों के निर्देशन के बारे में भी सोचा था. लेकिन उसमें कई तरह की दिक्कतें हैं. निर्देशन के जरिए मंच पर अलग अलग पात्रों के भावों को अभिव्यक्त करना एक संतोषजनक अनुभव है. इसलिए अब भी मैं नाटकों पर ज्यादा ध्यान देता हूं. इसके साथ सिनेमा तो है ही. कई बार नाटकों के पात्रों से अभिनय के कुछ नए आयाम सीखने को मिल जाते हैं. आखिर सीखने की तो कोई उम्र नहीं होती.

आप कला फिल्मों और मुख्यधारा के सिनेमा के बीच संतुलन कैसे बनाए रखते हैं?

मैंने अपने करियर में कई महान निर्देशकों के साथ काम किया है. उनसे काफी कुछ सीखने को मिला है. अगर मैं उनके सिखाए रास्ते पर नहीं चल पाता तो वह मेरी कमी होती. मैंने उन लोगों से अभिनय और कला की बारिकियां सीखीं और अब अपने अभिनय के जरिए भावी पीढ़ी को वही सिखाने का प्रयास कर रहा हूं. अगर आप सिनेमा की हर विधा को बेहतर तरीके समझते हैं तो यह संतुलन बनाना कोई मुश्किल नहीं है.

सिनेमा के मौजूदा परिदृश्य के बारे में आप क्या सोचते हैं?

बीच में एक दौर था जब मनोरंजन प्रधान फिल्मों की बहुतायत हो गई थी. लेकिन अब खासकर बांग्ला सिनेमा में जीवन के रंग दोबारा नजर आने लगे हैं. तमाम तकनीकी प्रगति के बावजूद सिनेमा की आत्मा कभी नहीं मर सकती. सिनेमा एक बेहद असरदार माध्यम है और इसका भविष्य उज्ज्वल है. मैंने जब अपना सफर शुरू किया था तब से काफी कुछ बदल गया है. नई-नई तकनीक सामने आ रही है. लेकिन सिनेमा का मूल तत्व अब भी ज्यादा नहीं बदला है. आज भी दर्शक उदेश्यपूर्ण फिल्मों को सराहते हैं. मुझे मनोरंजन प्रधान फिल्मों से कोई शिकायत नहीं है. लेकिन बढ़िया सिनेमा वह है जो दर्शकों का मनोरंजन करने के साथ-साथ मनोरंजन उद्योग को भी एक दिशा दिखाए. रे, मृणाल सेन और गुरुदत्त जैसे निर्देशकों ने इस उद्योग के भीतर ही अलग-अलग लक्ष्य के साथ काम किया था. उन लोगों ने आने वाली पीढ़ियों के लिए कुछ मानदंड कायम कर दिए थे.

आप अपनी कामयाबी का श्रेय किसे देते हैं?

मैं आज जो भी हूं उसका श्रेय सत्यजित रे को जाता है. उन्होंने मेरे भीतर के कलाकार को पहचान कर उसे निखरने का मौका दिया. रे जैसे फिल्मकार के साथ लगभग 15 फिल्मों में काम करना अपने आप में एक उपलब्धि है. अगर रे नहीं होते तो शायद मैं भी आज इस मुकाम पर नहीं होता. उनसे मैंने अभिनय के अलावा निर्देशन की भी बारिकियां सीखीं. रे के साथ काम करना किसी अवार्ड से कम नहीं है. वह अपने फन में माहिर थे.

हिंदी फिल्मों के बारे में आप क्या सोचते हैं?

ईमानदारी से कहूं तो मैं हिंदी फिल्में नहीं देखता. लेकिन मुझे श्याम बेनेगल का काम बहुत पसंद है. वह भी अपने फन के माहिर हैं और उनकी फिल्में एक गहरी छाप छोड़ती हैं.

अब आगे क्या योजना है?

फिलहाल कुछ फिल्मों में काम कर रहा हूं. उनके अलावा नाटक और कविता पाठ तो चलता ही रहता है. सिनेमा में अब भी काफी कुछ किया जाना है. मैं सिनेमा की बेहतरी के लिए आजीवन प्रयास करता रहूंगा.

रिपोर्टः प्रभाकर, कोलकाता

संपादनः प्रिया एसेलबॉर्न

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी