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कश्मीरी बल्ला उद्योग पर हड़ताल की मार

७ सितम्बर २०१०

हड़तालों में आम जनजीवन अस्तव्यस्त होता और कारोबार को भी नुकसान पहुंचता है. इस मामले में कश्मीर भी अपवाद नहीं है. हाल की वहां लगातार हड़ताल की वजह से क्रिकेट उद्योग खासा प्रभावित हुआ है.

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विलो का बल्लातस्वीर: AP

भारत प्रशासित कश्मीर में पिछले तीन महीने से जारी हिंसा और उसके कारण लगे कर्फ्यू से शायद ही कोई उद्योग अछूता रहा हो, लेकिन इलाके में प्रसिद्ध क्रिकेट बल्ला बनाने वाले उद्यमी उसकी भारी मार झेल रहे हैं. उनकी आमदनी बल्ला बनाकर तो होती ही थी, हाल के दिनों तक बड़ी संख्या में पर्यटक हालमूला की दुकानों में आते, बल्ला खरीदते या फिर कारीगरों को बल्ला बनाते देखते. हालमूला उन दस गांवों और बस्तियों में से एक है जहां कुशल कारीगर इलाके में होने वाले विलो या भिंसा पेड़ों की लकड़ी से सभी साइज के बल्ले तराशते हैं.

नदी किनारे स्थित जिले का हर परिवार किसी न किसी रूप से बल्ला बनाने के उद्योग के साथ जुड़ा है. इस उद्योग की शुरुआत ब्रिटिश उपनिवेश के दौरान हुई जब ब्रिटिश अधिकारियों ने विलो पेड़ों को इलाके में लगाया. बल्ला बनाने वाली फैक्टरियों के मालिकों का कहना है कि भारत विरोधी हिंसक प्रदर्शनों का उनके कारोबार पर बहुत बुरा असर पड़ा है.

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तस्वीर: AP

गुडलक स्पोर्ट्स के मालिक मोहम्मद अमीन कहते हैं, "हम अब भी मुंबई और नई दिल्ली जैसे शहरों को बल्ले का निर्यात कर रहे हैं लेकिन उपद्रव के कारण कुल कारोबार बहुत कम हो गया है. उपद्रव से पहले भारतीय व्यापारी हमारे पास आते थे और बड़े पैमाने पर ऑर्डर देते थे, लेकिन अब कोई नहीं आता."

हालांकि कुछ ऑर्डर टेलिफोन पर आ रहे हैं लेकिन प्रदर्शनों के कारण उन्हें ग्राहकों तक भेजना मुश्किल हो रहा है, क्योंकि ज्यादातर भारतीय ट्रक वाले कश्मीर से बच रहे हैं. फैक्ट्री के अंदर भी आधे बने बल्लों को देखा जा सकता है जो कारोबार के खराब होने की कहानी कहते हैं.

गांव में पर्यटकों और कारोबारी गतिविधियों के बदले भारतीय सैनिक दिखते हैं जिंहे वहां हिंसा रोकने के लिए तैनात किया गया है. 20 साल से चल रहे विद्रोह मे 47 हजार लोग मारे गए हैं. पिछले साल हिंसा में कमी के बाद पैदा हुई उम्मीदें, इस बीच नाखुश कश्मीरी युवाओं की नई हिंसा की आग में दफन हो गई है.

न्यू स्पोर्ट्स वर्क्स के 60 वर्षीय मालिक अब्दुल अहद दार कहते हैं, "प्रदर्शनों के शुरू होने से पहले हम हर दिन 200 बल्ले बनाते थे. यह संख्या अब गिरकर 50 रह गई है." जब विद्रोह चरम पर था, तब भी श्रीनगर से 37 किलोमीटर दूर स्थित हालमूला में चुपचाप कारोबार चलता था और कारीगर सात महीने तक सुखाए गई विलो लकड़ी से बल्ले बनाते थे. दार कहते हैं, "हमारे गांव हड़ताल या प्रदर्शन से कभी प्रभावित नहीं होते थे, लेकिन इस बार मामाला गंभीर है और हमारे अपने बच्चे और पोते हमें दुकान और फैक्ट्री नहीं खोलने देते."

बल्ला बनाने में इलाके के लगभग 10,000 लोग लगे हैं और वे हर साल कुल मिलाकर 10 लाख बल्ले बनाते हैं जो 100 रुपए से लेकर 1000 रुपए का बिकता है. यहां बनाए गये बल्ले बच्चों और गैर पेशेवर खिलाड़ियों में बहुत लोकप्रिय हैं. पेशेवर खिलाड़ी अभी भी इंग्लिश विलो से बने बल्लों को प्राथमिकता देते हैं.

रिपोर्ट: एएफपी/महेश झा

संपादन: ए कुमार

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