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ओवरलोडिंग का शिकार हो रहा है हमारा दिमाग

३ मई २०१९

पुराने दौर में इंसान का दिमाग आसानी से सजग हो जाता था. वक्त बीतने के साथ हमारे मस्तिष्क की चुनौतियां बढ़ती गईं. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के साथ ही सूचनाओं की बाढ़ हम तक पहुंच गई. मस्तिष्क पर इसका बेहद गहरा असर पड़ रहा है.

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Gehirn-Scan
तस्वीर: Colourbox/I. Jacquemin

डिजिटल वर्ल्ड, जिसमें हर कोई एक नेटवर्क से जुड़ा है. हमारा दिमाग अकसर सूचनाओं और डाटा की सूनामी से घिरा रहता है. मस्तिष्क के लिए यह आदर्श स्थिति नहीं है. माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन डेवलपमेंट की न्यूरो रिसर्चर याना फांडाकोवा लगातार सूचनाओं से घिरे मस्तिष्क पर रिसर्च कर रही हैं. वह कहती हैं, "आम तौर पर हमारे सामने कोई स्थिति आती है, फिर मस्तिष्क उस पर चिंतन करता है. पहले हम उसके बारे में सोचते हैं और उसके बाद ही आगे बढ़ते हैं."

लेकिन जब हमारे सामने लगातार नई नई चीजें आ रही होती हैं, तो उनके बीच तालमेल बैठाते हुए मस्तिष्क का क्या हाल होता है, याना फांडाकोवा यही जानने की कोशिश कर रह रही हैं. एक्सपेरिमेंट के लिए वह कुछ लोगों से जटिल चीजें हल करा रही हैं. स्क्रीन पर बने राक्षसों में उन्हें फर्क समझना है. सारे प्रतिभागियों को राक्षसों के अलग अलग गुणों को समझना होगा. इस दौरान कीबोर्ड पर सही कीज दबानी होंगी.

वैज्ञानिक बीच बीच में वे चीजें भी डाल देते हैं, जो काम काज और खाली समय के दौरान रोज हमारे सामने आती हैं, जैसे कोई फोन कॉल, मैसेज या नोटिफिकेशन. ऐसा होते ही हमें बहुत ही तेजी से अलग अलग किस्म की चुनौतियां से निपटना पड़ता है. इस प्रोग्राम के जरिए पता चलेगा कि आसान चुनौतियों को प्रतिभागी कितनी जल्दी खत्म करते हैं. इसके बाद उन्हें बहुत ही कम समय के भीतर अन्य कारकों जैसे, आकार, रंग या पैटर्न पर ज्यादा ध्यान देना होगा.

याना फांडाकोवा कहती हैं, "ये ऐसी परिस्थितियां हैं, जिनमें हमारे मस्तिष्क को ध्यान देना होगा कि अलग अलग एक्शंस को अलग रखा जाए. ये ऐसी चीजें हैं जो हम आम तौर पर ऑटोमैटिकली कर लेते हैं, लेकिन इसके पीछे हमारे दिमाग की कठिन मेहनत होती है."

याना प्रतिभागियों की जांच के लिए स्कैनर का भी इस्तेमाल करती हैं. वह सीधे उनके मस्तिष्क में झांकती हैं और देखती हैं कि कौन सा हिस्सा सक्रिय है. जब इंसान को जटिल बाधा सुलझानी होती है, तो मस्तिष्क के अगले हिस्से की जरूरत पड़ती है. इसे समझाते हुए वह कहती हैं, "यह मस्तिष्क का वो हिस्सा है जो बिल्कुल माथे के पीछे होता है. यही वह अंग है जो बताता है कि इस काम में या उस काम में कितने संसाधन लगाए जाने चाहिए. जब हमें एक ही साथ अलग अलग काम करने पड़ते हैं तो दिमाग का यही हिस्सा सबसे ज्यादा परिश्रम करता है. साथ ही तय करता है कि काम आपस में मिक्स न हों."

बच्चे और किशोर ऐसी परिस्थितियों में क्या करते हैं? उम्र की वजह से वे हर वक्त बदलावों का सामना कर रहे होते हैं. वे नई चीजें बड़ी तेजी से सीखते हैं. क्या वयस्कों के मुकाबले बच्चे या किशोर, टेस्ट को ज्यादा आसानी से सुलझाते हैं? याना इसका जवाब देती हैं, "कई शोधों के जरिए हम जानते हैं कि जब हम साथ में कोई काम कर रहे होते हैं तो उत्तर खोजने में बच्चों को ज्यादा समय लगता है. और बच्चे, वयस्कों की तुलना में ज्यादा गलतियां भी करते हैं."

दिमाग के अगले हिस्से का विकास 20 साल तक होता है. अलग अलग काम मिलने पर बच्चों का ब्रेन उतनी तेजी से स्विच नहीं कर पाता, जितनी तेजी से वयस्कों का करता है. लेकिन क्या सूचनाओं की बाढ़ इस पर भी कोई असर डाल रही है?

एक ताजा शोध के मुताबिक हम हर दिन औसतन 88 बार अपना फोन चेक करते हैं. उसमें फोटो वीडियो देखते हैं, दोस्तों से चैट करते हैं और न्यूज या अन्य चीजें पढ़ते हैं. जर्मन लोग हर दिन औसतन ढाई घंटे ऑनलाइन रहते हैं. युवा तो अपने फोन या अन्य मोबाइल डिवाइसों पर करीब सात घंटे बिताते हैं.

न्यूरोसाइंटिस्ट डॉक्टर हेनिंग बेक, बस का इंतजार करते समय अपना फोन बिल्कुल बाहर नहीं निकालते. वह कहते हैं, "किसी नई चीज से ज्यादा दिलचस्प और कुछ नहीं है. हम प्राकृतिक रूप से जिज्ञासु हैं, जन्म से. कौतूहल जगाने वाली चीजें हमें पसंद हैं. आधुनिक फोन बिल्कुल यही कर रहे हैं."

हेनिंग बेक, फ्रैंकफर्ट में एक थिंक टैंक का दौरा कर रहे हैं. यह संस्था भविष्य के ट्रेंड्स पर रिसर्च करती है और कंपनियों को सलाह देती है. लेना पापासाबास, सांस्कृतिक मानव विकास की विशेषज्ञ हैं. वह कुछ कारण बताती हैं. "आप जानना चाहते हैं, क्या किसी ने मुझे कुछ लिखा, क्या किसी ने मुझ तक पहुंचने की कोशिश की, क्या मुझे कोई नया लाइक मिला. हर कोई प्रतिक्रिया चाहता है. यह रेस्पॉन्स जैसा है जो किसी के साथ आपके रिश्ते की, आपके परिवेश या फिर आपके खुद से जुड़े होने की पुष्टि करता है. कोई है जो मुझे देख रहा है, सुन रहा है और इसी नतीजे के चलते मैं खुद को अच्छी तरह जीवित महसूस करता हूं."

ऐसे कई और कारण हैं जो हमें फोन चेक करने के लिए प्रेरित करते हैं. एक है, बोरियत. अमेरिका में हुआ एक शोध इसे दर्शाता है. टेस्ट में शामिल लोगों को अकेले कमरे में इंतजार करने के लिए छोड़ दिया गया. उन्हें ऐसी मशीन से जोड़ा गया था जिसके जरिए वे खुद को बहुत ही हल्का बिजली का झटका दे सकें. कुछ ही मिनटों के बाद बोरियत और कौतूहल के चलते दो तिहाई पुरुषों और एक चौथाई महिलाओं ने वह बटन दबाया.

लेना पापासाबास कहती हैं, "कई लोग हर जगह अपना फोन ले जाते हैं, भले ही वे दूसरे कमरे में ही क्यों न जाएं. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनके पास उनका फोन न भी हो तो वे वाइब्रेशन महसूस करते हैं या उन्हें रिंगटोन जैसी आवाज सुनाई पड़ती है. इसीलिए, मोबाइल फोन के साथ एक न्यूरोटिक एलिमेंट तो है ही."

इसके बावजूद कुछ न करना भी बहुत फायदेमंद हो सकता है. जब हम अपने दिमाग को आराम देते हैं तो रचनात्मकता को मौका मिलता है. अकसर इसी दौरान बेहतरीन आइडिया आते हैं. हमारे दोनों एक्सपर्ट इस बात पर सहमत हैं. डॉ. हेनिंग बेग कहते हैं, "अगर मैं लगातार खाता ही रहूं तो मैं फट जाउंगा. सूचना के साथ भी ऐसा ही है. मेरे मस्तिष्क के पास समीक्षा करने, प्राथमिकताएं तय करने और सोचने के लिए वक्त होना चाहिए."

और यही वजह है कि हेनिंग बेक, बस का इंतजार करते हुए अपना फोन जेब से नहीं निकालते हैं. वह बस नए अनुभव जुटाते हैं और अपने दिमाग को आराम करने या अपने हिसाब से जानकारियों को व्यवस्थित करने का समय देते हैं.

(ऐसा है दिमाग पर सोशल मीडिया का असर)

रिपोर्ट: बारबरा पीटर्समन, सिग्रिड लाउफ