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एशिया में शांति व स्थिरता के लिए अमेरिका की बढ़ती भूमिका

राहुल मिश्र
२ नवम्बर २०२०

अमेरिका में चुनावी सरगर्मियों के बावजूद विदेश मंत्री माइक पोम्पियो महीनों से एशिया दौरों पर जुटे हैं. इन यात्राओं का मकसद चीन के खिलाफ मोर्चा बनाना था. पिछले दिनों उन्होंने वियतनाम सहित पांच एशियाई देशों का दौरा किया.

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Indien | Neu Delhi | Außenministertreffen | |Mike Pompeo (l) und Subrahmanyam Jaishankar
तस्वीर: Adnan Abidi/Pool Reuters/AP/dpa/picture-alliance

इस बार के एशिया दौरे में माइक पोम्पियो ने भारत के अलावा वियतनाम, इंडोनेशिया, श्री लंका और मालदीव की यात्रा की. अमेरिका में राष्ट्रपति चुनावों से पहले पोम्पियो का एशिया दौरा चुनाव में चीन विरोधी रवैये का फायदा उठाने पर भी लक्षित था. इसलिए इन देशों में चीन पर उनके बयान काफी सख्त रहे. अपने कई बयानों में उन्होंने चीन और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी में अंतर किया और चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को तानाशाही और मानवाधिकारों का हनन करने वाली गैरलोकतांत्रिक पार्टी कह कर आड़े हाथों लिया. पोम्पियो के लिए अमेरिका की चीन नीति में एशियाई देशों का महत्व बढ़ गया है. चुनावों के बाद राष्ट्रपति कोई बने, अमेरिका के लिए चीन फिलहाल उसकी विदेशनीति के केंद्र में रहेगा.

भारत के दौरे के बाद पोम्पियो श्री लंका गए जहां उन्होंने श्री लंका के राष्ट्रपति गोताबाया राजपक्षे से भी मुलाकात की. साझा लोकतांत्रिक मूल्यों की ओर ध्यान दिलाते हुए पोम्पियो ने कहा कि अमेरिका हमेशा से ही श्री लंका का दोस्त रहा है. इसके साथ-साथ वह यह कहना भी नहीं भूले चीन जैसे शोषक देशों से श्री लंका को बचकर रहना होगा. चीनी कम्युनिस्ट पार्टी - शासित चीन पर उन्होंने दूसरे देशों को बेल्ट एंड रोड परियोजना के बहाने ठगने, मनमानी नीतियां और दोहरे मानदंड रखने के आरोप भी लगाए. वैसे इनमें से कई मुद्दों पर सच्चाई उनके वक्तव्यों से खास दूर नहीं है. जहां तक श्री लंका के रूख का सवाल है तो राष्ट्रपति गोताबाया के शासनकाल में श्री लंका की चिंताएं तो कई हैं पर बाहर निकलने का रास्ता कोई नहीं है. अमेरिका को भी यह उम्मीद है कि गोताबाया राजपक्षे के कार्यकाल में दोनों देशों के संबंध मजबूत होंगे. इसके पीछे एक वजह यह भी है कि पिछले साल श्री लंका के चुनावों में भाग लेने से पहले तक गोताबाया राजपक्षे अमेरिका के ही नागरिक थे.

Japan Quad Indo-Pazifik Außenministertreffen in Tokio
पिछले ही महीने जापान में क्वाड देशों की बैठक हुई थीतस्वीर: Nicolas Datiche/Reuters

संतुलन की कोशिश में रहा श्रीलंका

लेकिन श्रीलंका की स्थिति आसान नहीं है. पोम्पियो की चीन को लेकर आलोचनाओं के बावजूद गोताबाया चुप ही रहे. 500 करोड़ डालर के चीनी निवेश के एहसान के तले दबे श्री लंका के लिये वैसे भी यह समझदारी भरा निर्णय न होता. अपनी आर्थिक जरूरतों के लिए श्रीलंका न सिर्फ चीन पर फिलहाल निर्भर है बल्कि शायद आगे भी कई वर्षों तक निर्भर रहेगा. मार्च में ही 50 करोड़ डॉलर का उधार लेने के बाद अब गोताबाया की सरकार 70 करोड़ डॉलर का उधार और लेने की कोशिश में है. अब ऐसी स्थिति में पोम्पियो की चीन विरोधी बातें तो बात बिगाड़ने वाली ही लगती हैं. लिहाजा, श्री लंका सरकार ने पोम्पियो की तमाम बातों के जवाब में यह कहा कि वह गुटनिरपेक्ष नीति का समर्थक है. किसी एक देश को दूसरे के ऊपर वरीयता देना उसकी विदेश नीति का हिस्सा नहीं है. एशिया के तमाम देशों की तरह श्री लंका भी इस स्थिति में नहीं कि  चीन या अमेरिका में से एक देश को चुन सके और उसी पर पूरी तरह निर्भर रहे.

वैसे अमेरिका पर भी उसकी निर्भरता कम नहीं है. श्रीलंका के उत्पादों का सबसे बड़ा आयातक देश अमेरिका ही है. दोनों देशों के बीच 48 करोड़ डॉलर के मिलेनियम चैलेंज कारपोरेशन अनुदान संबंधी बातचीत भी चल रही है. श्रीलंका और उसके जैसे तमाम देशों को एक बात और सालती है और वो है अमेरिका का मानवाधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर कड़ा रुख. अमेरिका इन मुद्दों पर अपने करीबी दोस्तों को भी नहीं बख्शता. मानवाधिकारों के हनन को लेकर अमेरिका  के साथ श्री लंका के अनुभव कड़वे रहे हैं.

श्रीलंका के विपरीत पोम्पियो की मालदीव यात्रा काफी सफल रही और ऐसा होना भी था. श्रीलंका के उलट मालदीव ने इंडो-पैसिफिक का जमकर समर्थन किया. महमूद सोलेह के 2018 में सत्तासीन होने के बाद से ही मालदीव और चीन के रिस्तों में खटास आयी है. अमेरिका की मालदीव से रक्षा संबंध मजबूत करने की कोशिश एकतरफा नहीं है यह इस बात से बिलकुल साफ है कि सितंबर 2018 में ही इन दोनों देशों ने रक्षा सहयोग के फ्रेमवर्क समझौते को मंजूरी दे दी थी. पोम्पियो ने मालदीव में अमेरिकी दूतावास खोलने का निर्णय लिया है. अभी तक मालदीव में दूतावास के काउंसिलर ऑफिस संबंधी काम-काज श्रीलंका स्थित दूतावास से ही संचालित होते थे.

Indonesien Jakarta | Mike Pompeo trifft Joko Widodo
इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोकोवी के साथ पोम्पियोतस्वीर: Muchlis Jr-Biro Pers Sekretariat Presiden

दक्षिणपूर्व एशिया में अमेरिका को समर्थन

दक्षिण एशिया और हिंद महासागर से निकल कर पोम्पियो दक्षिणपूर्व एशिया पहुंचे. इंडोनेशिया के 28-29 अक्टूबर पड़ाव में इंडोनेशिया के राष्ट्रपति जोको विडोडो से मुलाकात की. अभी कुछ ही दिनों पहले इंडोनेशिया के रक्षामंत्री प्रबोबो सोबियांतो पहली बार अमेरिका दौरे पर भी गए थे. गौरतलब है कि जापान के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा अपनी पहली विदेश यात्रा पर इंडोनेशिया ही गए थे. जापान और अमेरिका दोनों को इंडोनेशिया में एक मुखर सामरिक और आर्थिक सहयोगी के तौर पर एक बड़ी संभावना दिख रही है. इंडोनेशिया ने पिछले कुछ महीनों में चीन को लेकर अपने रुख में सख्ती बरती है. इंडो-पैसिफिक को लेकर इंडोनेशिया न सिर्फ उत्साहित है बल्कि उसकी अपनी एक इंडो-पैसिफिक नीति भी है. दक्षिणपूर्वी एशिया के देशों के संगठन आसियान की इंडो-पैसिफिक आउटलुक प्रपत्र में भी इंडोनेशिया ने बड़ी भूमिका निभाई. दक्षिण चीन सागर में चीन की जबरदस्तियों को इंडोनेशिया आसानी से स्वीकार नहीं करेगा और प्रतिकार की कोशिश करेगा, यह पोम्पियो और सुगा दोनों की यात्राओं के दौरान दिए वक्तव्यों से साफ है. इंडोनेशिया में चीन के अल्पसंख्यक उइगुर मुस्लिम समुदाय के साथ अमानवीय बर्तावों का उल्लेख कर पोम्पियो ने इंडोनेशिया के लोगों का दिल जीतने की कोशिश भी की और चीन की दमनकारी नीतियों पर निशाना भी साधा. विश्व का सबसे बड़ा मुस्लिम आबादी वाला देश होने के नाते इंडोनेशिया के लोगों में उइगुर मुस्लिमों को लेकर चिंता है लेकिन सरकार इस पर मौन ही रही है.

यात्रा की योजना बनाते–बनाते पोम्पियो ने वियतनाम जाने की योजना भी बना ली थी. मौका अमेरिका वियतनाम के राजनयिक संबंधों की स्थापना की 25वीं सालगिरह का था और दस्तूर भी यही था कि अमेरिकी उच्चाधिकारी वहां जाते. वियतनाम में पोम्पियो ने दक्षिण चीन सागर के अलावा मीकांग बेसिन में चीन की बढ़ती गतिविधियों पर भी चिंता जताई. अमेरिका मीकांग के मुद्दे को गंभीरता से ले रहा है और जापान का भी इसमें भरपूर सहयोग है जो दोनों देशों की विदेशनीति में साझा सोच और कार्यप्रणाली की और भी इशारा करती है.

Esper und Pompeo in Indien
भारत के साथ 2+2 वार्ताओं में प्रगतितस्वीर: Adnan Abidi/Reuters

भारत के साथ अहम सामरिक समझौते

इन तमाम देशों की यात्रा के पीछे पोम्पियो का मकसद ना सिर्फ चीन को लेकर अपनी चिंताओं को उजागर करना था बल्कि दोस्तों को और नजदीक लाना और उनकी चिंताओं पर विमर्श करना भी था. और इसमें सबसे बड़ा कदम भारत में ही लिया गया. अपनी भारत यात्रा के दौरान पोम्पियो ने भारत–अमेरिका 2+2 संवाद में हिस्सा लिया. दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्रियों के बीच होने वाली इस उच्चस्तरीय वार्ता में दोनों देशों ने कऊ महत्वपूर्ण समझौते किए. बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए) के तहत भारत को अमेरिकी जियोस्पेशियल तकनीक का फायदा मिलेगा. बीईसीए समझौते के साथ ही भारत और अमेरिका के बीच तीन मूलभूत रक्षा समझौतों की शर्त पूरी हो गयी है. दोनों देशों ने इंडस्ट्रियल सिक्योरिटी अनेक्स (आईएसए) पर भी समझौता किया है. आईएसए के साथ साथ तीनों मूलभूत रक्षा समझौतों - लोजिस्टिक एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ एग्रीमेंट (एलईएमओए) 2016, कम्युनिकेशन कांपेटिबिलिटी एंड सिक्योरिटी एग्रीमेंट (सीओएमसीएएसए) 2018, और बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट (बीईसीए), 2020 ने भारत-अमेरिका रक्षा संबंधों को न सिर्फ नए आयाम दिए हैं बल्कि यह भारत की सामरिक और रक्षा तैयारियों को भी पहले से बहुत मजबूत करने की क्षमता रखता है.

अमेरिका काफी समय से भारत को सामरिक तौर पर मजबूत करने की कोशिश में रहा है. भारतीय रक्षा और विदेश नीति के इतिहास में इतना बड़ा समझौता पहले नहीं हुआ. चीन को लेकर भारत की चिंताएं लगातार बढ़ती जा रही है. क्वाड देशों का चतुष्कोणीय सहयोग इन्हीं चिंताओं और चुनौतियों से पार पाने के लिए बना है जिसमें अमेरिका और भारत समेत जापान और आस्ट्रेलिया की भी साझेदारी है. चीन के साथ डोकलाम और गलवान सीमा संघर्षों ने साफ कर दिया है कि भारत को अपनी सुरक्षा के लिए चाणक्य नीति का सहारा लेना होगा. जहां तक अमेरिका का सवाल है तो वह इसमें महत्वपूर्ण कारक बन रहा है. चीन को लेकर पोम्पियो के हर बयान में चीन पर सीधा और पैना निशाना है. और निशाना सटीक लगा इसकी झलक इससे साफ है कि श्री लंका हो या भारत या फिर इंडोनेशिया, पोम्पियो के हर देश के दौरे पर चीन के विदेश मंत्रालय का बयान उसके पड़ोसियों से संबंधों में अमेरिका को दखल ना करने की चेतावनी देता नजर आया. अमेरिका में चुनाव बस होने ही वाले हैं और नतीजे सामने आने के साथ साफ हो जाएगा कि राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रम्प और उनके साथ माइक पोम्पियो ओवल हाउस में वापसी करेंगे हैं या नहीं. वैसे चीन तो यही मन्नतें कर रहा होगा कि ऐसा न हो.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)

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