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एमएफ हुसैनः विवादित रंगों का कैनवस खाली

९ जून २०११

सफेद बाल दाढ़ी और सफेद कपड़ों के बीच लरजते हाथों में पड़ी एक कूची जब चल पड़ती तो रंगों को नई पहचान दे देती. पर रंगों के इस खेल में पता नहीं कब सांप्रदायिकता और राष्ट्रीयता के रंग जुड़ गए और पूरे कैनवस को फीका कर गए.

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तस्वीर: cc-by-sa-nd-Valipa Venkat

कभी कभी तो हाथ में पेंटिंग ब्रश भी नहीं होता. करीब 10 साल पहले मुंबई के पृथ्वी थियेटर्स में कार्यक्रम था. मेहमानों के बीच अचानक बुजुर्ग हुसैन नजर आए. वहां जमा युवाओं से भी फिट. हमेशा की तरह नंगे पांव. कैनवस के पास पहुंचे. शायद दो मिनट का वक्त लगा होगा, जब उन्होंने ब्रश को एक किनारे कर हाथ से ही पेंटिंग बना दी और आखिर में एक कदम पीछे हटे. दोनों हाथों में रंग उठाया. दूर से ही कैनवस पर फेंक दिया. पेंटिंग में नई जान आ गई.

पिकासो और हुसैन

कभी जूते न पहनने वाले हुसैन ने आखिरी वक्त तक खुद को सीखते रहने वाला कलाकार रहने दिया. भले ही उन्हें पिकासो ऑफ इंडिया कहा जाता हो लेकिन उन्होंने खुद को कभी स्कूल में पढ़ने सीखने वाले बच्चे से आगे नहीं बढ़ने दिया. कभी फिल्मों के पोस्टर बनाने वाले एमएफ हुसैन ने कब ब्रश थाम लिया, खुद उन्हें भी याद नहीं. जिस साल भारत आजाद हुआ, उस साल हुसैन के करियर को भी नई दिशा मिल गई जब वह मुंबई के प्रतिष्ठित प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप में शामिल हो गए. तब 32 साल की उम्र में हुसैन भारत के सबसे बड़े चित्रकारों में गिने जाने लगे थे.

Maqbool Fida Husain Ragamala Series Flash-Galerie
तस्वीर: AP

पचड़े में पेंटिंग

मॉर्डन पेंटिंग के सबसे बड़े नाम पिकासो के साथ सम्मानित किए जा चुके हुसैन ने यूरोप और अमेरिका में न सिर्फ नाम, बल्कि बहुत पैसा भी कमाया. 40 की उम्र में वह भारत के सबसे प्रतिष्ठित कलाकारों में गिने जाने लगे और सरकार ने उन्हें पद्मश्री भी दे दिया. बाद में बहुत से मान सम्मान और मिले और कई विवाद भी उनके साथ जुड़े.

कैनवस ने हुसैन को नई पहचान जरूर दी हो लेकिन उनकी जिन्दगी फिल्मों के साथ शुरू हुई थी. उनके मन में फिल्मों को लेकर अलग जगह बनी रही और 1960 के दशक में वह फिल्मों की ओर बढ़े. 1967 में बनाई पहली फिल्म को अंतरराष्ट्रीय पर्दे पर ख्याति मिली. थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर को बर्लिन फिल्म महोत्सव में गोल्डन बीयर पुरस्कार मिला. 1971 में पाब्लो पिकासो के साथ साओ पाओलो बीएनाले में एमएफ हुसैन खास अतिथि बने. इस नाम और लोकप्रियता से परे एमएफ हुसैन के चित्र विवादों में ही ज्यादा रहे. खासकर हिंदू देवियों के चित्रों पर हिंदू कट्टरपंथियों की कुपित नजर बनी रही. उन पर आठ आपराधिक शिकायत दर्ज की गई लेकिन दिल्ली हाई कोर्ट ने उन्हें खारिज कर दिया.

90 की उम्र में हुसैन के लिए यह इतना बड़ा सिरदर्द हो गया कि उन्हें भारत छोड़ना पड़ा. भारतीय अदालतों में चलते मुकदमे और कुछ लोगों का विरोध हुसैन को तोड़ गया. उनकी कला भी प्रभावित हो गई और उन्हें कतर में शरण लेनी पड़ी. बाद में कतर ने उन्हें नागरिकता भी दे दी. हालांकि आखिर के कुछ साल हुसैन ज्यादातर ब्रिटेन में ही रहे.

तकनीक और चिंतन

मकबूल फिदा हुसैन के चित्रों को अगर देखा जाए तो अपने करियर की शुरुआत में बनाए हुए उनके चित्र तकनीकी तौर पर बहुत शानदार थे. लेकिन जैसे जैसे लोकप्रियता और पैसा मिलता गया उनकी कला का रंग बदल गया. हर चित्र जो मकबूल फिदा हुसैन के नाम वाला था उसकी कीमत करोड़ों में बदलती चली गई. पश्चिमी तकनीक के आधार पर बने अधिकतर चित्रों की कथा वस्तु या विषय वस्तु तो भारतीय रही लेकिन पारंपरिक नहीं. इसी के कारण वह लगातार विवादों में घिरते चले गए. पश्चिमी जगत में एमएफ हुसैन का सिर्फ एक भारतीय कलाकार के तौर पर मशहूर हैं. जिसकी एक खास वजह यह रही कि भारत आजाद होने के बाद कला में किसी भी तरीके से भारतीयता की तलाश होने लगी. प्रोग्रेसिव ग्रुप ने बंगाल स्कूल को खारिज किया और अंतरराष्ट्रीय मॉडर्न आर्ट शुरू किया. इस ग्रुप के फ्रांसिस न्यूटन सूजा को धार्मिक और कामुक चित्रों के कारण नाम मिला. अंतरराष्ट्रीय ग्रुप होने के कारण हुसैन को यूरोपीय कला का रंग देखने को मिला. लेकिन भारतीयता और फिल्मों में रुचि हुसैन की लोकप्रियता की चाबी साबित हुई.

Künstler M.F. Husain, Indien Flash-Galerie
तस्वीर: AP

हुसैन के चित्र कहीं न कहीं लोकतंत्र की भावना को कुरेदते रहे हैं. उनके चित्र इस बात का भी उदाहरण है कि कला राजनैतिक नहीं होते हुए भी कैसे राजनैतिक रूप ले लेती है. साथ ही श्लील अश्लील की सीमा पर भी सवाल उठाती है. प्रोग्रेसिव आर्ट को आधार बना कर शुरू हुआ एमएफ हुसैन का फलक लोकप्रियता और विवादों की भेंट चढ़ा. इसी के कारण अपनी मातृभूमि से प्यार करने वाले, उस के चित्र पर विवादित होने वाले एमएफ हुसैन को आखिरी सांस अपने गांव में नसीब नहीं हुई.

रिपोर्टः आभा मोंढे

संपादनः उभ

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