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उज्ज्वला योजना का असर लेकिन समस्याएं बाकी

प्रभाकर मणि तिवारी
७ जून २०१८

भारत में दो साल पहले शुरू हुई प्रधानमंत्री उज्जवला योजना का मकसद गरीब परिवारों को कुकिंग गैस कनेक्शन दिलाना और पर्यावरण के अलावा उनकी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं का निवारण था. इस योजना का असर हुआ है लेकिन दिक्कतें भी हैं.

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Kochen mit Gas in Indien
तस्वीर: DW/PM Tewari

‘हर दो महीने पर गैस सिलेंडर रिफिल कराने के लिए पांच सौ की रकम कहां से लाएं? पति दैनिक मजदूरी कर किसी तरह छह लोगों के परिवार का पेट पालते हैं. हम तो इधर-उधर से चुनी गई लकड़ी या पत्तों से ही किसी तरह चूल्हे पर खाना पका लेते हैं. पश्चिम बंगाल के उत्तर 24-परगना जिले के एक गांव की रहने वाली अनिता नस्कर की यह टिप्पणी प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के स्याह पहलू का खुलासा करती है. पूरे देश में तस्वीर कमोबेश ऐसी ही है.

नरेंद्र मोदी सरकार ने दो साल पहले गरीबी रेखा (बीपीएल)) से नीचे रहने वाली महिलाओं को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन देने के लिए जोर-शोर एलान किया था, लेकिन प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना दो साल बाद भी पूरी तरह बेदाग नहीं है. कहीं इस योजना के तहत सब्सिडी की रकम मिलने में बैंक खातों की समस्या सामने आ रही है तो कहीं डीलर ऐसे लोगों से ज्यादा पैसे वसूल रहे हैं. हजारों ऐसी भी शिकायतें मिल रही हैं जहां लोग आर्थिक तंगी की वजह से साल-साल भर तक नया सिलेंडर नहीं खरीदते. इसी के साथ खासकर आदिवासी इलाकों में इन कनेक्शनों के पांच-पांच सौ रुपए तक बिकने की खबरें भी सामने आई हैं. केंद्र सरकार ने यह योजना तो सही नीयत से शुरू की थी. लेकिन उसने यह सुनिश्चित करने की कोई कोशिश नहीं की कि गरीबों को लंबे समय तक इस योजना का लाभ मिलता रहे.

योजना

देश के गरीब परिवारों की महिलाओं को मिट्टी के चूल्हे पर लकड़ी या कोयले से खाना पकाने से मुक्ति के मकसद से पहली मई, 2016 को प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की शुरुआत की गई थी. इसके तहत गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले पांच करोड़ परिवारों को मुफ्त एलपीजी कनेक्शन मुहैया कराने का लक्ष्य रखा गया था. इस योजना के लिए मंत्रिमंडल ने आठ हजार करोड़ रुपए की मंजूरी दी थी. इसके साथ ही उनको गैस सिलेंडर पर सब्सिडी मिलनी थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसी सप्ताह कहा है कि उज्‍जवला योजना के तहत अब तक ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग चार करोड़ महिलाएं एलपीजी कनेक्‍शन हासिल कर चुकी हैं. उन्होंने कहा कि वर्ष 2014 यानी केंद्र में एनडीए के सत्ता में आने के बाद से अब तक चार वर्षों में कुल मिलाकर लगभग 10 करोड़ नए एलपीजी कनेक्‍शन जारी किए जा चुके हैं जबकि वर्ष 1955 से 2014 के बीच के छह दशकों में महज 13 करोड़ एलपीजी कनेक्‍शन ही जारी किए गए थे.

विशेषज्ञों का कहना है कि सरकार की यह योजना तो दुरुस्त थी. लेकिन लागू करने से पहले जमीनी स्तर पर कुछ व्यवहारिक दिक्कतों की ओर ध्यान नहीं दिया गया. मिसाल के तौर पर थोक के भाव कनेक्शन तो बांटे गए. लेकिन यह सुनिश्चित नहीं किया गया कि लोग उसे जारी रखें और नियमित तौर पर उसका इस्तेमाल करें.

योजना में जल्दबाजी

वर्ष 2015 में लांसेट ने अपने एक अध्ययन में बताया था कि भारत में पारंपरिक चूल्हों या स्टोव पर लकड़ी या दूसरे ईंधन के जरिए खाना पकाने की वजह से फेफड़ों में जाने वाले धुएं के कारण पैदा होने वाली बीमारियों की चपेट में आकर सालाना औसतन एक लाख से ज्यादा लोगों की मौत हो जाती है. वैसे, गैर-सरकारी संगठनों के मुताबिक, यह तादाद इससे कहीं ज्यादा है. इसके अलावा जंगल की लकड़ियां कटने की वजह से देश में पर्यावरण की समस्या भी गंभीर हुई है. इस तथ्य को ध्यान में रखें तो यह एक बेहतरीन योजना थी. लेकिन सरकार ने इसे जल्दबाजी में लागू कर दिया. केंद्र ने यह जानने के लिए रेटिंग एजेंसी क्रिसिल से एक अध्ययन कराया था कि गरीब परिवारों को एलपीजी पर खाना पकाने के लिए कैसे प्रोत्साहित किया जा सकता है. लेकिन अध्ययन के नतीजों का इंतजार किए बिना योजना लागू कर दी गई. इसके लागू होने के महीने भर बाद जब अध्ययन के नतीजे सामने आए तो व्यवहारिक खामियों का खुलासा हुआ.

Indien Frau Frauen kochen Hausarbeit
तस्वीर: Getty Images

क्रिसिल ने 13 राज्यों के 120 जिलों में एक लाख से ज्यादा लोगों के सर्वेक्षण के बाद दी गई रिपोर्ट में कहा था कि 86 फीसदी लोगों के मुताबिक एलपीजी एक महंगा सौदा है. इसलिए वे लकड़ी और कोयले जैसे ईंधनों पर ही निर्भर है. इसी तरह 83 फीसदी ने रिफिल की कीमत बहुत ज्यादा होने की बात कही थी. रिपोर्ट में रिफिल सिलेंडर की कीमतों में सब्सिडी के जरिए कटौती की सिफारिश की गई थी. क्रिसिल ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि ग्रामीण इलाकों के 37 फीसदी आबादी को खाना पकाने का ईंधन मुफ्त में मिलता है. ऐसे में वह हर दो महीने पर एलपीजी सिलेंडर के लिए पांच सौ रुपए क्यों खर्च करेंगे.

दिक्कतें

गरीब परिवारों को कनेक्शन लेने पर पहले रिफिल पर तो सब्सिडी और मासिक किस्तों में भुगतान की सुविधा है. लेकिन उसके बाद उसे अपने खर्च पर सिलेंडर खरीदना होता है. यही इस योजना की सबसे बड़ी समस्या है. इस योजना के शुरू होने के बाद देश में एलपीजी कनेक्शनों की तादाद में तो 12.26 फीसदी की वृद्धि हुई लेकिन गैस सिलेंडरों का इस्तेमाल महज 9.83 फीसदी ही बढ़ा है. आंकड़ों का यह फर्क उज्ज्वला योजना के दामन पर दाग लगाता है. इससे साफ है कि पहला सिलेंडर खत्म होने के बाद बहुत-से लोगों ने दूसरा सिलेंडर खरीदा ही नहीं है. नियंत्रक व महालेखापरीक्षक (सीएजी) की एक रिपोर्ट भी इस तथ्य की पुष्टि करती है. बीते साल सीएजी रिपोर्ट में कहा गया था कि वर्ष 2015-16 में एलपीजी कनेक्शन वाले घरों में सालाना औसतन 6.26 सिलेंडरों का इस्तेमाल होता था. लेकिन इस योजना की शुरुआत के बाद यह औसत गिर कर 5.6 तक पहुंच गया.

इस योजना के तहत कनेक्शन लेने के लिए घर की महिला सदस्य के नाम बैंक में खाता होना जरूरी है. लेकिन इसके लिए आधार कार्ड होना जरूरी है. ग्रामीण इलाकों में अब भी भारी तादाद में महिलाओं के पास आधार कार्ड नहीं है. जिनके पास यह कार्ड है उनमें से भी बहुत-सी महिलाओं के नाम बैंक में खाते नहीं हैं. बैंक खाता नहीं होने की स्थिति में रिफिल सिलेंडर पर सब्सिडी नहीं मिल सकती. यह भी इस योजना की राह में एक रोड़ा है. समाजशास्त्री प्रोफेसर धीरेन गोहाईं बताते हैं, "गांवों में गरीबी इतनी है कि कई बीपीएल परिवारों के लिए दो जून की रोटी जुटाना ही जीवन की सबसे बड़ी जद्दोजहद है. ऐसे में बैंक खाता चलाने के लिए पैसे कहां से आएंगे?"

सरकारी दावा

उज्ज्वला योजना के तहत मिले कनेक्शन में हर तीन महीने पर रिफिल सिलेंडर नहीं लेने की स्थिति में वितरक उनको निष्क्रिय कनेक्शन सूची में डाल देते हैं. जनवरी, 2018 के आंकड़ों के मुताबिक देश भर में फिलहाल ऐसे 3.82 करोड़ निष्क्रिय कनेक्शन हैं. दूसरी ओर केंद्र सरकार का दावा है कि उज्ज्वला योजना शुरू होने के पहले ही साल 80 फीसदी परिवारों ने गैस सिलिंडर रिफिल करवाया है. पेट्रोलियम मंत्री धर्मेद्र प्रधान बताते हैं कि अब तक 3.40 करोड़ परिवारों को इस योजना का फायदा मिल चुका है. समाजशास्त्रियों का कहना है कि इस योजना के तहत सब्सिडी के बावजूद रिफिल सिलेंडर साढ़े चार सौ रुपए से कम में नहीं मिलता. बीपीएल परिवारों के लिए यह एक बड़ी रकम है. उनके जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाना है.

ज्यादातर ग्रामीण परिवारों को पारंपरिक जलावन या तो मुफ्त मिलते हैं या फिर बेहद मामूली कीमत पर. यही वजह है कि कनेक्शन मिल जाने के बावजूद लोग एक सिलेंडर को साल-साल भर तक चलाते हैं. देश में सब्सिडी और एलपीजी की लागत पर शोध करने वाली द एनर्जी एंड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट की एसोसिएट फेलो स्वाति डिसूजा कहती हैं, "इस योजना की कामयाबी के लिए पहले रिफिल सिलेंडरों पर सब्सिडी बढ़ानी होगा और साथ ही यह सुनिश्चित करना होगा कि ग्रामीण इलाकों में रहने वाले परिवार वह रकम चुकाने में समर्थन और उसके इच्छुक हों." विशेषज्ञों के मुताबिक नए एलपीजी कनेक्शनों की तादाद ही प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना के सही आकलन का पैमाना नहीं हो सकती. इसके लिए ग्रामीण इलाकों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए व्यावहारिक दिक्कतों को दूर करने की दिशा में ठोस पहल करनी होगी. उसके बाद ही यह योजना अपने को सार्थक कर सकेगी.

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