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समाज

ईको टूरिज्मः पर्यावरण की कीमत पर न हो पर्यटन

शिवप्रसाद जोशी
२४ मार्च २०२१

ईको टूरिज्म पर सरकार द्वारा प्रस्तावित नये दिशा-निर्देशों से पर्यटन को गति मिलने की उम्मीद जतायी गई है. लेकिन वन्यजीव और जंगलों में रहने वाली जनजातीय आबादी के प्रभावित होने की आशंका भी है.

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तस्वीर: Bildagentur-online/AGF-Hermes/dpa/picture alliance

क्या ईको टूरिज्म एक पर्यावरण विरोधी गतिविधि भी हो सकती है? भारत सरकार के प्रस्तावित निर्देशों के तहत वन्यजीव क्षेत्रों में टूरिज्म के प्रोजेक्ट खोले जा सकेंगे और बिना पूर्व अनुमति के, अस्थायी ढांचे खड़े किए जा सकेंगे. सरकार का दावा है कि स्थानीय समुदायों के लिए आय और अवसर पैदा करते हुए प्रकृति और वन्यजीव संरक्षण की बेहतर समझ को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वन और वन्यजीव क्षेत्रों में ईको-पर्यटन के लिए दिशा-निर्देश (गाइडलाइन) बनाये गये हैं.

ईको पर्यटन के लिए ग्लोबल डेस्टिनेशन

'हिंदुस्तान टाइम्स' अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक एक महीने के भीतर ही केंद्र सरकार वे गाइडलाइनें जारी कर देगी जिनके तहत वन्यजीवन और प्राकृतिक संपदा से भरे वन क्षेत्रों में ईको पर्यटन के लिए रास्ता खुल सकेगा. रिपोर्ट में नाम न जाहिर करने वाले अधिकारियों का हवाला देते हुए बताया गया है कि ईको पर्यटन के जरिए, हल्के फुल्के पर्यटन, जंगलों में सैर-सपाटे और जंगल सफारी के लिए भारत एक ग्लोबल डेस्टिनेशन बनने की राह पर है. ईकोपर्यटन के तहत जो प्रमुख परियोजनाएं चलायी जाएंगी उनमे प्राकृतिक पर्यटन को बढ़ावा,  भारत के जल-जंगल का पारंपरिक पारिस्थितिकीय ज्ञान और विरासती मूल्यों को बढ़ावा, संबद्ध लोगों के बीच भागीदारी आदि बिंदु शामिल हैं. इनके जरिए भारत की ईको पर्यटन सामर्थ्य का अंदाजा भी लगाने की कोशिश की जाएगी.

वैसे सरकारों की ये दिलचस्पी आज की नहीं है. 2012 में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए नयी ईको टूरिज्म गाइडलाइन बनायी गयी थीं. जिनके तहत देश के टाइगर रिजर्वों का 20 फीसदी हिस्सा टूरिज्म के लिए खोल दिया गया था. जबकि वन मंत्रालय के एक पूर्व पैनल ने कोर टाइगर हैबिटेट से पर्यटन को बाहर रखने की गाइडलाइन्स जारी की थीं, जिन्हें वापस ले लिया गया.

नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी के दायरे से बाहर

नेशनल बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ की स्टैन्डिंग कमेटी ने दिशा निर्देशों पर फिलहाल अपनी स्वीकृति नहीं दी है. मंत्रालय के वन संरक्षण संभाग का कहना है कि इन दिशा-निर्देशों का वन संरक्षण अधिनियम 1980 के प्रावधानों से साम्य होना भी जरूरी है. ईको टूरिज्म योजना को जगह देने के लिए अधिनियम में भी कुछ छिटपुट संशोधन किए जाने की जरूरत भी बतायी गयी है. क्योंकि वन संरक्षण अधिनियम 1980 और वन संरक्षण नियमावली 2003 में ईको पर्यटन को "गैर वानिकी गतिविधि” बताते हुए वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत पूर्व मंजूरी जरूरी बतायी गयी थी.

ओडीशा के एक हरे भरे गांव की तस्वीर.
ओडीशा के एक हरे भरे गांव की तस्वीर. तस्वीर: Bildagentur-online/AGF-Hermes/dpa/picture alliance

पर्यावरणवादियों और पर्यावरण से जुड़े एक्टिविस्टों को ईको टूरिज्म के नाम पर जंगल की समूची कुदरती व्यवस्था के बिखरने या बाधित होने का भी अंदेशा भी है. उनका कहना है कि जंगल में एक अस्थायी तंबू भी अपने निशान छोड़ देता है. पर्यावरण से जुड़े जानकार ये सवाल भी करते हैं कि आखिर राष्ट्रीय पार्कों और आरक्षित वन क्षेत्र के भीतर ही ईको टूरिज्म चलाने पर जोर क्यों दिया जा रहा है. ये गतिविधियां तो संवेदनशील वन्यजीव इलाके के बाहर भी हो सकती हैं. हालांकि नेशनल पार्कों या अभ्यारण्यों के बाहर ऐसी गतिविधियों से भी एक समूचे वन ईको सिस्टम का ढांचा किसी न किसी तरह प्रभावित तो होता ही है. कॉर्बेट की मिसाल भी दी जाती है.

बहस बाकीः पर्यावरण जरूरी या पर्यटन?

वैसे इस सच्चाई से इंकार नहीं किया जा सकता है कि अंततः ईको टूरिज्म एक व्यवसायिक और लाभ कमाऊ तरतीब ही है जो पर्यावरण और पारिस्थितिकी से जुड़ी बुनियादी चिंताओं को रेखांकित न कर एक बाहरी और सतही आकर्षण वाले प्रकृति प्रेम या कुदरती रोमान के इर्दगिर्द ही अपना प्रभामंडल बुनती है. यहां संरक्षण, पर्यावरण, कार्बन फुटप्रिंट, वन्यजीवन, मूलनिवास जैसे आधारबिंदु नहीं, बल्कि एक "आनंदलोक” गढ़ा जाता है, जहां सैर-सपाटा, नौका विहार, दुर्लभ जंतु दर्शन, टाइगर सफारी, जंगल सफारी जैसी रोमांचकारी शब्दावलियां ही छायी हुई रहती हैं.

अगर एक लंबे समय तक ईको टूरिज्म नॉन फॉरेस्ट एक्टिविटी के रूप में चिंहित रही है तो आखिर वे कौनसे ठोस कारण हैं जिनके चलते इस कैटगरी से उसे हटाया जा रहा है. ये छिपी बात नहीं है कि अलग अलग किस्म की निर्माण परियोजनाओं के चलते हम अपनी प्रकृति, पहाड़, जल-जंगल-जमीन को पहले ही अनावृत्त कर चुके हैं और जलवायु परिवर्तन ने कभी बाढ़, कभी अतिवृष्टि और कभी जंगल की आग तो कभी सूखे के रूप में एक से बढ़कर एक खतरनाक चुनौतियां हमारे सामने रख दी हैं तो ईको टूरिज्म भी मानो इस चुनौती को और तीखा बना रहा है.

पर्यावरण और पारिस्थितिकी को पर्यटन से जोड़ने में यूं कोई हर्ज नहीं है. ऐसी गतिविधियों से स्वरोजगार भी बनते हैं और जंगलों के प्रति संवेदनशीलता भी आती है, लेकिन तभी अगर उनका मकसद सिर्फ लाभ अर्जित करना न हो. ईको-टूरिज्म का एक सुचिंतित और समावेशी मॉडल बनाए जाने की जरूरत है. सबसे पहला बिंदु तो यही होना चाहिए कि उसके जरिए जंगल के जानवरों, मूलनिवासियों, जनजातियों और आदिवासियों को तकलीफ न पहुंचे और उनका जीवन तितरबितर न हो जाए.

डोंगरिया कोंध समुदाय का प्रतिरोध

ईको-टूरिज्म एक आघात की तरह नहीं दाखिल हो सकता है. वह बाहरी क्षेत्रों में एक संयमित, अनुशासित और जागरूक गतिविधि के रूप में सक्रिय रह सकता है लेकिन इस बुनियादी चिंता के साथ कि जंगल का ईको, सोशल और जैव सिस्टम अक्षुण्ण बना रहे. जंगल में रहने वाले समुदायों को ईको-पर्यटन में सजावटी या आकर्षण की वस्तु न बनाया जाए और न ही उन्हें उन कार्यों के लिए न कड़ाई से न पैसों के लिहाज से विवश किया जाए जो उनके मूल जरूरतों से अलग हैं और उनकी प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं.

पिछले साल ओडीशा के नियमागिरि पहाड़ों की डोंगरिया कोंध समुदाय का आंदोलन भी ध्यान देने योग्य है. उस जनजाति समुदाय का कहना है कि वो सरकारी प्रोजेक्ट के लिए अपनी जमीन से अलग नहीं हो सकते हैं. वर्षों से खनन और दूसरे कॉरपोरेट हितों के विरोध में आंदोलित आदिवासियों के सामने अब एक नयी मुसीबत बन कर आया है- ईको टूरिज्म प्रोजेक्ट. खबरो के मुताबिक राज्य सरकार के वन विभाग के इस कदम से नाराज डोंगरिया लोग नये सिरे से आंदोलित हैं. समाचार रिपोर्टो के मुताबिक उनका कहना है कि वे सैलानियों के बीच मनोरंजन और रोमांच की तरह नहीं पेश हो सकते.