इतिहास में 14 मई: आज ही शुरू हुई इस्राएल की कहानी
१४ मई २०२०14 मई 1948 को डाविड बेन गुरियॉन ने मध्य पूर्व में स्वतंत्र राज्य इस्राएल की स्थापना की घोषणा की. वे यहूदियों के इस नए देश के पहले प्रधानमंत्री भी बने. अमेरिकी राष्ट्रपति हैरी एस. ट्रूमैन ने और सोवियत नेता स्टालिन ने फौरन नए राष्ट्र को मान्यता देने की घोषणा की. इस्राएल की स्थापना की नींव संयुक्त राष्ट्र महासभा के एक प्रस्ताव के साथ पक्की हो गई थी जिसमें फलीस्तीनी इलाके के विभाजन और वहां यहूदी और अरब राष्ट्र बनाने की बात थी. इस प्रस्ताव में ब्रिटेन से पहली फरवरी 1948 से यहूदियों को उस इलाके में आने देने की अपील भी की गई थी. इस प्रस्ताव से तनाव बढ़ गया और गृहयुद्ध शुरू हो गया, जिसका अंत इस्राएल की स्थापना और लाखों फलीस्तीनियों के विस्थापन के साथ हुआ.
अरब लीग ने संयुक्त राष्ट्र की योजना को मानने से इंकार कर दिया और पूरे फलीस्तीनी इलाके में अरबों के आत्मनिर्णय के अधिकार का दावा किया. हइफा से ब्रिटिश सेना के हटने के बाद अरब देशों की सेना फलीस्तीनी इलाकों में घुस गई और पहला अरब इस्राएली युद्ध शुरू हुआ. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान में जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार में बचे लोग और युद्ध में शामिल रहे पूर्व सैनिक भी इस्राएल आए. शुरुआती हार के बाद जुलाई से स्थिति बदली और इस्राएलियों ने अरबों को अपने इलाके से बाहर कर दिया और कुछ अरब इलाके भी जीत लिए. नवंबर के अंत में सीरिया और लेबनान के साथ संघर्ष विराम हुआ. 1949 में इस्राएल ने लड़ाई के खात्मे के लिए पड़ोसी अरब देशों मिस्र, सीरिया, जॉर्डन और लेबनान के साथ संधि की.
बाइबिल में उल्लेखित इस्राएल के देश को पवित्र भूमि या फलीस्तीन के नाम से भी जाना जाता है. इसे यहूदियों का जन्म स्थान होने के अलावा पहले हिब्रू बाइबल के संग्रह की जगह भी माना जाता है. इस इलाके में यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म के पवित्र स्थल हैं. यह इलाका अलग अलग काल में विभिन्न राजशाहियों के नियंत्रण में रहा है, इसलिए यहां विभिन्न जातियों का प्रभाव रहा है. 19वीं सदी में बढ़ते यहूदी विरोध के कारण यहूदी राष्ट्रीय आंदोलन जायनवाद का उदय हुआ. उसके बाद विदेशों में रह रहे यहूदियों के वापस लौटने की मांग तेज होने लगी.
पहले विश्वयुद्ध के दौरान ब्रिटेन ने सार्वजनिक रूप से यहूदी राष्ट्र बनाने की बात स्वीकार की और संयुक्त राष्ट्र की पूर्ववर्ती संस्था लीग ऑफ नेशंस ने उसे इस मकसद से फलीस्तीन पर शासन करने का मैंडेट दिया. इसके खिलाफ एक अरब राष्ट्रवाद का भी उदय हुआ जिसने ऑटोमन साम्राज्य के उन हिस्सों पर अधिकार का दावा किया और फलीस्तीन में प्रवासी यहूदियों की वापसी को रोकने की कोशिश की. इसकी वजह से अरब यहूदी तनाव में इजाफा शुरू हुआ. यह इलाका 13वीं सदी से ही मुस्लिम प्रभाव में था और प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटेन की जीत तक 15वीं सदी से ऑटोमन साम्राज्य का हिस्सा था.
1948 में इस्राएल की स्थापना के बाद अरब यहूदी विवाद और बढ़ता गया. इसकी वजह से दूसरे अरब देशों से यहूदी भागकर इस्राएल में पहुंचने लगे और इस्राएल के इलाके के मुसलमान भागकर दूसरे देशों में जाने लगे. इस समय दुनिया की करीब आधी यहूदी आबादी इस्राएल में रहती है जबकि 1948 के बाद से दुनिया भर में रहने वाले फलीस्तीनियों की तादाद बढ़कर नौगुना हो गई है.
फलीस्तीनी इस्राएल की स्वतंत्र देश के रूप में घोषणा को आपदा के दिन नकबा के रूप में मनाते हैं. फलीस्तीनी सांख्यिकी कार्यलय के अनुसार ऐतिहासिक फलीस्तीन में 14 लाख फलीस्तीनी रहते थे जिनमें से 800,000 को भागना पड़ा. करीब 200,000 फलीस्तीनी 1967 में हुए छह दिवसीय इस्राएल अरब युद्ध के बाद भागे. इस समय दुनिया भर में रहने वाले फलीस्तीनियों की संख्या 1.34 करोड़ है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार इनमें 56 लाख शरणार्थी हैं जो जॉर्डन, सीरिया, लेबनान और फलीस्तीनी इलाकों के रिफ्यूजी कैंपों में रहते हैं.
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