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कानून और न्याय

आसान नहीं है भारत में श्रम सुधारों की राह

१६ जुलाई २०१९

भारत सरकार असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को सामाजिक और कानूनी सुरक्षा मुहैया कराने पर विचार कर रही है. इसके लिए श्रम कानूनों में संशोधन जरूरी है लेकिन इसकी राह आसान नहीं है.

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Indien mehr Arbeitslose in Kalkutta
तस्वीर: DW/P. M. Tiwari

भारत में असंगठित क्षेत्र में कितने मजदूर हैं, इसका आंकड़ा किसी के पास नहीं है. हाल में जारी आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि कुल मजदूरों में से 93 प्रतिशत असंगठित क्षेत्र में हैं. केंद्र सरकार की ओर से श्रम कानूनों में सुधार का मकसद असंगठित क्षेत्र के कामगारों को कानूनी व सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराना है. लेकिन इसकी राह में कई चुनौतियां हैं और सरकार के पास तैयारियों का अभाव साफ नजर आता है.

कौन होते हैं कामगार

सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि किसी को यह पता नहीं है कि असंगठित क्षेत्र में कितने कामगार हैं. बीती चार जुलाई को जारी आर्थिक सर्वेक्षण में कहा गया था कि मजदूरों की कुल तादाद में से 93 फीसदी असंगठित क्षेत्र में हैं. लेकिन बीते साल नवंबर में नीति आयोग की ओर से जारी आजादी के "75 साल में नए भारत की रणनीति" में 85 फीसदी कामगारों के असंगठित क्षेत्र में होने का अनुमान लगाया गया था. हालांकि आर्थिक सर्वेक्षण में कहीं इस बात का जिक्र नहीं है कि उक्त आंकड़ों का आधार क्या है. नीति आयोग ने अपने आंकड़ों के लिए वर्ष 2014 की एक रिपोर्ट का हवाला दिया है. वर्ष 2012 में राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग की ओर से जारी रिपोर्ट आफ द कमिटी आन आर्गेनाइज्ड सेक्टर स्टैटिस्टिक्स में असंगठित क्षेत्र के कामगारों की तादाद 90 फीसदी से ज्यादा बताई गई थी.

असंगठित क्षेत्र की तस्वीर खास उजली नहीं है. श्रम मंत्रालय की ओर से वर्ष 2015 में तैयार एक रिपोर्ट में कहा गया था कि कृषि व गैर-कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 82 फीसदी कामगारों के पास नौकरी का कोई लिखित कांट्रैक्ट नहीं है, 77.3 फीसदी को वेतन समेत छुट्टी नहीं मिलती और 69 फीसदी को कोई सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मिलता. मजदूरी के मामले में इस क्षेत्र के कामगार उपेक्षा के शिकार हैं. भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) के अध्यक्ष सीके साजिनारायणन कहते हैं, "इस क्षेत्र के कामगारों को कोई सुविधा नहीं मिलती. उनको मजदूरी तो कम मिलती ही है, काम के घंटे भी तय नहीं हैं." आल इंडिया ट्रेड यूनियन कांग्रेस (एआईटीयूसी) की महासचिव अमरजीत कौर कहती हैं, "कोई कानूनी संरक्षण नहीं होने की वजह से इस क्षेत्र के कामगारों का भारी शोषण किया जाता है. तमाम सरकारें इस क्षेत्र की अनदेखी करती रही हैं."

कैसी चुनौतियां हैं इस राह में

असंगठित क्षेत्र की बेहतरी के लिए प्रस्तावित श्रम सुधारों की राह में कई चुनौतियां हैं. इंस्टीट्यूट फॉर स्टडीज इन इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट (आईएसआईडी) के प्रोफेसर सात्यकी राय कहते हैं, "प्रस्तावित सुधारों से इस क्षेत्र के कामगरों की असुरक्षा बढ़ने का खतरा है." बीएमएस के मुताबिक, इस मामले में तीन बड़ी चुनौतियां हैं. उनमें से पहली चुनौती असंगठित क्षेत्र की मजदूरों की पहचान करना है. इसके अलावा सामाजिक सुरक्षा मुहैया कराने के लिए समुचित धन का इंतजाम करना औऱ नए श्रम कानूनों को लागू करने के लिए गांव के स्तर पर सरकारी तंत्र की स्थापना भी एक बड़ी चुनौती है.

नीति आयोग के पूर्व अध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया कहते हैं कि औद्योगिक विवाद अधिनियम फैक्टरी मालिकों के लिए एक बड़ी चुनौती है. सौ से ज्यादा कामगरों के काम करने की स्थिति में सरकार की अनुमति के बिना किसी कामगर को हटाया नहीं जा सकता. यह खासकर निर्माण के क्षेत्र में निवेश की राह में सबसे बड़ी बाधा है.

फिलहाल श्रम कानूनों को लेकर काफी आपाधापी है. इस मुद्दे पर केंद्र सरकार के लगभग 40 कानून हैं और राज्य सरकारों के सौ से ज्यादा कानून. लेकिन केंद्र सरकार अब मूल रूप से चार मुद्दों पर फोकस रखते हुए श्रम कानूनों में संशोधन करना चाहती है. यह चार मुद्दे हैं, मजदूरी, औद्योगिक संबंध, सामाजिक सुरक्षा व कल्याण और पेशेवर सुरक्षा, स्वास्थ्य और कामकाजी माहौल.

'राजस्थान मॉडल' अपनाने की सलाह

सरकार निजी इकाइयों में मजदूर यूनियनों के गठन और हायर एंड फायर नीति पर जो सुधार करना चाहती है उनका बड़े पैमाने पर विरोध हो रहा है. बीएमएस का कहना है कि पहले जो काम 100 लोग करते थे, अब आधुनिकीकरण की वजह से 30 लोगों से ही काम चल जाता है. लेकिन हायर एंड फायर नीति को और उदार बनाने की स्थिति में कामगारों को भारी नुकसान होगा. मजदूर संगठन सीटू का कहना है कि इस नीति में प्रस्तावित सुधारों से अपने जायज हक के लिए आवाज उठाने पर भी कामगारों को नौकरी से हटाया जा सकता है. बीएमएस नेता साजिनारायण कहते हैं, "सरकार इन सुधारों के बाहने कामगारों के हड़ताल के अधिकार पर भी अंकुश लगाना चाहती है." फैक्टरी अधिनियम, 1948 में प्रस्तावित सुधारों पर भी विवाद है. सरकार चाहती है कि बिजली का इस्तेमाल करने वाली किसी यूनिट में मौजूदा 10 की बजाय 20 और बिजली का इस्तेमाल नहीं करने वाली यूनिट में मौजूदा 20 की बजाय 40 कामगर होने पर ही उनको फैक्टरी का दर्जा दिया जाए. लेकिन ट्रेड यूनियनों की दलील है कि इससे हजारों नई यूनिटें असंगठित क्षेत्र में आ जाएंगी. साजिनारायण कहते हैं कि श्रम कानून तमाम फैक्टरियों पर लागू होने चाहिए भले ही उनमें एक ही कामगार क्यों नहीं हो.

वर्ष 2014 में राजस्थान श्रम सुधारों में पहल करने वाला पहला राज्य बना था. केंद्र सरकार के मुख्य आर्थिक सलाहकार के. सुब्रमण्यम ने राज्य सरकारों को बेहतर नतीजे के लिए राजस्थान मॉडल अपनाने की सलाह दी हैं. उनका कहना है कि श्रम सुधारों के बाद राजस्थान में सौ से ज्यादा कामगारों वाली फर्मों की तादाद तो बढ़ी ही, फैक्टिरयों के उत्पादन में भी वृद्धि हुई है.

अब केंद्र सरकार ने श्रम कानूनों में सुधार का जो प्रस्ताव पेश किया है उनमें से कई राजस्थान मॉडल पर ही आधारित हैं. इनमें फैक्टरी की परिभाषा बदलने, छंटनी और बंदी के लिए कामगरों के तादाद की सीमा बढ़ाना और ट्रेड यूनियन के स्थापना के लिए कामगरों के तादाद की सीमा तय करना जैसे प्रस्ताव शामिल हैं. अब यह देखना दिलचस्प होगा कि सरकार इन सुधारों की राह में आने वाली तमाम चुनौतियों को पार कर ट्रेड यूनियनों की मांगों को किस हद तक पूरा कर पाती है.

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