1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

एक अधिकार जिसके लिए लगानी पड़ती है जान की बाजी

२० अक्टूबर २०१६

लोकतंत्र जनता के लिए, जनता द्वारा और जनता का शासन है. इस दृष्टि से एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में गोपनीय कुछ भी नहीं होना चाहिए. लेकिन सूचना चाहने वालों को जान की बाजी लगानी पड़ती है.

https://p.dw.com/p/2RU9y
Kinder Gewalt Symbolbild
तस्वीर: Imago/Imagebroker

लोकतंत्र में सरकार के हर कामकाज, नीतियों और परियोजनाओं के बारे में नागरिकों को पता होना चाहिए. जनता सरकार को टैक्स देती है और हर नागरिक को ये जानने का अधिकार है कि उसके अदा किये गये कर का उपयोग हो रहा है या दुरुपयोग, जिन प्रतिनिधियों को उसने चुना है वे अपना दायित्व निभा रहे हैं या नहीं. सरकार को पारदर्शी और जवाबदेह बनाने के इसी सिद्धांत के तहत दुनिया के विभिन्न देशों में सूचना के अधिकार का कानून लागू किया गया. भारत में भी सामाजिक कार्यकर्ताओं के लंबे संघर्ष के बाद 11 अक्तूबर 2005 को सूचना का अधिकार कानून लागू हुआ.

इन ग्यारह वर्षों में इस कानून से भ्रष्टाचार के कई मामले उजागर हुए लेकिन इसका सबसे भयावह और दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष रहा आरटीआई कार्यकर्ताओं पर जघन्य हमले और उनकी हत्या. इसकी ताजा कड़ी है, पुणे में एक आरटीआई कार्यकर्ता की हत्या. दिल्ली की एक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार आरटीआई लागू होने के इन ग्यारह वर्षों में 51 आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या कर दी गई. आरटीआई कार्यकर्ताओं पर हमले और उन्हें धमकाने के 255 मामले दर्ज किये गए और 5 कार्यकर्ताओं ने उत्पीड़न से परेशान होकर आत्महत्या कर ली. इन हमलों के शिकार आरटीआई कार्यकर्ताओं की संख्या ज्यादा है क्योंकि कई मामलों में एक से ज्यादा कार्यकर्ताओं पर हमले किये गये. ये भी ध्यान रहे कि ये वे मामले हैं जिनमें अधिकांशत: सक्रिय आरटीआई कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया और वही जो पुलिस थाने तक पहुंचे. इस तरह के माहौल को देखते हुए अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि व्यक्तिगत स्तर पर आरटीआई के तहत आवेदन करने वाले नागरिकों को हतोत्साहित करना कितना आसान होता होगा. स्पष्ट है कि सार्वजनिक हित के लिए काम करने वाले लोग हमलों से घिरे हुए है.

विडंबना देखिए कि जिन राज्यों को अपेक्षाकृत विकसित और प्रगतिशील माना जाता है वहां इस तरह की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं. रिपोर्ट में ये कहा गया है कि महाराष्ट्र का नंबर पहला है जहां आरटीआई एक्टिविस्टों की हत्या के 10 और आत्महत्या के दो मामले दर्ज हुए, दूसरे नंबर पर गुजरात है जहां आठ हत्या और आत्महत्या का एक मामला दर्ज हुआ और उत्तर प्रदेश में हत्या के छह और आत्महत्या का एक मामला दर्ज किया गया. हमले सिर्फ आरटीआई कार्यकर्ताओं पर ही नहीं हो रहे बल्कि मीडिया में ऐसे भी मामले सुर्खियों में आए जिनमें सूचना आयुक्तों ने शिकायत दर्ज कराई कि जानकारी देने और कार्यवाही करने पर उन्हें जान से मार देने की धमकी दी जा रही है.

Subash Chandra Agrawl
एक्टिविस्ट सुभाष अग्रवालतस्वीर: DW/M. Krishnan

ऐसा लगता है कि इन हमलों से लोग सूचना मांगने से डरने लगे हैं क्योंकि आरटीआई आवेदकों की संख्या घटती जा रही है. राज्यसभा में इस बाबत दी गई सूचना के अनुसार 2014-15 में आरटीआई आवेदकों की संख्या घटकर 7,55,247 हो गई जो उसके पिछले साल 8,34,183 थी. हालांकि सरकार का दावा है कि चूंकि विभिन्न विभाग और मंत्रालय अपने कामकाज के बारे में स्वयं ही वेबसाइट पर जानकारी डाल देते हैं इसलिये लोगों को आरटीआई दायर करने की जरूरत ही कम पड़ती है. लेकिन इसे हास्यास्पद तर्क ही कहा जा सकता है क्योंकि जानकारी सार्वजनिक कर देने भर से भ्रष्टाचार के मामलों में कमी नहीं आ जाती है.

दरअसल आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या भारतीय लोकतंत्र के उस स्याह पहलू की ओर इशारा करता है जहां धन और बल की ताकत ने न सिर्फ चुनावी राजनीति पर कब्जा कर लिया है बल्कि हमारे सार्वजनिक जीवन पर भी उसी का दबदबा है. लगता यही है कि सवाल पूछने और असहमति के विवेक और लोकचेतना को पूरी तरह नष्ट करने की सुनियोजित साजिश की जा रही है. मध्यप्रदेश के व्यापम घोटाले और उत्तर प्रदेश के स्वास्थ्य घोटाले में जिस तरह से एक-एक कर लोगों की या तो हत्या कर दी गई या फिर उन्होंने आत्महत्या कर ली वो इसी बात की निशानी है. न सिर्फ भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है बल्कि भ्रष्टाचारियों के हाथ इतने लंबे हैं कि वे किसी भी तरह की पूछताछ और जांच की पहल को बड़ी ही आसानी से कुचल दे रहे हैं.

आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या इस बात की ओर भी इशारा करती है कि भारतीय शासन पद्धति में ऐसे तत्त्वों की पैठ कितनी गहरी हो चुकी है जो एक इशारे से किसी का भी मुंह बंद करा सकते हैं या किसी को हमेशा के लिए ख़ामोश कर सकते हैं. आरटीआई आवेदनों में मांगी जा रही जानकारी पर भी कई बार सवाल उठाए जाते हैं कि इस वजह से अधिकारियों के काम में बाधा आती है. आरटीआई के इन ग्यारह सालों में सूचना के अधिकार का प्रयोग सिर्फ 0.3 % लोगों ने ही किया है. स्पष्ट है कि अगर इसी तरह आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्या, आत्महत्या और हमले की खबरें आती रहीं तो इस अधिकार का इस्तेमाल करने के पहले लोग सोचेंगे और हिचकिचाएंगे. ऐसे में इस अधिकार का औचित्य ही नष्ट हो जाएगा. सरकारों की जवाबदेही कौन पूछेगा. वे और तेजी से सर्वाधिकारवादी और निरंकुश होती जाएंगी.

ब्लॉगः शिवप्रसाद जोशी