आने वाली अंबेडकर जयंती और दलितों का भारत बंद
२ अप्रैल २०१८दलित आंदोलन से सकपकाई, केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार याचिका दाखिल की है. लेकिन लगता है सरकार देर से हरकत में आई. तब तक आंदोलन जोर पकड़ चुका था. वैसे भी सुप्रीम कोर्ट ने खबरों के मुताबिक इस मामले में फौरन सुनवाई से मना कर दिया है. केंद्र ने ये सफाई भी दी है कि दलितों और अल्पसंख्यकों के आरक्षण के प्रावधान को हटाने का उसका कोई इरादा नहीं है. इस बीच उत्तर प्रदेश, गुजरात, पंजाब, राजस्थान और मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में बंद के दौरान हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ हुई. धारा 144, कर्फ्यू और इंटरनेट सेवाओं पर रोक की नौबत आ गई. चार लोगों के मारे जाने और दर्जनों के घायल होने की खबरें भी मीडिया में आई हैं. पंजाब, ओडीशा, दिल्ली, बिहार और झारखंड को आने जाने वाली कई ट्रेनें रोकी गईं. दलित संगठनों के इस आंदोलन की तपिश ने सत्ता राजनीति के हाथ पांव फुला दिए हैं. ये सरकारी मशीनरी को इस बात का अंदाजा ही नहीं था कि ये आंदोलन इतनी तेजी और सघनता से फैल सकता है. प्रशासन और सुरक्षा एजेंसियों लगता है पूरी तरह मुस्तैद नहीं थे.
सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च को अपने एक फैसले में कहा था कि एससी-एसटी अधिनियम के तहत पब्लिक सर्वेंट की गिरफ्तारी, एपॉयंटिंग अथॉरिटी की मंजूरी के बिना नहीं की जा सकती है. आम लोगों को भी वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक की मंजूरी के बाद ही इस मामले में गिरफ्तार किया जा सकता है. इस कानून के तहत इसका उल्लंघन करने वाले व्यक्ति को शिकायत के आधार पर तुरंत गिरफ्तार कर लिये जाने का प्रावधान था. दलित समुदाय इस फैसले से आहत है. उसके मुताबिक ये एक तरह से कानून को लचीला बनाने की कोशिश थी और उसे डर है कि दलितों पर अत्याचार की घटनाएं बढ़ेगी और उन्हें जैसे मर्जी धमकाया जाएगा. मानवाधिकार संगठनों और कई गैर बीजेपी दलों ने भी इस फैसले की आलोचना की थी और सरकार की मंशा पर भी सवाल उठाए थे. खुद बीजेपी के भीतर से दलित नेताओ ने फैसले के खिलाफ एक सुर में आपत्ति जताई थी. जाहिर है ये उनका वोट की राजनीति का भी डर था.
दलितों के शोषण और उन पर अत्याचार का एक सदियों लंबा सिलसिला है जो आधुनिक होते समाज में अलग अलग ढंग से कायम ही रहा है. ब्रिटिश भारत में बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के राजनीतिक और सामाजिक संघर्ष, आजाद भारत में दलितों के सम्मानजनक स्थान के लिए एक लंबी लड़ाई और दलित चेतना के उभार ने मुख्यधारा की राजनीति को दलितों पर कुछ सोच पाने की स्थिति में तो ला खड़ा किया लेकिन ये नाकाफी रहा है. आत्मसम्मान और गरिमा की लड़ाई में दलित समुदाय अब भी अकेला है और मेनस्ट्रीम पॉलिटिक्स ने किसी न किसी रूप में वोट के रूप में उसका दोहन ही किया है. पिछले लंबे समय से, देश के कई हिस्सों में दलितों पर हुई हिंसा और बर्बरता की घटनाओं के बाद से, गुस्सा दलितों में सुलग रहा था. गुजरात का ऊना कांड हो या हैदराबाद यूनिवर्सिटी में रोहित वेमुला की आत्महत्या का मामला, महाराष्ट्र में दलितों का स्वाभिमान आंदोलन, दलितों के खिलाफ पंजाब और राजस्थान में हिंसा की घटनाएं या उत्तर प्रदेश या बिहार में अंबेडकर की प्रतिमा को क्षतिग्रस्त करने की वारदातें- दलितों के क्षोभ को सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने और भड़का दिया. लेकिन इस बात का अंदेशा भी था कि बीजेपी शासित राज्यों में ये बंद शांतिपूर्ण तरीके से शायद ही पूरा हो सके.
आंदोलन की हिंसा और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के कुछ आंकड़े एक चिंताजनक तुलना को विवश करते हैं. 2015 की तरह 2016 में भी दलितों और आदिवासियों के खिलाफ हिंसा के मामले बीजेपी शासित राज्यों में ही ज्यादा देखे गये. द सिटीजन वेबसाइट में सरकारी आंकड़ों के हवाले से बताया गया है कि बीजेपी शासित गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा और झारखंड में गैर बीजेपी शासित राज्यों की तुलना में दलितों पर अधिक अत्याचार की घटनाएं दर्ज की गईं. बीजेपी के साथ गठबंधन वाले राजनीतिक दलों द्वारा शासित ओडीशा, आंध्र प्रदेश, और बिहार में दलितों पर अपराध की दर राष्ट्रीय औसत से भी अधिक है. दलित महिलाओं के यौन उत्पीड़न के तीन हजार से ज्यादा मामले थे. इन सभी राज्यों में सबसे बुरा हाल मध्य प्रदेश का बताया गया है. दलितों और आदिवासियों पर अत्याचार के पांच हजार से ज्यादा मामले दर्ज किए गये और इस अपराध की दर, राष्ट्रीय दर की दोगुना यानी 42 थी. इसके बाद राजस्थान का नंबर है. गोवा तीसरे और गुजरात चौथे नंबर पर है. हत्या, बलात्कार, संपत्ति को नुकसान जैसे कई अपराध इसमें शामिल हैं. और ये तो रिकॉर्ड ब्यूरों के पास पहुंचे आंकड़ें हैं, हम ठीक ठीक नहीं जान सकते कि वास्तव में जातिवाद, सवर्णवादी वर्चस्व की सड़ांध कितनी गहरी पैठी हुई है और न जाने कितने मामले कभी प्रकाश में आ ही नहीं पाते हैं.
ये एक कठिन संयोग है कि कुछ दिन बाद ही, 14 अप्रैल को देश संविधान निर्माता और दलित चेतना के महानतम पुरोधा भीम राव अंबेडकर की जयंती मना रहा होगा. सत्ता राजनीति, नकली कंठों से उनकी महिमा गाएगी, और उधर उत्पीड़ित दलित वंचित जनता- अपने लिए एक सम्मानजनक स्पेस के अपने अधिकार की लड़ाई में सड़कों पर यहां वहां बिखरी हुई होगी. इस लिहाज से भारत बंद, दलितों का प्रतीकात्मक लेकिन असाधारण आंदोलन है लेकिन ये संविधान में घुसपैठ की दिनों दिन घनी होती आशंकाओं का एक प्रखर रिफलेक्शन भी है. इसकी अनदेखी भारी पड़ेगी.