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पुलवामा हमला: नई कश्मीर नीति की है जरूरत

मारिया जॉन सांचेज
१५ फ़रवरी २०१९

केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के काफिले पर कश्मीर के पुलवामा में हुए फिदायी यानी आत्मघाती हमले ने एक बार फिर जम्मू-कश्मीर के प्रति नई नीति की जरूरत को रेखांकित कर दिया है.

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Indien Selbstmord-Attentat in Kaschmir
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/U. Asif

इस बात की उम्मीद बहुत कम है कि भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में केंद्र में सत्तासीन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार और जम्मू-कश्मीर में उसके प्रतिनिधि राज्यपाल सतपाल मलिक लोकसभा चुनाव के ठीक पहले अपनी अब तक चली आ रही नीति में कोई बदलाव करेंगे, खासकर तब जब पाकिस्तान और उसके द्वारा समर्थित आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रोन्माद भड़काने से चुनावी लाभ होने की भी आशा हो.

इस मुद्दे पर राजनीति न की जाए, इसी को सुनिश्चित करने के लिए कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने नई दिल्ली में जी-20 देशों के राजदूतों के साथ अपनी बैठक और नवनियुक्त महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने लखनऊ में अपना संवाददाता सम्मेलन रद्द कर दिया लेकिन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने गुजरात में अपनी मीटिंग रद्द नहीं की.

पाकिस्तान-स्थित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मुहम्मद द्वारा हमले की जिम्मेदारी लेने के बाद गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने पाकिस्तान से बदला लेने की बात कही है और राज्यपाल सतपाल मलिक ने तीन महीने के भीतर सभी आतंकवादियों के सफाए की, लेकिन बीस-वर्षीय आत्मघाती आतंकवादी आदिल अहमद दर के पिता गुलाम हसन दर ने कहा है कि सरकार को पता लगाना चाहिए कि नौजवान क्यों बंदूक उठा रहे हैं और ऐसे अतिवादी रास्ते पर जा रहे हैं.

अभी तक के इतिहास को देखते हुए तो यही लगता है कि दर की बात नक्कारखाने में तूती की आवाज ही साबित होगी और कश्मीर में आतंकवाद की समस्या को राजनीतिक नहीं बल्कि सैन्य समस्या ही समझा जाता रहेगा.

नोटबंदी के बाद आतंकवाद के सफाए और आतंकवादी हमलों के बंद होने के दावे अब खोखले साबित हो चुके हैं और यह भी स्पष्ट हो गया है कि मोदी सरकार ने पिछले पौने पांच साल में कश्मीर की स्थिति को सुधारने की बजाय बिगाड़ा ही है. इस दौरान बच्चों तक को छर्रों की बौछार करके जख्मी और अंधा किया गया और सेना की जीप पर एक युवक को बांध कर घुमाने पर गर्व प्रकट करके कश्मीरी अस्मिता और स्वाभिमान को लगातार चुनौती दी गई. जम्मू में बीजेपी और अन्य हिंदुत्ववादी संगठनों ने साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की प्रक्रिया को तेज किया.

लोग अभी भी भूले नहीं हैं कि जब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने श्रीनगर जाकर इंसानियत के दायरे में बात करने की घोषणा की थी, तब कश्मीरी जनता ने किस कदर उत्साह के साथ उनका स्वागत किया था. बाद में जब प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने वहां कुछ विशिष्ट नागरिकों की एक टीम को स्थिति का जायजा लेने भेजा, तब भी स्थिति सुधरने की कुछ उम्मीद बंधी.

चाहे कांग्रेस की सरकार हो या बीजेपी की, स्थिति को स्थाई रूप से बेहतर बनाने के लिए कोई नीतिगत बदलाव नहीं किया गया और पुलिस, सुरक्षा बलों और सेना के जरिए ही आतंकवाद से लड़ने की कोशिश की गई, बिना यह सोचे हुए कि आतंकवाद तो बीमारी का लक्षण है, बीमारी नहीं. इलाज तो बीमारी का करना है. लेकिन बीमारी को जड़ से खत्म करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया गया. नतीजा यह है कि बीमारी भी मौजूद है और उसके लक्षण भी.

बीमारी है कश्मीर घाटी के लोगों का विश्वास जीतना और उनकी भारतीय लोकतंत्र और संघीय प्रणाली के भीतर भागीदारी को सुनिश्चित करना. कश्मीरियों को यह भरोसा दिलाना कि पूरे भारत में वे कहीं भी चैन के साथ रह सकते हैं, पढ़ाई कर सकते हैं, नौकरी और अन्य व्यवसाय कर सकते हैं और किसी भी अन्य नागरिक की तरह जी सकते हैं. लेकिन अकसर देश के विभिन्न हिस्सों से कश्मीरियों के खिलाफ हिंसक घटनाओं की खबरें आती रहती हैं.

कश्मीर में सेना और सुरक्षाबलों के पास अभी भी असीमित अधिकार हैं और उन्हें देने वाला विशेष कानून बरकरार है जबकि उसे खत्म करने की मांग उसी तरह प्रबल है जैसे उत्तर-पूर्व में. आम नागरिक चक्की के दो पाटों - सुरक्षा बलों और आतंकवादियों के बीच पिस रहा है. सुरक्षा बलों की निगाह में वह आतंकवादी है और आतंकवादियों की निगाह में सरकारी एजेंट.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ साबरमती के किनारे चाहे जितने झूले झूले हों, लेकिन चीन ने जैश-ए-मुहम्मद पर प्रतिबंध लगाने के भारत और अमेरिका के हर प्रयास का अंतरराष्ट्रीय मंचों पर विरोध किया है. जैश पिछले वर्षों में भी लगातार सक्रिय रहा है और पठानकोट में हुए हमले के पीछे भी उसी का हाथ था. पुलवामा की घटना मोदी सरकार के खुफियातंत्र और कश्मीर नीति की विफलता तो दर्शाती ही है, उसकी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के बेअसर होने का प्रमाण भी है.

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