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असहिष्णुता का हिंसक चेहरा

मारिया जॉन सांचेज
२० सितम्बर २०१७

भारत सरकार ने अनेक पुस्तकें, नाटक और फिल्में प्रतिबंधित की हैं और ऐसा करते हुए केवल आबादी के किसी खास हिस्से के दबाव को ही ध्यान में रखा है, प्रतिबंधित की जाने वाली कृति की गुणवत्ता को नहीं.

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Kancha Ilaiah indischer Autor und Aktivist
तस्वीर: Imago/Zumapress

समय-समय पर अनेक सामाजिक, धार्मिक  और राजनीतिक संगठन भी उन लेखकों और कलाकारों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करते रहे हैं जिनके विचार या जिनका रचनाकर्म उन्हें पसंद नहीं आता. इस सिलसिले में एक ही तर्क दिया जाता है और वह है "भावनाएं आहत होने” का तर्क. जब-तब प्रतिबंध की मांग करने वालों में अक्सर साम्प्रदायिक संगठनों की ही भूमिका देखने में आयी है. आश्चर्य नहीं कि पिछले तीन वर्षों में देश में वैचारिक, धार्मिक और सांस्कृतिक असहिष्णुता जितनी बढ़ी है उतनी पहले कभी नहीं बढ़ी क्योंकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े संगठनों को लगता है कि केंद्र और अनेक राज्यों में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में होते हुए उन पर कोई भी लगाम नहीं लगा सकता. इसलिए जगह-जगह गौरक्षा के नाम पर लोगों को मारा जा रहा है, भिन्न विचार रखने वाले और हिंदुत्ववादी विचारों और संगठनों की आलोचना करने वाले व्यक्तियों की चुन-चुनकर हत्या की जा रही है और शेष का मुंह बंद करने की हर संभव कोशिश की जा रही है. बेंगलुरु में पत्रकार गौरी लंकेश की हाल ही में हुई हत्या इसका ताजातरीन उदाहरण है. उन्हें हिंदुत्ववादियों की ओर से धमकियां मिलती रहती थीं.

लेकिन असहिष्णुता किसी एक धर्म, विचारधारा या राजनीतिक दल तक सीमित नहीं है. उसका दायरा लगातार फैलता जा रहा है और उसका चेहरा भी लगातार पहले की अपेक्षा अधिक हिंसक होता जा रहा है. इन दिनों प्रसिद्ध दलित समाजशास्त्री और चिंतक कांचा इलैया आंध्र प्रदेश के आर्य वैश्य समुदाय के निशाने पर हैं और हैदराबाद तथा आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में अनेक स्थानों पर उनके खिलाफ विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. तेलुगू देशम पार्टी के सांसद टी जी वेंकटेश, जो इसी समुदाय के हैं, ने तो यह तक कह डाला है कि उनके जैसे लेखक को फांसी पर चढ़ा देना चाहिए. विरोध का कारण कांचा इलैया की एक पुस्तिका है जिसका शीर्षक है ‘सामाजिक स्मगलर्लु कोमाटोल्लू'(आर्य वैश्य सामाजिक तस्कर हैं). उनका कहना है कि उनके समुदाय के लोग देश भर में अलग-अलग जगहों पर इलैया के खिलाफ अदालतों में मुकदमे दायर करेंगे. कांचा इलैया ने पुलिस में रपट लिखा दी है लेकिन उनकी जान को खतरा बना हुआ है. यहां यह याद करना अप्रासंगिक न होगा कि देश भर में मुकदमे चलाकर हिंदुत्ववादियों ने देश के शीर्षस्थ चितेरे मकबूल फिदा हुसैन को वृद्धावस्था में इतना परेशान कर दिया था कि उन्हें देश छोड़ कर कतर में शरण लेनी पड़ी थी.

इलैया की जान के साथ-साथ चिंतन और लेखन की स्वतंत्रता भी खतरे में है. किसी भी लोकतांत्रिक और सभ्य समाज में विचार का जवाब विचार से और पुस्तक का जवाब दूसरी पुस्तक लिख कर ही दिया जाना चाहिए. विचार और लेखन का जवाब हिंसा की धमकी देकर, दबाव डालने या वास्तव में हिंसक तरीके अपना कर कुचल देने से नहीं दिया जा सकता. लेकिन यदि चुने हुए जनप्रतिनिधि ही हिंसा की भाषा बोलने लगें तो स्थिति की गंभीरता का अंदाज लगाया जा सकता है.

दरअसल कांचा इलैया ने 2009 में अंग्रेजी में एक पुस्तक लिखी थी जिसका शीर्षक था ‘पोस्ट-हिन्दू इंडिया' (उत्तर-हिन्दू भारत). 2011 में इसका तेलुगू अनुवाद प्रकाशित हुआ. लेकिन बवाल तब खड़ा हुआ जब प्रकाशक ने इसका एक भाग नए शीर्षक के साथ छाप कर बाजार में उतार दिया. इलैया का कहना यह है कि सामाजिक विज्ञान में सामाजिक तस्कर एक स्वीकृत पद है जिसका अर्थ है वह व्यक्ति या समूह जो समाज से धन तो अर्जित करता है लेकिन उसका समाज में निवेश नहीं करता. लेकिन आर्य वैश्य समुदाय के लोग भड़के हुए हैं और कह रहे हैं कि तस्कर बताकर उनकी पूरी जाति का अपमान किया गया है. उन्हें इस बात पर भी आपत्ति है कि इलैया ने लिखा है कि वे बहुत समय पहले मांसाहारी थे और खेती किया करते थे. बाद में वे व्यापार में आए और शाकाहारी बन गए.

यहां यह याद दिलाना अनुचित न होगा कि कुछ वर्ष पहले अखिल भारतीय मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष और सांसद असदुद्दीन ओवैसी और उनकी पार्टी ने विवादास्पद बांग्लादेशी लेखिका तसलीमा नसरीन के हैदराबाद में और फिर औरंगाबाद आने का जबर्दस्त हिंसक विरोध किया था जिसके दौरान कुछ पत्रकारों को भी चोट आयी थी. उनकी पार्टी के एक विधायक ने नसरीन की हत्या की धमकी भी दे डाली थी. नरेंद्र दाभोलकर, एम एम काल्बुर्गी, गोविंद पनसारे और गौरी लंकेश की हत्या के बाद कांचा इलैया को मिल रही धमकियां बतलाती हैं कि भारत केवल औपचारिक दृष्टि से ही लोकतांत्रिक है, उसके समाज की चेतना अभी भी लोकतांत्रिक मूल्यों को पचा नहीं सकी है.