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सामान्य से कितनी अलग है नेताओं की वर्चुअल रैली

प्रभाकर मणि तिवारी
१५ जून २०२०

कोरोना के लॉकडाउन में राजनीतिक गतिविधियां सुस्त थीं. कई दलों के नेता जरूर अपने कार्यकर्ताओं के साथ ऑनलाइन चर्चा कर रहे थे. पिछले दिनों अमित शाह सहित कई बीजेपी नेताओं ने अलग अलग प्रांतों में वर्चुअल रैलियां की हैं.

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तस्वीर: DW/P. Tewari

क्या वर्चुअल रैली सामान्य रैली से एकदम अलग और खर्चीली है? आखिर यह कितनी असरदार है. ये सवाल विभिन्न पार्टियों के राजनीतिज्ञ तो पूछते ही रहे हैं, अब इस पर राजनीतिक प्रेक्षकों ने भी मंथन शुरू कर दिया है. बीजेपी के वरिष्ठ नेता और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की ओर से इस महीने बिहार, ओडिशा और पश्चिम बंगाल में ऐसी तीन वर्चुअल रैलियों के बाद इस मुद्दे पर बहस और विवाद लगातार तेज हो रहा है. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने जहां बीजेपी पर ऐसी रैलियों पर करोड़ों खर्च करने का आरोप लगाया है वहीं तमाम विपक्षी दलों ने भी कोरोना महामारी के मौजूदा दौर में सियासी फायदे के लिए ऐसी रैलियों के आयोजन के लिए पार्टी की खिंचाई की है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि आखिर खर्च के मामले में यह रैलियां कितनी अलग हैं. इसकी वजह यह है कि इस साल बीजेपी ने ऐसी ही कम से कम 70 रैलियों की योजना बनाई है जिनका मकसद मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के एक साल की उपलब्धियों के प्रचार-प्रसार के साथ ही बिहार, ओडिशा और बंगाल में होने वाले अगले विधानसभा चुनावों के लिए पार्टी की जमीन तैयार करना भी है.

बीते सप्ताह पश्चिम बंगाल में शाह की पहली वर्चुअल रैली के बाद राज्य में इस पर होने वाले भारी भरकम खर्च पर विवाद शुरू हुआ. यह बात दीगर है कि रैली के बहाने बीजेपी पर हमले के बावजूद कोई भी पार्टी ऐसी रैलियों के जरिए राजनीति में एक नया ट्रेंड शुरू होने की संभावना को खारिज नहीं कर पा रही है. इसकी वजह यह है कि कोरोना संक्रमण की वजह से फिलहाल किसी भी तरह की सभा या रैली पर पाबंदी है. लॉकडाउन पूरी तरह खत्म होने के बावजूद निकट भविष्य में भी सोशल डिस्टेंसिंग का पालन अनिवार्य होगा. वैसी स्थिति में सामान्य तरीके से होने वाली रैली की कल्पना भी नहीं की जा सकती. लेकिन संविधान के नियमों के मुताबिक विधानसभा चुनावों को तय समय पर कराना जरूरी है. बिहार में यह चुनाव इस साल के आखिर में होने हैं जबकि पश्चिम बंगाल और ओडिशा में अगले साल. ऐसे में वर्चुअल रैलियां देर-सबेर सत्ता के तमाम दावेदारों का सहारा बन सकती हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि अभी लंबे समय तक पहले की तरह लाखों की भीड़ जुटा कर रैलियों का आयोजन करना संभव नहीं है. राजनीतिक विश्लेषकों ने भी वर्चुअल रैलियों को ही चुनाव प्रचार का नया हथियार करार दिया है.

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कोलकाता में कोरोना से पहले बीजेपी की रैलीतस्वीर: DW/P. Tewari

बीजेपी की ऑनलाइन पहल

पश्चिम बंगाल बीजेपी ने अमित शाह की बीते सप्ताह की रैली की भारी कामयाबी का दावा करते हुए इस महीने ऐसी कम से कम पांच और रैलियां आयोजित करने की बात कही है. प्रदेश महासचिव सायंतन बसु कहते हैं, "अगर हमने यही रैली कोलकाता के ब्रिगेड परेड मैदान में की होती तो सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस कार्यकर्ताओं के हमले में हमारे कम से कम सौ लोग घायल हो गए होते. लेकिन शाह की वर्चुअल रैली में एक करोड़ लोग शामिल हुए. इसमें खर्च भी कम हुआ और प्रदूषण भी नहीं बढ़ा. सामान्य सभा की स्थिति में 20 लाख से ज्यादा लोगों तक पहुंच नहीं बनती." प्रदेश बीजेपी नेताओं का दावा है कि शाह की रैली में साफ्टवेयर के लिए तीन हजार, एलईडी टीवी के किराए के मद में एक लाख रुपए, मंच सजाने पर 10 हजार और प्रदेश मुख्यालय में मंच बनाने पर सात हजार रुपए खर्च किए गए. इसके जरिए पार्टी एक करोड़ लोगों से जुड़ने में कामयाब रही थी.

रैली का आयोजन करने वालों की दलील है कि कोलकाता में रैलियों की पहचान बने ब्रिगेड परेड मैदान में रैली के आयोजन की स्थिति में कम से कम चार करोड़ रुपए खर्च होते हैं जबकि शाह की वर्चुअल रैली पर महज दो लाख रुपए खर्च हुए. रैली के लिए मंच समेत तमाम इंतजाम करने वाले सुब्रत साहा बताते हैं, "मैदान में मंच बनाने पर आठ से नौ लाख रुपए खर्च होते हैं. रैली के लिए 15 हजार रुपए सिक्योरिटी डिपॉजिट देना होता है और पुलिसिया सुरक्षा पर भी इतनी ही रकम खर्च होती है. सामान्य रैली में पूरे राज्य से बसों और दूसरे वाहनों में समर्थकों को लाने-ले जाने पर लगभग ढाई करोड़ रुपए खर्च होते हैं." वह बताते हैं कि इसके अलावा कार्यकर्ताओं और स्वयंसेवकों के खाने-पीने पर लगभग 40 लाख रुपए खर्च होते हैं. इसके अलावा वहां पेय जल और अस्थायी शौचालयों का इंतजाम करने व रैली के बाद ब्रिगेड मैदान को साफ करने पर भी मोटी रकम खर्च होती है.

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नुक्कड़ पर वर्चुल रैली में हिस्सेदारीतस्वीर: DW/P. Tewari

करोड़ों के खर्च का आरोप

तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी समेत बाकी राजनीतिक दलों के नेताओं ने शाह की रैली पर करोड़ों खर्च होने का दावा किया है. ममता बनर्जी कहती हैं, "यह बेहद खर्चीला तरीका है और बीजेपी जैसी पैसे वाली पार्टी ही इसका बोझ उठा सकती है. एक एलईडी स्क्रीन लगाने में लगभग 70 हजार रुपए खर्च होते हैं." तृणमूल के अलावा सीपीएम और कांग्रेस ने भी शाह की इस रैली पर भारी-भरकम खर्च का आरोप लगाया है. लेकिन बीजेपी के प्रदेश अध्यक्ष दिलीप घोष कहते हैं, "ऐसा कुछ नहीं है. हमने एलईडी स्क्रीन के अलावा स्मार्टफोन, फेसबुक लाइव और यूट्यूब के जरिए भी इसका लाइव प्रसारण किया. पांच लाख से ज्यादा लोग सपरिवार फोन के जरिए इस वर्चुअल रैली में शामिल हुए. इसके अलावा लगभग 25 हजार व्हाट्सएप समूहों के जरिए भी रैली का प्रसारण किया गया."

दिलीप घोष की दलील है कि विपक्ष रैली के खर्च को बढ़ा-चढ़ा कर पेश कर रहा है. सोशल मीडिया पर इसका खर्च कम है. पार्टी के जिन कार्यकर्ताओं के पास स्मार्ट फोन नहीं था वे एक खास नंबर डायल कर भाषण का ऑडियो सुन सकते थे. बीजेपी के वरिष्ठ नेता भूपेंद्र यादव ने हाल में एक इंटरव्यू में कहा है कि कोरोना संक्रमण खत्म होने के बाद डिजिटल तकनीक संवाद के सबसे अहम माध्यम के तौर पर उभरेगी. इसकी वजह से रैलियों और नेताओं के दौरे पर होने वाले खर्च में भी भारी कटौती होगी. उनका कहना था कि विपक्ष अभी शाह की वर्चुअल रैलियों की भले आलोचना कर रहा हो, देर-सबेर वह भी यही रास्ता अपनाएगा.

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हॉल में वर्चुअल रैली में हिस्सेदारीतस्वीर: DW/P. Tewari

वर्चुअल बनाम असली रैली

तृणमूल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सुब्रत मुखर्जी कहते हैं, "शारीरिक रूप से रैली में मौजूदगी का महत्व कुछ और है. उसका असर भी स्थायी होता है. लेकिन लोग टीवी पर किसी नेता का भाषण सुन कर उसे भूल जाते हैं. बात खर्च से ज्यादा रैली के मकसद की है." सीपीएम नेता सुजन चक्रवर्ती कहते हैं, "यह पैसों का खेल है. बीजेपी ने इस रैली के प्रचार पर ही करोड़ों रुपए फूंक दिए थे. उसे भी रैली के खर्च में जोड़ा जाना चाहिए. उसी स्थिति में असली तस्वीर सामने आएगी." कांग्रेस की मीडिया सेल के प्रमुख अमिताभ चक्रवर्ती कहते हैं, "तकनीक को अपनाने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन असली रैली का कोई विकल्प नहीं है."

बीते सप्ताह शाह की रैली में टीवी के परदे पर उनका भाषण सुनने वाले बीजेपी कार्यकर्ता विभुति चंद्र पाल भी इसकी पुष्टि करते हैं. वह कहते हैं, "वर्चुअल रैली कभी असली रैली की जगह नहीं ले सकती. असली रैली में शामिल होने का जो रोमांच होता है वह इसमें नदारद था. कोरोना की वजह से सोशल डिस्टेंसिग के नियम ने भी इसका मजा किरकिरा कर दिया." पश्चिम बंगाल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के पूर्व विधि अधिकारी विश्वजीत मुखर्जी कहते हैं, "वर्चुअल रैली की स्थिति में कूड़ा-कचरा और वाहनों के शोर व धुएं से होने वाले प्रदूषण से बचा जा सकता है. लेकिन बावजूद इसके सामान्य रैलियां ज्यादा असरदार साबित होती हैं. अमरीका जैसे देश में भी एक अश्वेत नागरिक की हत्या के विरोध में तमाम सभाएं सड़कों पर ही हो रही हैं." राजनीतिक विश्लेषक विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं, "साल भर के भीतर कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए असली बनाम वर्चुअल रैली पर जारी बहस के और तेज होने की संभावना है."

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