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अयोध्या के मामले में अदालत की अग्निपरीक्षा

Ujjawal Bhattacharya३० सितम्बर २०१०

कहना गलत न होगा कि 60 साल से चल रहा यह मामला अदालत की भी अग्निपरीक्षा था. नतीजा जानने की लोगों की बेताबी शांत करते हुए इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच ने आज अपना फैसला सुना दिया.

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तस्वीर: Wikipedia/LegalEagle

कानून को सामने रख कर तथ्यों पर काम करने वाली अदालत के फैसले पर लोगों की अलग अलग राय हो सकती है. जहां तक कानून के जानकारों का सवाल है इस तबके में भी आज के फैसले को लेकर अलग अलग प्रतिक्रियाएं देखने को मिली हैं.

सामाजिक सरोकारों से जुड़े मामलों को अदालत के जरिए उठाने वाले वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण इस फैसले से नाखुश हैं. इस मामले में अदालत के अधिकार क्षेत्र को ही चुनौती देते हुए वह कहते हैं कि आस्था से जुड़े काल्पनिक मामलों पर कोर्ट सुनवाई नहीं कर सकती. उनका कहना है कि यह आस्था और पौराणिक महत्व से जुड़ा मामला है. आस्था से किसी के कानूनी हक तय नहीं होते इस आधार पर अदालत का ऐसे मामलों को सुनने का क्षेत्राधिकार ही नहीं है. कानून ऐसा कोई सिद्धांत नहीं मानता जो आस्था के आधार पर किसी जगह को किसी समुदाय विशेष को देने का अधिकार देता हो. इसलिए अदालत को यह मामला स्वीकार ही नहीं करना था. क्योंकि इस मामले में विवाद का मूल विषय ही पौराणिक और काल्पनिक है कि भगवान राम का जन्म विवादित स्थल पर हुआ था या नहीं. या 500 साल पहले उस जगह पर मंदिर तोड़, कर मस्जिद बनाई गई या नहीं. ऐसे मामलों पर अदालत कैसे फैसला कर सकती है.

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तस्वीर: picture alliance / dpa

देश की व्यवस्था तक को प्रभावित कर सकने वाले इस मामले में अगर एक सर्वमान्य संस्था के रूप में अदालत आगे आकर जो फैसला देती है, तो उसकी स्वीकारणीयता के सवाल पर वह कहते हैं कि अदालत का काम कानून का पालन सुनिश्चत कराना है, कानून के दायरे से बाहर के मामलों को सुनना नही. इस मामले में सरकार को कानून के दायरे में रहकर राजनीतिक हल निकालना चाहिए. वह कहते हैं "मेरी राय में इसकी कोई अहमियत नहीं है कि उस जगह पर मंदिर बने या मस्जिद और सभी पक्षों को मिलकर रहना चाहिए. मेरी आपत्ति सिर्फ आस्था के आधार पर किसी के कानूनी हक तय करने के अदालत के फैसले पर है."

इस मामले पर अदालत के क्षेत्राधिकार को कटघरे में खड़ा करने के प्रशांत भूषण के विचार पर पूर्व कानून मंत्री और जनता पार्टी के अध्यक्ष सुब्रमण्यम स्वामी कहते हैं कि इसका फैसला सुप्रीम कोर्ट करेगा. हालांकि वह इस फैसले को लीपापोती भरा बताते हैं. उनकी दलील है कि जब अदालत ने यह मान लिया कि विवादित जगह पर मंदिर तोड़ कर मस्जिद बनाई गई तब फिर विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटने की क्या जरूरत थी. अदालत तथ्यों पर काम करती है और जब यह तय हो गया कि विवादित जगह मंदिर की है तब फिर पूरी जगह मंदिर को ही मिलनी चाहिए थी.

वह कहते हैं कि इस फैसले से यह नहीं समझना चाहिए कि विवाद सुलझ गया है बल्कि सुन्नी बक्फ बोर्ड को जगह देने से विवाद अब सुप्रीम कोर्ट में आना तय है और इस फैसले यह और भी ज्यादा उलझ जाएगा. इसीलिए वह इसे लीपापोती भरा फैसला मानते हैं क्योकि इसमें मूल समस्या का समाधान किया ही नहीं गया.

रिपोर्टः निर्मल यादव

संपादनः उज्ज्वल भट्टाचार्य