1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

अमेरिका से रार में चीन की मुश्किलें हजार

राहुल मिश्र
३१ मई २०२१

हाल में एक जनगणना में पता चला कि चीन में जन्मदर कम हो रही है तो चीन की सरकार ने शादीशुदा जोड़ों को तीन बच्चे पैदा करने की अनुमति दे दी है. दुनिया की सबसे अधिक आबादी वाला देश अब आबादी को सामरिक महत्व दे रहा है.

https://p.dw.com/p/3uEnN
BdTD Hong Kong | Kinder am Strand
तस्वीर: Kevin On Man Lee/Penta Press/imago images

किसी देश की आर्थिक और सामाजिक प्रगति में वहां के लोगों की उम्र का बड़ा योगदान होता है. मिसाल के तौर पर जिस देश के नागरिकों की औसत आयु 20 से 40 के बीच है उन देशों में न सिर्फ संसाधनों की खपत ज्यादा होगी बल्कि अर्थव्यवस्था के कई महत्वपूर्ण पहलुओं पर युवाओं का दखल भी ज्यादा होगा. स्वाभाविक है कि आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और आबादी जैसे सभी मोर्चों पर यही वर्ग सबसे सक्रिय रहता है. यही वजह है कि दीर्घकालिक परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत 2050 तक दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन कर उभर सकता है.

लेकिन इस मामले में चीन पिछड़ता दिख रहा है. मई 2021 में चीन ने अपने सातवें राष्ट्रीय जनसंख्या सेंसस की रिपोर्ट जारी की. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2020 में लगातार चौथे साल बच्चों की जन्मदर में कमी आई है. यह भी कहा गया है कि 2020 में 60 साल से ऊपर के लोगों की संख्या 26.4 करोड़ रही है जो कुल जनसंख्या का 18.7 प्रतिशत है. 2025 तक यह आंकड़ा 30 करोड़ को पार कर जाएगा.

China Familie
मां-बाप खुश हैं एक बच्चे सेतस्वीर: Xinhua/imago images

सिर्फ एक तिहाई युवाओं से कैसे चलेगा काम

आंकड़ों और अर्थव्यवस्था पर नजर रखने वालों की मानें तो 2050 तक चीन की जनसंख्या का 60 प्रतिशत हिस्सा 60 साल की उम्र पार कर चुका होगा. यह साधारण बात नहीं है. अगर लगभग दो तिहाई जनसंख्या रिटायरमेंट की उमर को छुएगी तो मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर, भारी उद्योगों और रक्षा क्षेत्र में काम कैसे चलेगा. यह 60 प्रतिशत जनता स्वास्थ्य सुविधाओं और इंश्योरेंस जैसे मसलों पर भी थोड़ी कमजोर पड़ सकती है. इन सभी अटकलों और प्रोजेक्शनों ने चीन के नीति निर्धारकों को चिंता में डाल दिया है. जानकार मानते हैं कि देश के सबसे बड़े व्यापारिक केंद्र शंघाई में तो यह समस्या पहले ही घर कर चुकी है. आंकड़ों के अनुसार 2021 में ही युवाओं की संख्या आधे से कम हो चुकी है.

दूरगामी परिदृश्य में देखा जाय तो साफ है कि चीन की युवा पीढ़ी जो आज सबसे सक्रिय है और शायद राष्ट्रपति शी जीनपिंग की आक्रामक नीतियों की बुनियाद में भी बसी है, वही पीढ़ी जब रिटायरमेंट की दहलीज पर खड़ी होगी तो उसके राजनीतिक और सामाजिक नतीजे भी बड़े होंगे. इन नतीजों की चिंताओं ने चीन के नीतिनिर्धारकों की रातों की नीदें उड़ा रखी है. यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के भविष्य से भी जुड़ा है. दुनिया की दो सबसे बड़ी महाशक्तियों, चीन और अमेरिका दोनों के लिए यह महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि धीरे धीरे यह साफ हो चला है कि आने वाले समय में इन देशों के बीच वर्चस्व की लड़ाई पहले से कहीं अधिक कड़वी और तेज रफ्तार हो जाएगी.

बूढ़ा होता चीन

चीन और अमेरिका के बीच आबादी का सवाल

चीन की अमेरिका से बढ़ती प्रतिद्वंदिता किसी से छुपी नहीं है. पिछले कुछ सालों में चीन अमेरिका से खुलकर प्रतिस्पर्धा करने की राह पर चल रहा है. इस सदी के दूसरे दशक से यह चलन शुरू हुआ. ओबामा के समय तो इस प्रतिस्पर्धा को कुछ तक अच्छा और सकारात्मक भी आंका गया. लेकिन शी जीनपिंग के चीन के राष्ट्रपति बनने के बाद से चीन के व्यवहार में दृढ़ता और आक्रामकता दोनों ही पहलुओं में असाधारण परिवर्तन देखने को मिले हैं. चीन की बदलती नीतियों से अमेरिका की आशंकायें  बहुत बढ़ी हैं और आज अमेरिका भी चीन को अपने वर्चस्व के लिए दूरगामी खतरा मानने लगा है. चीन के इस नए सेंसस से अमेरिका और पश्चिम की चिंताएं कुछ कम तो हुई होंगी. खास तौर पर इसलिए भी कि पश्चिम के मुकाबले चीन में काम करने की आयु के लोग 2050 तक काफी कम होंगे. बहरहाल, अब जब कि इस बात में कोई शक नहीं है कि चीन का इस मुकाम पर पहुंचना तय ही था तो तीन बड़े सवाल सामने आते हैं.

पहला यह कि चीन यहां पहुँचा कैसे? इस सवाल का जवाब पाना कठिन नहीं है. 1978 में जब डेंग शियाओपिंग चीन की सरकार के मुखिया थे तब उन्होंने देश में तेजी से बढ़ती जनसंख्या पर अंकुश रखने के लिए यह नियम लागू कर दिया कि देश में दंपत्तियों को एक से अधिक बच्चा पैदा करने की इजाजत नहीं होगी. इस व्यवस्था में एक छूट यह जरूर थी कि गांवों और छोटे कस्बों में रहने वाले वे दंपत्ति जिनकी पहली संतान लड़की हो, उन्हें एक और बच्चा पैदा करने की इजाजत थी. अल्पसंख्यक समुदायों को भी कई छूटें दी गई थी. वैसे तो इस व्यवस्था को पूरे देश में लागू करने में कई साल लगे लेकिन धीरे-धीरे चीन के लोगों ने इस नीति को अपने जीवन में उतार लिया.

Taiwan Taipei | Frau mit Kind geht an Fernseher vorbei: Ansprache Xi Jingping
राष्ट्रपति शी जिनपिंग चाहते हैं कि चीनी और बच्चे पैदा करेंतस्वीर: Getty Images/AFP/S. Yeh

चीन के लिए आबादी बढ़ाने की चुनौतियां

बरसों से चली आई यह परंपरा आसानी से जाने वाली नहीं है. यह लाजमी भी है. आंकड़ों के अनुसार 2020 में चीनी बच्चों की पैदाइश के आंकड़ों में 15 प्रतिशत की कमी आयी है. 2021 के सेंसस के आंकड़े यह भी कहते हैं कि 2000-2010 के दशक में जनसंख्या वृद्धि की जो दर 0.57 प्रतिशत थी, वह पिछले दशक में घट कर 0.53 प्रतिशत हो गयी है. एक बच्चे के होने से दंपत्तियों पर सामाजिक और आर्थिक बोझ तो कम हुआ ही है. रिहाईशी इलाकों में बढ़ती महंगाई, महंगे घर, तेजी से सुधरे जीवन स्तर और नतीजतन बढ़े खर्चों और महंगी शिक्षा ने एक आम चीनी की कमर तोड़ रखी है. विदेश में पढ़ने के मामले में चीनी विद्यार्थियों की संख्या दुनिया में सबसे ज्यादा है. अमेरिका हो या ऑस्ट्रेलिया, कनाडा हो या मलेशिया हर जगह चीनी विद्यार्थी विदेशी कोटे में सबसे ऊपर हैं.

बढ़ती महंगाई के कई नुकसानों में एक बड़ा नुकसान है चीन में मजदूरों और कर्मचारियों के भत्ते और वेतन में बढ़ोत्तरी और नतीजतन कंपनियों की सस्ती मजदूरी ढूंढने की कवायद. कंबोडिया और वियतनाम में चीनी फैक्टरियों के लगने के पीछे सस्ती मजदूरी एक बड़ा कारक है. ऐसे में चीन के सामने एक उपाय यही है कि अपनी मैनुफैक्चरिंग और तमाम उद्यमों में आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करे. चीन कब तक ऐसा करने में सक्षम हो सकेगा यह तो वक्त ही  बताएगा.

जहां तक दूसरे और इस परिस्थिति से चीन के बाहर निकल सकने की संभावनाओं का सवाल है तो यहां साफ करना जरूरी है कि चीन की ये चिंताएं नई नहीं हैं. चीन ने 2015 में ही वन चाइल्ड नीति को निरस्त कर दो बच्चों की नीति लागू कर दी थी. इस परिवर्तन के पिछले सालों में बहुत सकारात्मक परिणाम नहीं आए हैं. लोग दो बच्चे पैदा करें इसके लिए कई तरह की योजनायें चलाई जा रही हैं, लेकिन लगता है जापानी समाज की तरह चीनी जनता भी एक बच्चे की नीति से संतुष्ट है और दंपत्तियों को दो बच्चे पैदा करना अनावश्यक लग रहा है. जब दो बच्चे पैदा करना अनावश्यक लग रहा है तो क्या वे तीन बच्चों के लिए तैयार होंगे? फिलहाल तो लगता यही है कि चीन के लिए इस परिस्थिति से निपटना मुश्किल होगा.

(राहुल मिश्र मलाया विश्वविद्यालय के एशिया-यूरोप संस्थान में अंतरराष्ट्रीय राजनीति के वरिष्ठ प्राध्यापक हैं)