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"अभी खेती में कुछ नहीं बदलने वाला"

७ अक्टूबर २०१८

दुनिया का आर्थिक विकास मॉडल भारत के किसानों को मार रहा है. कृषि विशेषज्ञ देवेंदर शर्मा मानते हैं कि जब तक आर्थिक विकास के मॉडल को नहीं बदला जाएगा तब तक किसानों की समस्याओं का कोई स्थायी समाधान नहीं निकलेगा.

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Devender Sharma
तस्वीर: Privat

डीडब्ल्यू: कृषि और किसानों की परेशानी के पीछे सरकार की कौन सी नीतियां जिम्मेदार हैं?

देवेंदर शर्मा: आज देश में जो आर्थिक और कृषि नीतियां हैं उन्हें देखकर मुझे नहीं लगता कि किसी छोटे-मोटे बदलाव या सुधार से कुछ होने जा रहा है. संयुक्त राष्ट्र के पूर्व महासचिव बान की मून ने भी कहा था कि जब तक हम आर्थिक विकास के मॉडल को नहीं बदलेंगे, तब तक ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से छुटकारा नहीं मिलेगा. सुधार करने के लिए हमें पूरे आर्थिक मॉडल को बदलने की जरूरत है.

ऐसे में उम्मीद करनी चाहिए कि किसी दिन कोई बुद्धिमान व्यक्ति आएगा और इस बात को समझेगा. मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि पूरा इकोनॉमिक डिजाइन ही कहता है कि हमें भारत के लोगों को खेती से निकालना है, और उन्हें शहरों में लेकर आना है. विश्व बैंक ने साल 1996 में भारत से कहा था कि साल 2015 तक, मतलब बीस साल में हमें गांवों से 40 करोड़ लोगों को शहरों में लाना है. पहले कुछ वक्त तक मुझे लगता रहा कि यह हमारे लिए एक चेतावनी है लेकिन फिर समझ आया कि नहीं, ये हमारे लिए एक निर्देश था. दरअसल आर्थिक मॉडल यही कहता है कि कृषि से विकास नहीं होगा, ऐसे में लोगों को कृषि से बाहर निकाल कर शहरी क्षेत्रों में लाया जाए.

हमारी सरकारें इस मॉडल को मानती आई हैं. लेकिन इस मॉडल पर विश्वास नहीं किया जा सकता क्योंकि देश में 60 करोड़ लोग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कृषि से जुड़े हुए हैं. अगर 40 करोड़ लोग ही शहरों में चले गए तो क्या उन्हें नौकरियां मिल सकेंगी. आप इन 40 करोड़ लोगों का करेंगे क्या? क्या अब उन्हें कृषि से बाहर कर उनके लिए किसी वैकल्पिक रास्ते पर विचार किया जा रहा है?

कारोबारी संस्था सीआईआई का कहना है कि साल 2022 तक देश में 30 करोड़ नौकरियां पैदा हो जाएंगी, लेकिन कोई ये सवाल नहीं पूछता कि आप पिछले 70 सालों में तो 30 करोड़ नौकरियां खड़ी नहीं कर पाए तो 2022 तक कैसे होगा. कुल मिलाकर जिस नौकरी की वे बात करते हैं, वह है दिहाड़ी मजदूरी, क्योंकि शहर में सस्ते मजदूरों की जरूरत है. यहां तो बाजार सुधारों की परिभाषा ही यह है कि लोगों को खेती से बाहर निकालें. मुझे नहीं लगता कि जब तक हम इस डिजाइन को बदलेंगे, तब तक किसी भी स्थायी समाधान तक पहुंचा जा सकता है.

देश में कृषि उत्पादों से जुड़े उद्योग जब लाभ कमा रहे हैं तो किसान क्यों नुकसान से जूझ रहे हैं?

ये बिल्कुल ठीक बात है, सारी कंपनियों को फायदा हो रहा है, क्योंकि हमारा पूरा इकोनॉमिक मॉडल ही है, नीचे से पैसा निकाल कर ऊपर के उद्योगों को फायदा पहुंचाना. ऐसे में जब हम किसान से अधिक खाद, अधिक उर्वरक, ज्यादा से ज्यादा मशीन और बीज का प्रयोग करने के लिए कहते हैं तो इसका सीधा मतलब है कि हम नीचे से पैसा निकाल कर कंपनियों तक पहुंचा रहे हैं.

जिस तरह से धन संचय एक फीसदी लोगों के हाथ में होता जा रहा है वह भी इस आर्थिक मॉडल का ही परिणाम हैं. मसलन अगर कोई महिला गांव में बकरी खरीद कर अपना गुजारा चलाने के बारे में सोचती है, तो वह दस हजार की बकरी खरीदने के लिए माइक्रोफाइनेंस इंस्टीट्यूट के पास जाती है. संस्था उसे 26 फीसदी की ब्याज दर से ऋण देती है. अब वह इस 26 फीसदी की ब्याज दर पर कुछ न कुछ भुगतान हर सप्ताह करेगी और लंबे वक्त तक करती रहेगी. वहीं आप टाटा का उदाहरण लें तो गुजरात में इन्हें नैनो का संयंत्र लगाने के लिए जमीन दी गई, राज्य सरकार ने 540 करोड़ रुपये बतौर ऋण भी दिए, और चुकाने के लिए 0.1 फीसदी की ब्याज दर पर 20 साल का समय. कुल मिलाकर ये कारोबारी मॉडल की ही समस्या है. 

क्या किसान आंदोलनों की बढ़ती आवाजों से मान लेना चाहिए कि भारतीय कृषि एक बड़े संकट की तरफ बढ़ रही है?  

एक डाटा के मुताबिक भारत में 2014 के दौरान किसानों के करीब 687 प्रदर्शन हुए. मतलब 2 प्रदर्शन रोज. 2015 में यह संख्या बढ़कर 2800 हो गई. 2016 में ये विरोध 4500 तक पहुंच गए. 2017 और 2018 में भी विरोध प्रदर्शनों की संख्या कमोबेश बढ़ती रहा. ऐसे में इन आंकड़ों से साफ है कि देश में कृषि संकट भयंकर रूप लेती जा रही है.

वहीं सरकार के पास ना ही दीर्घावधि में और न ही तात्कालिक स्थिति से निपटने का कोई रास्ता है. सवाल है कि क्या सरकार को समझ नहीं आता कि ये क्यों हो रहा है? ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि हम पिछले चार दशकों से किसानों के अधिकारों की अनदेखी करते आए हैं. अगर हम मुद्रास्फीति को एडजस्ट कर 2018 में किसानों को हो रही आय की तुलना 1980 के दशक में किसानों को होने वाली आय से करें, तो वह लगभग बराबर है.

यह बात सिर्फ भारत की नहीं है बल्कि पूरा ग्लोबल डिजाइन भी इसी तरीके से चल रहा है. अगर अमेरिका पर नजर डाले तो वहां भी किसान की वास्तविक आय साल 1960 के बाद से लगातार घट रही है. इसके चलते वहां किसानों को बड़ी मात्रा में सब्सिडी दी जा रही है. भारत में हम किसानों को सब्सिडी नहीं देते. सब्सिडी देश में कंपनियों को दी जा रही है. देश में 10.30 लाख करोड़ रुपये की गैर निष्पादित संपत्तियां (एनपीए) हैं. मुझे ये समझ नहीं आता कि क्यों हम कॉरपोरेट जगत के लिए इतने नरम हैं.  

डीडब्ल्यू: सरकार का दावा है कि साल 2022 तक किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी. यह कितना संभव है?

देवेंदर शर्मा: सरकार के लिए दावा करना कोई बड़ी बात तो है नहीं. सरकार ने पहले कहा कि हम स्वामीनाथन कमेटी की सिफारिशों को लागू कर देंगे. सुप्रीम कोर्ट से कहा कि ये सिफारिशें बाजार की स्थिति को देखते हुए फिलहाल लागू नहीं हो सकती. उसके बाद आपने फॉर्मूला बदल कर कह दिया कि ये तो हमने दे दिया. ये तो वही बात है कि आप दावे करते रहो, भ्रम पैदा करते रहो.

सच तो ये है कि इस पूरे मामले के लिए कोई रोडमैप नहीं है. साथ ही ऐसी कोई ठोस योजना भी नहीं है जिससे ये माना जा सके कि किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी. साल 2016 का आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि देश के 17 राज्यों में एक किसान परिवार की औसतन आय सालाना 20 हजार रुपये रही. मतलब एक परिवार की मासिक आय तकरीबन 1700 रुपये. क्या वाकई एक परिवार इस आय के साथ गुजारा कर सकता है. अगर किसानों की आय दोगुनी भी कर दी जाए तब भी इसका कोई फायदा नहीं होने वाला है.

इंटरव्यू-अपूर्वा अग्रवाल