अपराधी नेताओं की राजनीतिक भूमिका कटघरे में
१३ फ़रवरी २०१८यह भी विचित्र विडंबना है कि जो राजनीतिक नेता सत्ता में रहकर भ्रष्टाचार करते हैं, वही देश से भ्रष्टाचार मिटाने का सबसे अधिक दावा करते हैं. सरकार में होते हुए उनके पास पूरी राजनीतिक और वैधानिक सत्ता होती है जिसका इस्तेमाल करके वे ऐसे कड़े क़ानून बना सकते हैं जिनसे इस उद्देश्य को प्राप्त करने में सफलता मिले. वे कुछ क़ानून बनाते भी हैं, लेकिन ऐसा करते हुए वे अपने-आपको बचा ले जाते हैं. कानूनों में कहीं-न-कहीं ऐसी गुंजाइश छोड़ दी जाती है ताकि आरोप लगने के बाद ही नहीं, अदालत द्वारा भ्रष्ट आचरण का दोषी पाए जाने के बाद भी नेताओं के राजनीतिक प्रभाव में कमी न आने पाए. लेकिन अब भारत की सर्वोच्च अदालत इस मसले पर गंभीरता के साथ विचार कर रही है. और, यदि उसके इतिहास को ध्यान में रखा जाए तो यकीन के साथ कहा जा सकता है कि वह क़ानून को भ्रष्टाचार का बचाव नहीं करने देगी और यदि जरूरी हुआ तो ऐसे क़ानून को असंवैधानिक घोषित करके निरस्त भी कर सकती है.
इस समय सुप्रीम कोर्ट इस मुद्दे पर विचार कर रहा है कि क्या अदालत द्वारा दोषी पाए जाने के बाद भी कोई राजनीतिक नेता किसी पार्टी का अध्यक्ष होने के नाते चुनाव में खड़े होने वाले पार्टी उम्मीदवारों का चयन कर सकता है हालांकि वह स्वयं छह वर्षों तक चुनाव नहीं लड़ सकता? क्योंकि ये उम्मीदवार चुने जाने के बाद सरकार में भी शामिल होकर शासन की प्रक्रिया में भागीदार हो सकते हैं, इसलिए क्या यह व्यवस्था लोकतंत्र के लिए घातक नहीं है? प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्र की अध्यक्षता वाली तीन-सदस्यीय खंडपीठ इस प्रश्न पर विचार कर रही है और उसी ने यह सवाल पूछा है. इस मुद्दे पर निर्वाचन आयोग भी इसी राय का है कि दोषी राजनीतिक नेता को यह अधिकार नहीं होना चाहिए.
इस संबंध में यह याद रखना जरूरी है कि 10 जुलाई, 2013 तक यह व्यवस्था थी कि किसी अदालत द्वारा दोषी पाए जाने के बाद भी विधायक या सांसद तीन माह के भीतर ऊपर की अदालत में अपील करके अपने पद पर बना रह सकता था. लेकिन लिली थॉमस केस में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि यदि विधायक या सांसद को दो साल या उससे अधिक की सजा होती है तो तत्काल उसकी सदस्यता समाप्त हो जाएगी और उसे जेल जाना पड़ेगा. इस संबंध में सर्वोच्च न्यायालय ने जनप्रतिनिधि क़ानून के उस प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया था जिसमें तीन माह के भीतर अपील की व्यवस्था थी. इस फैसले को उलटने के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार ने पहले अध्यादेश का सहारा लिया और फिर राज्यसभा में एक विधेयक पेश किया. इसी विधेयक को राहुल गांधी ने भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में तैश में आकर फाड़ कर फेंक दिया था. इसके बाद अध्यादेश और विधेयक दोनों को वापस ले लिया गया. इस फैसले के कारण भ्रष्टाचार, हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाने जैसे अपराधों में दोषी पाए जाने वाले कई सांसद और विधायक अपनी सदस्यता से हाथ धो बैठे हैं और इनमें कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल, शिव सेना, ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन, डीएमके और एआईडीएमके समेत कई पार्टियों के विधायक और सांसद शामिल हैं.
लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट इससे भी आगे बढ़कर इस प्रश्न पर विचार कर रहा है कि जो नेता स्वयं अदालत में अपराधी सिद्ध हो चुका हो, वह कैसे नया राजनीतिक दल बनाकर उसका अध्यक्ष बन सकता है और उसके उम्मीदवारों का चयन कर सकता है? क्या इससे पूरी राजनीतिक प्रक्रिया ही दूषित नहीं हो जाती? निर्वाचन आयोग का कहना है कि उसके पास ऐसे नेताओं को रोकने के लिए कानूनी अधिकार नहीं है इसलिए वह कुछ नहीं कर सकता हालांकि वह स्वयं इस व्यवस्था को ठीक नहीं समझता है.
अभी यह कहना मुश्किल है कि सुप्रीम कोर्ट का अंतिम फैसला क्या होगा. लेकिन यह आश्वस्तिकारक है कि उसने चुनाव प्रक्रिया को स्वच्छ और पारदर्शी बनाने की अपनी दृढ इच्छा जाहिर कर दी है. उसे मुख्यतः इस बिंदु पर विचार करना है कि क्या दोषी व्यक्ति से राजनीतिक दल बनाने और उसका अध्यक्ष बनकर उम्मीदवारों का चयन करने का अधिकार छीनने का अर्थ अभिव्यक्ति की और संगठन बनाने की स्वतंत्रता का संकुचन तो नहीं होगा? जो भी हो, इस मामले की परिणति भारतीय लोकतंत्र के लिए दूरगामी महत्त्व की होगी.