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समाज

अन्न से लबालब थाली में छेद ही छेद

ओंकार सिंह जनौटी
२३ अगस्त २०१७

भारत में सबसे ज्यादा दूध का उत्पादन होता है, लेकिन शुद्ध दूध खोजना मुश्किल हो जाता है. अथाह मात्रा में अन्न उपजता है, लेकिन किसान और गरीब भूखे मारे जाते हैं. क्या सरकार इस यथास्थिति को बदल पाएगी.

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Indien Reisfeld
तस्वीर: T.Mustafa/AFP/Getty Images

भारत विरोधाभासों से भरा देश है. खाद्यान्न के मामले में भी यह विरोधाभास मौजूद है. तेल, चीनी, दूध, आटे, दलिया या दाल के पैकेट पर एमआरपी तो लिखा होता है लेकिन उन पैकेटों में किसान की मेहनत और उसकी माली हालत का जिक्र नहीं होता. टमाटर का ही उदाहरण लीजिए. दिसंबर 2016 में छत्तीसगढ़ के किसानों ने सैकड़ों क्विंटल टमाटर सड़क पर फेंक दिये, क्योंकि उनकी फसल 25 पैसे प्रति किलो बिक रही थी. मध्य प्रदेश में मार्च अप्रैल में टमाटर डेढ़ से दो रुपये किलो बिका. लेकिन कुछ ही महीने बाद उत्तर भारत में टमाटर 60 से 80 रुपये किलो बिकने लगा.

दूसरे मामलों में भी ऐसा ही है. भारत दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है, लेकिन इसके बावजूद दूध बेचने वाले छोटे किसानों की हालत जस की तस बन रहती है. वे आज भी मोटरसाइकिल में गर्मी, जाड़े या बरसात का सामना करते हुए अपनी आजीविका चला रहे हैं. ज्यादातर राज्यों में उन्हें एक लीटर दूध के लिये 25 से 30 रुपये मिलते हैं. यानि 10 लीटर के लिए ज्यादा से ज्यादा 300 रुपये. ऊपर से ग्राहकों को भी शुद्ध दूध मिल जाए, ये दावा नहीं किया जा सकता. आए दिन नकली सिथेंटिक दूध की खबरें सामने आती हैं.

दुनिया के सबसे बड़े चावल उत्पादक देश में धान की कटाई के बाद किसानों को मामूली पैसे मिलते हैं. गेहूं, दालें, कपास और गन्ना उपजाने वाले किसानों की पहली और आखिरी उम्मीद सरकार द्वारा तय समर्थन मूल्य होते हैं. कई सालों बाद अब जाकर गेहूं का समर्थन मूल्य 1,625 रुपये प्रति क्विंटल हुआ है. दालों का समर्थन मूल्य भी बढ़कर 4,000 रुपये प्रति क्विंटल हुआ है.

Indien Ernährung
कभी कभी लागत निकालना मुश्किलतस्वीर: AFP/Getty Images

अक्सर किसानों का खेती में किया गया निवेश भी वापस नहीं आता. लेकिन शहरों में उभरे एक विशाल मध्यवर्ग तक खेत खलिहानों की ये दशा नहीं पहुंच पाती. उस तक पहुंचता है तो सिर्फ आखिरी प्रोडक्ट. धान का चावल, गेंहू का आटा, मैदा या दलिया. दाल या उससे बनी नमकीन या स्नैक्स और टमाटर से बना केचअप.

और ये विरोधाभास सिर्फ प्रस्तावना है. समस्या तो फसल के साथ सामानांतर रूप से चलती है. फसल खराब हुई तो नुकसान. अच्छी हुई तो दाम कम. खराब फसल के लिये मौसम जिम्मेदार तो बढ़िया फसल के लिए मौजूदा सिस्टम. इस समस्या की अहम कड़ी भंडारण भी है. आधुनिक कोल्ड स्टोरेज की कमी के चलते सीजन की फसल को किसी भी तरह निपटाने की कोशिश की जाती है. सबको लगता है कि रखे रखे सड़ाने से तो बेहतर है कि जो मिले उस दाम में बेच दो. दूसरी समस्या है खाद्य प्रसंस्करण या फू़ड प्रोसेसिंग के ढांचे की कमी. जरा सोचिये कि अगर हर जिले या मंडल में एक जूस, केचअप या दलिया बनाने वाली बढ़िया प्रोसेसिंग यूनिट हो तो किसानों की बदहाली की तस्वीर बदल सकती है.

खाद्यान्न उत्पादन के मामले में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा देश भारत, अभी सिर्फ 10 फीसदी खाना ही प्रोसेस कर पाता है. बाकी का 90 फीसदी औने पौने दाम में इधर उधर हो जाता है. इसकी मार किसान चुकाता है और खेतिहर मजदूर भी. अन्न से समृद्ध देश में 23 फीसदी लोगों के सामने दो जून की रोटी जुटाना मुश्किल होता है. ऊपर से ग्राहकों भी बहुत बढ़िया क्वालिटी नहीं मिल पातीं.

मौजूदा सरकार इस दशा को बदलना चाहती है. इस बार सरकार के तरकश में कुछ अलग तीर हैं. फूड प्रोसेसिंग और स्टोरेज के मामले में 100 फीसदी सीधे विदेशी निवेश को मंजूरी दी गई है. यूरोप, जापान और अमेरिका जैसे देशों की कंपनियों को सरकार पूरे सहयोग के साथ भारत के फूड प्रोसेसिंग बाजार में आने का न्योता दे रही है.

Berlin Indische Botschaft - Harsimrat Kaur Badal
बर्लिन में जर्मन कंपनियों से बातचीत करतीं हरसिमरत कौर बादलतस्वीर: DW/O.S. Janoti

इस सिलसिले में बर्लिन पहुंची भारत की खाद्यान्न प्रसंस्करण मंत्री हरसिमरत कौर बादल ने जर्मनी के बड़े, मझोले और छोटे कारोबारियों से मुलाकात की. बादल के मुताबिक, "फलों और सब्जियों का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक होने के बावजूद भारत में अभी सिर्फ दो फीसदी फल और सब्जियों का प्रसंस्करण होता है. विकसित देशों में ये 70 से 80 फीसदी होता है. हमसे छोटे देश मलेशिया, थाइलैंड वहां भी 70 से 80 फीसदी प्रसंस्करण होता है, इस लिहाज से देखें तो भारत में बहुत बड़ी संभावनाए हैं."

हरसिमरत कौर बादल मानती हैं कि फूड प्रोसेसिंग को बढ़ावा देते हुए सरकार किसानों, ग्राहकों और आपके हितों का ख्याल रखेगी. फूड प्रोसेसिंग के मामले जर्मनी यूरोप में सबसे ऊपर है. यह फूड प्रोसेसिंग और रिसाइक्लिंग की ही देन है कि बाजार में कीमतें करीब करीब स्थिर बनी रहती है और अभाव भी सामने नहीं आता. अगर ये कंपनियां भारत में आईं तो प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी. जमाखोरों के मौजूदा तंत्र पर चोट पड़ेगी.

लेकिन इन कंपनियों को भारत तक लाना आसान नहीं है. जिस देश में विरोध के नाम पर हाइवे जाम कर दिये जाएं, ट्रकों के काफिले फूंक दिये जाएं, सरकारें बदलते ही नीतियां बदल जाएं और वोट बैंक के दबाव के चलते यू टर्न लिये जाएं वहां अभी बहुत सारे होमवर्क की जरूरत है. और यह होमवर्क किसी एक विषय का नहीं है, ये कई विषयों है, जिसे रोज रोज पूरा करने पर ही अच्छे नंबर आएंगे.

(क्या शहर, गांवों का हक मारते हैं)