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अंतरिक्ष को घूरता टेलिस्कोप

५ फ़रवरी २०१४

दुनिया के सबसे बड़े टेलिस्कोपों में शामिल एफेल्सबर्ग की मदद से एक भारतीय वैज्ञानिक से यह जानना चाहता है कि सृष्टि का सृजन कैसे हुआ.

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तस्वीर: picture-alliance/ dpa

भारत के रमेश करुप्पुसामी इस प्रोजेक्ट में लगे हैं, जो पलसर या न्यूट्रॉन तारों पर नजर रख रहे हैं. जर्मनी के माक्स प्लांक इंस्टीट्यूट की मदद से चल रहे एफेल्सबर्ग सेंटर में 100 मीटर व्यास का टेलिस्कोप उनकी मदद कर रहा है. उनका कहना है, "यह पलसर जैसी खगोलीय चीजों को समझने में बहुत मददगार है. पलसर पर रिसर्च से पता चलता है कि गुरुत्वाकर्षण की वजह से कैसे अंतरिक्ष का समय बदलता है."

जर्मनी के बॉन शहर के नजदीक इस टेलिस्कोप केंद्र का तंत्र बिलकुल अलग तरह का है. यहां बड़े एंटीना की जगह छोटे छोटे एंटीनाओं का जाल बिछाया गया है, जो बहुत छोटी तरंगों को भी पकड़ सकते हैं. ये इलेक्ट्रॉनिक आंकड़ों को डिजिटल आंकड़ों में बदलते हैं, लिहाजा तस्वीरों की गुणवत्ता बहुत बढ़ जाती है. इन्हें लोफार टेलिस्कोप भी कहा जाता है.

इस केंद्र ने ऐसा तंत्र विकसित किया है, जो यूरोप के ग्यारह देशों में फैला है. कुरुप्पुसामी का कहना है कि यह एक सस्ता टेलिस्कोप है, "इस टेलिस्कोप में घूमने वाला कोई हिस्सा नहीं है. इसका मतलब यह हुआ कि इसका रुख आसमान की तरफ़ रखने का काम इलेक्ट्रॉनिकली होता है. यानी सभी संकेत, प्रोसेसिंग, सब कुछ इलेक्ट्रॉनिक तरीके से होता है और इस वजह से यह एक सस्ता टेलिस्कोप बनता है."

एफेल्सबर्ग के इस टेलिस्कोप को 1971 में लगाया गया था और करीब 29 साल तक यह दुनिया का सबसे बड़ा टेलिस्कोप बना रहा. ग्रहों की स्थिति और उनकी गति पर नजर रखने वाले इस टेलिस्कोप से ब्रह्मांड के कुछ अनसुलझे राज भी सुलझ सकते हैं. कुरुप्पुसामी के मस्तिष्क में भी कई सवाल घुमड़ रहे हैं, "हम जानना चाहते हैं कि सूर्य कहां से आया है, पृथ्वी कहां से आई है, पृथ्वी कितने दिनों तक रहेगी, सूर्य कितने दिनों तक रहेगा. क्या वह हमेशा हमेशा रहेगा. ये फिलोसॉफी से जुड़े सवाल लगते हैं और खगोलशास्त्र के जरिए हम उनका जवाब ढूंढ सकते हैं."

शहर से दूर, एफेल्सबर्ग गांव रेडियो टेलिस्कोप लगाने की अच्छी जगह है. आस पास की पहाड़ियां इसे दूसरे इलेक्ट्रॉनिक संकेतों से बचाए रखती है.

एजेए/एएम

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