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विज्ञानब्रिटेन

सूरज को मद्धम करने की विवादास्पद तकनीक को मिला बड़ा निवेश

८ फ़रवरी २०२३

कुछ वैज्ञानिक सूरज को मद्धम करना ग्लोबल वॉर्मिंग का एक हल मानते हैं. बहुत से अन्य इससे असहमत हैं. लेकिन शोध को मिले बड़े निवेश ने बहस को तेज कर दिया है.

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क्या होगा जो सूर्य मद्धम हो गया
क्या होगा जो सूर्य मद्धम हो गयातस्वीर: Michael Probst/AP Photo/picture alliance

विकासशील देशों के कुछ वैज्ञानिकों को सूरज को मद्धम करने की तकनीक विकसित करने के लिए और ज्यादा धन मिल गया है. ग्लोबल वॉर्मिंग को रोकने के एक तरीके के रूप में कुछ वैज्ञानिक धूप की तेजी को कम करने की तकनीक पर काम कर रहे हैं और उन्हें बड़ा निवेश मिला है. बहुत से अन्य वैज्ञानिक इस तरीके को खतरनाक मानते हैं और कहते हैं कि यह बारूदी सुरंग पर पांव रखने जैसा है, इसलिए इस रिसर्च को फौरन रोका जाना चाहिए.

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इस रिसर्च को सोलर जियो इंजीनियरिंग कहा जाता है. सैद्धांतिक रूप से इसमें वैज्ञानिक विमानों या विशाल गुब्बारों के जरिए स्ट्रैटोस्फीयर यानी वायुमंडल की ऊपर परत पर सल्फर का छिड़काव करने की योजना पर काम कर रहे हैं. सल्फर सूर्य की किरणों को परावर्तित कर देता है. इस तरह धरती तक धूप उतनी तेज नहीं पहुंचती कि तापमान जरूरत से ज्यादा बढ़ सके.

करोड़ों की मदद

खतरों के प्रति आगाह किए जाने के बावजूद इस तकनीक पर शोध लगातार जारी है. बुधवार को ब्रिटेन की एक समाजसेवी संस्था डिग्रीज इनिशिएटिव ने ऐलान किया कि 15 देशों में सोलर इंजीनियरिंग पर हो रहे शोध के लिए नौ लाख डॉलर यानी करीब साढ़े सात करोड़ रुपये उपलब्ध कराए जाएंगे. जिन देशों में यह शोध हो रहा है उनमें नाइजीरिया और चिली के अलावा भारत भी शामिल है.

संस्था ने कहा कि यह धन सोलर इंजीनियरिंग के मानसून से लेकर तूफानों और जैव विविधिता पर होने वाले प्रभावों का अध्ययन करने के लिए कंप्यूटर मॉडलिंग तैयार करने के लिए दिया जा रहा है. सोलर इंजीनियरिंग को सोलर रेडिएशन मॉडिफिकेशन भी कहा जाता है.

इससे पहले 2018 में भी इस संस्था ने शोध के लिए दस देशों के वैज्ञानिकों को इतना ही धन मिला था. उस वक्त शोध का मकसद दक्षिण अफ्रीका में बढ़ते सूखे या फिलीपींस में चावल की खेती को बढ़ते खतरों का अध्ययन करने के लिए दिया गया था.

वैसे अब तक सोलर इंजीनियरिंग संबंधी शोध पर अमीर देशों का ज्यादा अधिकार रहा है और हार्वर्ड व ऑक्सफर्ड जैसे विश्वविद्यालय इस शोध के अगुआ रहे हैं. डिग्रीज इनिशिएटिव के सीईओ और संस्थापक एंडी पार्कर ने कहा, "मकसद है एसआरएम पर शक्ति का बंटवारा करना. इस तकनीक को इस्तेमाल करना है या नहीं, यह फैसला जिन देशों को सबसे ज्यादा प्रभावित करेगा, उन्हें सशक्त किया जा रहा है.”

संस्था द्वारा उपलब्ध कराया जा रहा धन एक साझा प्रोजेक्ट है जिसे डिग्रीज इनिशिएटिव और ओपन फिलैंथ्रोपी व वर्ल्ड अकैडमी ऑफ साइंसेज मिलकर मिलकर चला रहे हैं.

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पार्कर कहते हैं, "चूंकि बहुत कुछ दांव पर लगा है इसलिए यह हैरतअंगेज है कि दुनिया में कितना कम शोध हो रहा है.”

क्या कहते हैं विरोधी?

इसकी एक वजह शायद इस तकनीक को लेकर जाहिर किए जा रहे संदेह भी हैं. आलोचक कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन से निपटने का एक संभावित रास्ता जीवाश्म ईंधन कंपनियों को कुछ ना करने का बहाना दे सकता है. साथ ही, यह तकनीक मौसमों को बिगाड़ सकती है जिससे गरीब देशों में गरीबी और बढ़ सकती है.

नाइजीरिया की आलेक्स एक्वेमे फेडरल यूनिवर्सिटी में सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज एंड डेवेलपमेंट के डायरेक्टर चुकवुमेरिये ओकेरेके कहते हैं, "यह बहुत विवादास्पद है. मैं ऐसी सौ चीजें बता सकता हूं जो ग्लोबल वॉर्मिंग को कम कर सकती हैं और सोलर इंजीनियरिंग उनमें से एक नहीं होगी.”

ओकेरेके लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में विजिटिंग प्रोफेसर भी हैं. वह कहते हैं कि पिछले साल जब जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के विशेषज्ञों की 48 पेज की रिपोर्ट आई तो उन लोगों ने एसआरएम का जिक्र तक नहीं किया.

एसआरएम के समर्थक कहते हैं कि यह तकनीक ज्वालामुखियों से प्रेरित है. मिसाल के तौर पर 1991 में फिलीपींस में माउंट पिन्याटूबो नाम का ज्वालामुखी फटा था तो आसमान में बिखरी राख ने वैश्विक तापमान को एक साल तक काबू में रखा था. पिछले आठ साल में इतिहास के सबसे गर्म साल गुजरे हैं और औसत तापमान ओद्यौगिक क्रांति से पहले की तुलना में 1.2 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है. 2015 के पैरिस समझौते के तहत इसे 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा ना बढ़ने देने की बात कह गई थी. इसलिए वैज्ञानिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए जल्द से जल्द कोई तरीका खोजने पर जोर दे रहे हैं.

उट्रेष्ट यूनिवर्सिटी में ग्लोबल सस्टेनेबिलिटी गवर्नेंस के प्रोफेसर फ्रांक बियरमान कहते हैं कि एसआरएम असली शोध और जरूरतों से ध्यान भटकाने का तरीका है. उन्होंने कहा कि एक औसत अमेरिकी सालाना 14.7 टन कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन करता है जबकि एक औसत भारतीय सिर्फ 1.8 टन.

बियरमान कहते हैं, "अगर दुनिया में सभी लोगों का औसत कार्बन उत्सर्जन भारत, अफ्रीका या दक्षिण अमेरिका जितना हो तो जलवायु परिवर्तन एक बड़ी समस्या नहीं होगा.”

वीके/एए (रॉयटर्स)

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