दिलचस्प बात यह है कि भूटान की सीमा से लगे इस वन क्षेत्र के संरक्षण में स्थानीय ग्रामीणों ने काफी अहम भूमिका निभाई है. लेकिन अब सरकारी फैसले के विरोध के पीछे उनकी दलील है कि जंगल का कुछ हिस्सा उनके लिए बेहद पवित्र है और वन्यजीव अभयारण्य घोषित होने के बाद उनसे जंगल का अधिकार छिन जाएगा. गोल्डन लंगूर असम के काकोइजना के अलावा पड़ोसी भूटान में ही पाए जाते हैं. असम आंदोलन और उसके बाद बोड़ो उग्रवाद के दौर में जंगल तेजी से कटने की वजह से इस प्रजाति के लंगूरों की आबादी खतरे में पड़ गई थी. उनकी आबादी घट कर सौ से भी कम हो गई थी.
लेकिन गांव वालों और कुछ गैर-सरकारी संगठनों के प्रयास से जहां उस बंजर इलाके में दोबारा जंगल उग आया है वहीं लंगूरों की आबादी भी बढ़ कर पांच सौ के पार पहुंच गई है. लेकिन इससे एक नया खतरा पैदा हो गया है. वह खतरा है इंसानों और जानवरों (लंगूरों) के बीच संघर्ष और सड़क हादसों में इन लंगूरों की बढ़ती मौत. इस पर अंकुश लगाने के लिए असम सरकार ने उस इलाके को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने की पहल की है. वैसे, सरकार ने वर्ष 2011-12 गोल्डन लंगूरों के संरक्षण के लिए असम चिड़ियाघर में गोल्डन लंगूर संरक्षण परियोजना की शुरुआत में की थी.
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क्या है गोल्डन लंगूर
पश्चिमी असम और भारत-भूटान की सीमा से सटे इलाकों में पाए जाने वाले गोल्डन लंगूर की खोज औपचारिक तौर पर वर्ष 1953 में एडवर्ड प्रिचर्ड गी ने की थी. इसलिए इसके नाम में गी का नाम भी जुड़ा है. यह भारत की सबसे लुप्तप्राय प्रजातियों में से एक है और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन आफ नेचर (आईयूसीएन) की लाल सूची में शामिल है. भूटान में उनकी आबादी करीब चार हजार है. पूरी दुनिया में गोल्डन लंगूर की आबादी सात हजार के करीब है.
इनके संरक्षण के लिए असम सरकार ने कोई दस साल पहले एक योजना शुरू की थी. 5 जून 2019 को बंगाईगांव जिले के अधिकारियों में असम ने मनरेगा के तहत एक परियोजना शुरू की थी. उसके तहत वन क्षेत्र में अमरूद, आम, ब्लैकबेरी समेत कई फलों के दस हजार से ज्यादा पौधे लगाए गए. इसका मकसद इन लंगूरों को जंगल में पर्याप्त भोजन मुहैया कराना था ताकि भोजन की तलाश में उनको जान से हाथ नहीं धोना पड़े. उससे पहले कई हादसों में दर्जनों ऐसे लंगूरों की मौत हो गई थी.
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सरकारी पहल
गोल्डन लंगूरों के संरक्षण की योजना पर काम कर रहे बंगाईगांव जिला प्रशासन ने सरकार से काकोइजना को वन्यजीव अभयारण्य का दर्जा देने की सिफारिश की है. बंगाईगांव के उपायुक्त आदिल खान बताते हैं, "वन मंत्री और प्रधान वन संरक्षक के साथ हाल में एक बैठक में यह प्रस्ताव दिया गया था. सरकार ने इस पर सहमति दे दी है. अब मानसून के बाद इस संरक्षित वन क्षेत्र में रहने वाले पशुओं की तमाम प्रजातियों की गिनती के बाद सरकार को औपचारिक रिपोर्ट भेजी जाएगी."
आदिल खान बताते हैं कि इस इलाके में करीब पांच सौ गोल्डन लंगूर हैं. लेकिन उनकी आबादी तेजी से बढ़ने की वजह से कई समस्याएं पैदा हो रही हैं. एक ओर जहां इंसानों के साथ संघर्ष बढ़ रहा है वहीं जंगल में भोजन का भी संकट पैदा हो रहा है. खान बताते हैं, "अब तक इस प्रजाति के संरक्षण में स्थानीय आदिवासी ग्रामीणों का साथ भी मिलता रहा है. वन्यजीव अभयारण्य का दर्जा मिलने के बाद इलाके में शोध और निवेश के साथ ही पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जा सकेगा."
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होमो फ्लोरेसिएन्सिस (हॉबिट)
गंभीर दिखने वाला ये इंसान 2003 में इंडोनेशियाई द्वीप पर मिला. यह सिर्फ एक मीटर लंबा था और जेआरआर टल्कियेन की लॉर्ड ऑफ द रिंग्स कहानी में हॉबिट जैसा दिखता था. इसलिए इसे हॉबिट कहा जाता है. शायद यह आधुनिक मनुष्य से अलग प्रजाति का था. धरती पर दोनों ही रहते थे. करीब 15,000 साल पहले हॉबिट प्रजाति ने दुनिया को अलविदा कह दिया.
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क्वागा
घोड़े और जेबरा का मिक्स दिखने वाला ये जानवर असल में एक जेबरा है. दक्षिण अफ्रीकी जेबरा की ये एक उप प्रजाति है. लोग इसका शिकार करते और खाने में इसकी टक्कर थी पालतू जानवरों से. क्वागा 1883 में धरती से खत्म हो गया.
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ब्रैकियोसॉरस
ये प्राणी धरती से 15 करोड़ साल पहले विलुप्त हो गया था. शाकाहारी ब्रैकियोसॉरस धरती पर रहने वाली सबसे बड़ी प्रजातियों में से एक था. पूरे आकार का डायनोसोर बनने में इसे 10 से 15 साल लगते थे. खूब भूख और बढ़िया मैटाबोलिज्म वाला ये प्राणी 13 मीटर ऊंचा और इससे दुगना बड़ा होता था.
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ऊनी मैमथ
आइस एज में जिंदा रहने के लिए वुली मैमथ की खाल बहुत ऊनी होती थी. ये हाथी भी आज के हाथी जितने ही बड़े होते थे. हालांकि ये पांच हजार साल पहले धरती से खत्म हो गए. कारण गर्म होता वातावरण और हमारे पूर्वज शिकारी थे.
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थाइलैसिन
कुत्ते या भेड़िये जैसा दिखने वाला ये प्राणी तस्मानियाई भेड़िया या तस्मानियाई टाइगर कहलाता है. पेट पर झोली लेकर चलने वाला ये थाइसैलिन हाल के दौर में मांस खाने वाला सबसे बड़ा जानवर था. ऑस्ट्रेलिया का जानवर तस्मानिया के द्वीप पर मिला. यहां आने वाले लोगों ने और उनके कुत्तों ने इसे जीने नहीं दिया. ये 1930 के दशक में खत्म हो गया.
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इंड्रीकोथेरियम
आधुनिक राइनोसॉरस के पड़ पड़ दादा बहुत ही बड़े होते थे. करीब 20 टन के ये बड़े भारी प्राणी शाकाहारी थे. जिंदा रहने के लिए इन्हें बहुत घास, पत्तियों की जरूरत होती. ये मध्य एशिया के जंगलों में राज करते थे. ये मेगा राइनो जंगल खत्म होने के बाद दो करोड़ तीस लाख साल पहले खत्म हो गए.
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धरती के इतिहास में खो गए ये जीव
साइकोपाइज एलिगांस
समंदर में रहने वाले ये जानवर करीब दो लाख सत्तर हजार साल रहे. लेकिन अचानक 25 करोड़ साल पहले सारे के सारे खत्म भी हो गए. अब ये सिर्फ जीवाश्म ऑक्शन वाली वेबसाइटों पर ही दिखाई देते हैं.
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पैसेंजर पिजन
ये है मार्था, पैसेंजर कबूतर. इसे जॉर्ज वॉशिंगटन की पत्नी के नाम पर ये नाम मिला है. सिनसिनाटी जू में कबूतर की ये प्रजाति 1914 में इस कबूतर के साथ खत्म हो गई. इंसान ने इनके रहने के जंगल खत्म कर दिए और फिर इनका भी शिकार किया.
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एंट्रोडेमस
इस भयानक फोटो के साथ तो इसे जुरैसिक पार्क फिल्म में जगह मिल जानी चाहिए थी लेकिन मिली नहीं. यह पश्चिमी अमेरिका में 15 करोड़ साल पहले दादागिरी करता था. खाद्य श्रृंखला में यह सबसे ऊपर होता था.
जंगल की कटाई
इन लंगूरों की बढ़ती आबादी आसपास के लोगों के खेतों और बागों में भोजन की तलाश में उपद्रव मचाने लगी है. काकोइजना वन क्षेत्र करीब 18 वर्ग किमी इलाके में फैला है और यहां जानवरों की विभिन्न प्रजातियां रहती हैं. फिलहाल इस वन क्षेत्र की रक्षा जंगल के चारों ओर बसे 34 गांवों के लोग करते हैं. वहां मूल रूप से बोड़ो, संथाल, गारो, कोच राजबंशी, बंगाली और नेपाली तबके के लोग रहते हैं.
वर्ष 1966 में बने इस वन क्षेत्र में एक गैर-सरकारी संगठन नेचर्स फोस्टर के सदस्यों ने पहला गोल्डन लंगूर 5 नवंबर 1995 को देखा था. उस समय उनकी आबादी सौ से भी कम थी. संगठन के पदाधिकारी रहे अर्णब बसु बताते हैं, "अस्सी के दशक में होने वाला असम आंदोलन भी इलाके में जंगल के कटने और इन लंगूरों की आबादी में गिरावट का सबसे प्रमुख कारण था. आंदोलन के नाम पर लोगों ने बड़े पैमाने पर पेड़ों की अवैध कटाई की. उस समय इस जंगल का करीब 95 फीसदी हिस्सा बंजर जमीन में बदल गया था."
भारत सरकार की नई योजना से आदिवासी भूमि अधिकारों और जैव विविधता को खतरा
उसके बाद इन लंगूरों के संरक्षण के लिए अमेरिकी संरक्षण कार्यकर्ता डा. रॉबर्ट हॉर्विच के नेतृत्व में कुछ गैर-सरकारी संगठनों ने काकोइजना वन क्षेत्र और गोल्डन लंगूरों के संरक्षण के लिए वर्ष 1998 में एक योजना शुरू की थी. इस काम में स्थानीय लोगों को भी शामिल किया गया. उसका बेहतरीन नतीजा सामने आया. अब जहां जंगल की तस्वीर बदलने के साथ ही लंगूरों की आबादी भी बढ़ कर पांच सौ के पार पहुंच गई है.
एक सींग वाले गैंडों के संरक्षण में कामयाबी
विरोध क्यों?
असम के वन विभाग ने हाल में इलाके के 19.85 वर्ग किमी वन क्षेत्र को वन्यजीव अभयारण्य घोषित करने की प्राथमिक अधिसूचना जारी की है. लेकिन गांव वालों ने इसके विरोध में जिला प्रशासन को ज्ञापन दिया है. उसमें कहा गया है कि जंगल के भीतर के कुछ इलाके बेहद पवित्र है और उसकी पवित्रता सुनिश्चित की जानी चाहिए. इलाके के लोग जंगल के संरक्षण की दिशा में बेहतर काम कर रहे हैं.
गांव वालों का कहना है कि वन्यजीव अभयारम्य का दर्जा मिलने के बाद वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 के कड़े प्रावधानों के कारण उनके पारंपरिक रीति-रिवाज प्रभावित होंगे और जंगल से उनका अधिकार छिन जाएगा. इसके अलावा उससे संरक्षण की प्रक्रिया भी प्रभावित होगी. स्थानीय लोग वन्यजीव अभयारण्य के बदले इलाके को वन अधिकार अधिनियम के तहत कम्युनिटी फॉरेस्ट रिसोर्सेज में बदलने पर जोर दे रहे हैं. ग्रामीणों को अपनी इस मुहिम में गैर-सरकारी संगठनों का साथ भी मिल रहा है.
वन्यजीव विशेषज्ञ मनोतोष चक्रवर्ती कहते हैं, "कोई भी फैसला करने से पहले जंगल और लंगूरों के संरक्षण में ग्रामीणों की भूमिका को ध्यान में रखा जाना चाहिए. फैसले की प्रक्रिया में उनको भी शामिल करना जरूरी है. साथ ही इस बात का ध्यान रखना होगा कि सरकार के फैसले से स्थानीय आदिवासी समाज की परम्पराओं और रीति-रिवाजों पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़े."
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जंगली जानवरों की वापसी की दास्तान
आम लोगों की शक्ति
रीवाइल्डिंग जंगलों को बढ़ाने का एक सामाजिक और इकोलॉजिकल आंदोलन है. यूरोप में इकोलॉजिस्ट मांग कर रहे हैं कि नष्ट हो चुके जंगली इलाकों के 20 प्रतिशत हिस्से को 2030 तक फिर से हरा भरा किया जाए.
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जंगली जानवरों की वापसी की दास्तान
यूरोपीय बाइसन की वापसी
बीसवीं सदी की शुरुआत में यूरोपीय बाइसन लगभग गायब हो चुके थे लेकिन अब रीवाइल्डिंग की कोशिशों की वजह से पूरे यूरोप में बाइसन की आबादी लगभग तीन गुना बढ़ चुकी है. अब ना सिर्फ ये स्थानीय जैव-विविधता बढ़ाने का काम कर रहे हैं, बल्कि स्थानीय सामाजिक-आर्थिक विकास को बढ़ाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.
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जंगली जानवरों की वापसी की दास्तान
बालकन देशों के गिद्ध
बुल्गारिया और ग्रीस के रोडोप पर्वत यूरोप के आखिरी जैव-विविधता स्थलों में से हैं. ये ग्रिफन, मिस्री गिद्धों और काले गिद्धों के प्रजनन का एक महत्वपूर्ण इलाका भी है. पिछले पांच सालों में रीवाइल्डिंग की मदद से इनकी आबादी को स्थिर करने और बढ़ाने में मदद मिली है. ऐसा करने के लिए इनके प्राकृतिक शिकार की उपलब्धता बढ़ाई गई और इनका शिकार और इनके मौत के लिए जिम्मेदार हादसों को भी रोका गया.
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जंगली जानवरों की वापसी की दास्तान
बाढ़ रोकने के लिए ऊदबिलाव को वापस लाना
करीब 400 साल पहले इंग्लैंड और वेल्स में ऊदबिलाव लगभग लुप्त ही हो गए थे, लेकिन कुछ सालों पहले यूके सरकार ने फॉरेस्ट ऑफ डीन इलाके में एक गांव को बाढ़ में डूब जाने से रोकने के लिए वहां ऊदबिलावों के एक परिवार को बसा दिया. ऊदबिलावों को ना सिर्फ मिट्टी की गुणवत्ता सुधारने के लिए जाना जाता है बल्कि उनके बनाए बांध बाढ़ से सुरक्षा भी देते हैं.
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अमेरिका में भेड़ियों के लौटने का असर
अमेरिका के येल्लोस्टोन राष्ट्रीय उद्यान में एल्कों की आबादी बढ़ने से वहां के विल्लो, ऐस्पन और कॉटनवुड पेड़ नष्ट होते जा रहे थे. फिर वहां ग्रे वूल्फ को फिर से बसाया गया और उसके बाद एल्क की आबादी पर नियंत्रण लगा. इसके साथ ही सॉन्गबर्ड जैसे पक्षी और ऊदबिलाव भी लौट आए. शिकार किए जाने के डर से एल्कों ने नदियों के किनारों पर बेफिक्र हो कर चरना कम कर दिया, जिससे नदियों का स्वरूप भी बदल गया.
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राजमार्गों पर कीड़ों की मदद
कीड़े जब लंबा सफर करते हैं तो अक्सर आधुनिक खेती के तरीकों की वजह से उन्हें अक्सर रास्ते में ऐसे वन्य जीवों वाले इलाके मिलने में दिक्कत होती है जहां उन्हें खाना मिल सके. पिछले साल, बगलाइफ नाम की संस्था ने यूके में कीड़ों के इन रास्तों का एक नक्शा बनाया और फिर संरक्षण कार्यकर्ताओं ने इन रास्तों पर मधुमक्खियों, तितलियों और दूसरे वन्य जीवों के लिए खाने के अवसर उपलब्ध कराए.
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लाल और हरे मकाओ तोतों को वापस लाना
लाल और हरे रंग के मकाओ तोते अर्जेंटीना से लुप्त हो चुके थे, लेकिन 2015 में एक रीवाइल्डिंग संस्था ने इन्हें आइबेरा राष्ट्रीय उद्यान में फिर से बसाया. तब से उन्होंने बीजों को फैलाने में बेहद जरूरी भूमिका अदा की है और एक मूल्यवान इकोपर्यटन का केंद्र भी बनाया है. इन्होने प्रजाजन भी शुरू कर दिया है. पिछले साल 150 सालों में पहली बार देश में जंगल में इन तोतों द्वारा दिए गए अण्डों में से बच्चे निकले.
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रीवाइल्डिंग के साथ समस्या
रीवाइल्डिंग के साथ कुछ विवाद भी जुड़े हुए हैं. जंगली प्रजातियों को वापस लाने के ऐसे परिणाम भी हो सकते हैं जिनके बारे में सोचा ना गया हो, जैसे कुछ आक्रामक प्रजातियों का बढ़ना या किसी बीमारी का फैलना. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि रीवाइल्डिंग एक आर्थिक समस्या भी बन सकती है क्योंकि कई बार जहां रीवाइल्डिंग करनी हो उस जमीन की खेती या निर्माण के लिए भी आवश्यकता होती है.
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जंगली जानवरों की वापसी की दास्तान
सही जगह को चुनना जरूरी
रीवाइल्डिंग की मुख्य चुनौतियों में से है सही जगह को चुनना. विशेषज्ञों के मुताबिक यह बेहद जरूरी है कि जगह की भौगोलिक स्थिति से लेकर वहां की नदियों, मिट्टी और भूविज्ञान को भी समझा जाए. इससे पता लगेगा कि कहां पौधे उगाए जा सकते हैं, कहां पशु चर सकते हैं, कहां पनाह ले सकते हैं और कहां शिकार कर सकते हैं. ज्यादा विविधता वाले स्थानों में संरक्षण की ज्यादा संभावना होती है. (ऐन-सोफी ब्रैन्डलिन)