1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

बीमार जर्मनी कैसे करेगा अपना इलाज

ओंकार सिंह जनौटी
२५ अगस्त २०२३

लंबे समय तक सफल रहे इंसान को अचानक खुद को बदलना पड़े. नया रास्ता लेना पड़े. जर्मन अर्थव्यवस्था इसी संकट से गुजर रही है.

https://p.dw.com/p/4VZJE
जर्मनी का ट्रैफिक
तस्वीर: Bernd von Jutrczenka/picture-alliance/dpa

2007-08 की विश्वव्यापी मंदी के कुछ साल बाद जब आयरलैंड, पुर्तगाल, इटली, ग्रीस और स्पेन की हालत खस्ता हुई, तो यूरोपीय संघ ने अपने बीमार सदस्यों को सहारा दिया. यूरोप की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था जर्मनी ने इस दौरान सबसे ज्यादा भार अपने ऊपर लिया. अब ये देश काफी हद तक संभल चुके हैं. लेकिन बुरे वक्त में उन्हें सहारा देने वाला जर्मनी अब खुद आर्थिक रूप से बीमार पड़ चुका है. यूक्रेन युद्ध और उससे उपजे नए भूराजनैतिक समीकरण, जर्मन अर्थव्यवस्था पर इमरजेंसी ब्रेक लगा चुके हैं.

जर्मनी के रियल एस्टेट पर घिरे संकट के बादल

गड़बड़ा गया जर्मनी का प्लान

जर्मनी अपनी लॉन्ग टर्म प्लानिंग और उस पर अडिग रहने के लिए मशहूर है. शांतिकाल के दौरान यह प्लानिंग जर्मनी का सबसे मजबूत औजार बनती है, लेकिन परिस्थितियां अचानक बदल जाएं तो जर्मन सिस्टम हालात संभलने का इंतजार करता है. यूक्रेन युद्ध के बाद जर्मनी के साथ कुछ ऐसा ही हुआ.

जर्मनी में विदेशी कामगारों का आना आसान करने वाला प्रस्ताव पास

युद्ध के कारण जर्मनी को अपनी सैन्य तैयारियों और यूक्रेन की मदद पर बहुत ज्यादा पैसा खर्च करना पड़ रहा है. अंतरराष्ट्रीय मांग में गिरावट के कारण उसके निर्यात में कमी आई है. सबसे बड़े कारोबारी साझेदार चीन और पश्चिम के बिगड़ते संबंध भी भविष्य की योजनाओं पर भारी पड़ रहे हैं. रूस पर लगे प्रतिबंधों के कारण जर्मन कारखानों को मिलने वाली सस्ती गैस बंद हो चुकी है. महंगे तेल के कारण देश में महंगाई की दर ऊंची बनी हुई है. यूरोजोन में भी ब्याज दर ऊपर बरकरार है. ऊर्जा स्रोतों को किफायती रखने के चक्कर में जर्मन सरकार का बजट घाटा बढ़ता जा रहा है. जर्मन अर्थव्यवस्था की जान कहे जाने वाले मध्यम स्तर के उद्योग, कर्मचारियों की कमी से जूझ रहे हैं. यानी जर्मन मशीन के कई पुर्जें एक साथ गड़बड़ा चुके हैं.

जर्मनी का सैन्य खर्च यूक्रेन युद्ध के बाद कई गुना बढ़ा
जर्मनी का सैन्य खर्च यूक्रेन युद्ध के बाद कई गुना बढ़ातस्वीर: Terry Moore/StockTrek Images/imago images

नियति तय करता निर्यात

जर्मनी के आर्थिक मामलों के मंत्री रॉबर्ट हाबेक ने सप्ताहिक अखबार डी त्साइट से कहा, "निर्यात ने हमारे लिए संपत्ति अर्जित करने का काम किया. लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था की कमजोरी का अन्य देशों के मुकाबले जर्मनी में ज्यादा तगड़ा असर पड़ता है."

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, आईएमएफ के मुताबिक 2023 में दुनिया की एक ही बड़ी अर्थव्यवस्था सिकुड़ेगी और वो है जर्मनी. 25 अगस्त को अप्रैल से जून के तिमाही आंकड़े सामने आए. इन आंकड़ों का निचोड़ कहता है कि जर्मनी की विकास दर शून्य फीसदी है.

जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्त्स (बीच में) आर्थिक मामलों के मंत्री हाबेक (बाएं) लिंडनर (दाएं)
जर्मनी के चांसलर ओलाफ शॉल्त्स (बीच में) आर्थिक मामलों के मंत्री हाबेक (बाएं) लिंडनर (दाएं)तस्वीर: Odd Andersen/AFP/Getty Images

ज्यादा जोगी मठ उजाड़

इन सारे तथ्यों से जर्मनी की गठबंधन सरकार वाकिफ है. लेकिन सरकार, परस्पर विरोधी किस्म के मूल्यों वाली तीन पार्टियों से मिलकर बनी है. अहम मुद्दों पर इतनी बहस हो रही है कि एक कदम आगे और फिर एक कदम पीछे जाने जैसे नजारे आम हो चुके हैं. मसलन पर्यावरण मुद्दों की पैरोकार, ग्रीन पार्टी के नेता रॉबर्ट हाबेक, आर्थिक मामलों के मंत्री हैं. वहीं उदारवादी तरीके से कारोबारी हितों को तरजीह देने वाली एफडीपी पार्टी के नेता क्रिस्टियान लिंडनर वित्त मंत्री हैं.

जर्मनी में ज्यादातर लोग 'ग्रीन' अर्थव्यवस्था के हक में

हाबेक चाहते हैं कि बहुत ज्यादा ऊर्जा खर्च करने वाले जर्मन उद्योगों के लिए 2030 तक बिजली के दाम, तय सीमा के भीतर रखें जाएं. उन्हें लगता है कि जर्मनी का केमिकल उद्योग इसी तरह वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना कर सकेगा. वहीं लिंडनर सीधे तौर पर सब्सिडी देने के खिलाफ हैं. चांसलर ओलाफ शॉल्त्स भी लिंडनर जैसी राय रखते हैं. लेकिन उनकी पार्टी, एसपीडी के कई नेता हाबेक के प्लान का समर्थन करते हैं.

लिंडनर, बिजनेस सेक्टर के लिए टैक्स में कटौती चाह रहे थे. यह रकम करीब छह अरब यूरो के आस-पास आती. सरकार इसे अमल में लाना चाहती थी, लेकिन अगस्त मध्य में ग्रीन पार्टी के एक मंत्री ने इसे प्लान को ब्लॉक कर दिया.

निर्यात में भी कई देशों से मिल रही है जर्मनी को चुनौती
निर्यात में भी कई देशों से मिल रही है जर्मनी को चुनौतीतस्वीर: Gregor Fischer/Getty Images

धीमे सिस्टम के सामने नई दिशा खोजने की चुनौती

ब्रिटिश पत्रिका दी इकोनॉमिस्ट ने जर्मनी के सूरते हाल को अपनी कवर स्टोरी बनाते हुए अगस्त के एक संस्करण में लिखा, "क्या जर्मनी फिर से यूरोप का बीमार शख्स बन चुका है?"

कुछ विशेषज्ञ हालात को इतना बुरा भी नहीं मानते. जर्मन अर्थशास्त्री और इफो इंस्टीट्यूट के प्रमुख क्लेमेंस फॉएस्ट के मुताबिक, "जर्मनी उस पुरुष की तरह है जिसकी उम्र 40 से 50 के बीच है, वह लंबे समय तक सफल रहा, लेकिन अब उन्हें पेशेवर रूप से नई दिशा खोजनी होगी."

प्रशासन की कछुआ चाल से परेशान जर्मन कारोबारी