भारत: क्या है ‘परिसीमन’ जिसे लेकर हो रहा है विवाद
१८ नवम्बर २०२४भारत के लिए अगली जनगणना कितनी जरूरी है, इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बिना जरूरी आंकड़ों के संसद और विधानसभाओं की सीटों की संख्या के बंटवारे को लेकर चिंता पैदा हो गई है. भारत में लोकसभा और विधानसभा की सीटों का बंटवारा निर्वाचन क्षेत्र के आधार पर किया जाता है.
निर्वाचन क्षेत्र ऐसे इलाके को कहा जाता है, जहां सांसद या विधायक का चुनाव होता है. परिसीमन के जरिए यह तय किया जाता है कि किस इलाके को निर्वाचन क्षेत्र बनाया जाएगा. इसके लिए जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल किया जाता है.
परिसीमन की जरूरत क्यों है
भारत के सभी राज्यों और केंद्र प्रशासित प्रदेशों के पास संसद में सीटें हैं. लेकिन किस राज्य को कितनी सीटें मिलेंगी, इसका फैसला परिसीमन के आधार पर किया जाता है. परिसीमन की जिम्मेदारी परिसीमन आयोग को दी जाती है. इसका गठन संसद में बकायदा कानून बनाकर केंद्र सरकार द्वारा किया जाता है. परिसीमन आयोग जनगणना के आंकड़ों के आधार पर एक रिपोर्ट तैयार करता है, जिसकी मदद से संसद के लिए जरूरी सीटों का बंटवारा किया जाता है.
दिल्ली स्थित विधि सेंटर फॉर लीगल पॉलिसी में सीनियर रेजिडेंट फेलो ऋत्विका शर्मा कहती हैं, "भारत के संविधान में ऐसी व्यवस्था की गई है कि हर राज्य को उसकी जनसंख्या के अनुपात में विधायिका में सीटें मिलें. इसका मकसद लोकतंत्र के उस बुनियादी सिद्धांत को सुनिश्चित करना है जिसके तहत प्रत्येक व्यक्ति के वोट की कीमत एक समान हो.”
भारत में जाति आधारित जनगणना की कितनी जरूरत?
भारतीय शहरों और कस्बों में लोगों के जीवन की गुणवत्ता के सुधार पर सरकार के साथ मिलकर काम करने वाली बेंगलुरू स्थित गैर-लाभकारी संस्था जनाग्रह के सीईओ श्रीकांत विश्वनाथन मानते हैं कि बिना नई जनगणना के परिसीमन के लिए जरूरी आंकड़े नहीं जुटाए जा सकते हैं.
डीडब्ल्यू से बात करते हुए उन्होंने कहा, "पिछला परिसीमन 1971 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर किया गया था, तब देश की जनसंख्या कुछ और थी और 2024 में जनसंख्या बदल चुकी है. इतनी बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करने के लिए हमें जल्द से जल्द कुछ सुधार करने होंगे या परिसीमन के जरिए जरूरी आंकड़े जुटाने होंगे.”
क्या है दक्षिण भारत की चिंता
दक्षिण भारतीय राज्यों को यह शिकायत है कि अगर जनसंख्या के पुराने आंकड़ों के आधार पर परिसीमन किया गया तो ज्यादा आबादी वाले राज्यों को बड़ी संख्या में सीटें मिल जाएंगी और कम जनसंख्या वाले प्रदेशों की सीटें घट जाएंगी.
बीते दिनों आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन. चंद्रबाबू नायडू ने राज्य की घटती प्रजनन दर को लेकर चिंता जाहिर की थी और लोगों से ज्यादा बच्चे पैदा करने की बात कही थी. एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा, "हम ज्यादा बच्चों वाले परिवारों को प्रोत्साहन देने और दंपतियों को ज्यादा बच्चे पैदा करने के लिए प्रोत्साहित करने के बारे में सोच रहे हैं.”
भारत के दक्षिणी इलाकों जैसे- केरल, तमिलनाडु या आंध्र प्रदेश की आबादी उत्तर के राज्यों की तुलना में कम है और उन्हें डर है कि अगले परिसीमन में उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है.
ऋत्विका शर्मा बताती हैं कि 1970 के दशक से लोकसभा की सीटों की संख्या नहीं बदली है. इसका कारण बताते हुए वो कहती हैं, "1976 में संविधान में 42वें संशोधन के जरिए अगला परिसीमन 2001 तक की जनगणना के लिए रोक दिया गया था. इसका मकसद उन राज्यों की चिंताओं को दूर करना था जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण में अहम भूमिका निभाई थी.”
एक सांसद पर कितना बोझ
भारत में ज्यादा आबादी की वजह से एक सांसद पर बहुत बड़ी जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने का दबाव होता है. 2001 से अब तक देश में जनसंख्या के स्तर पर भारी लेकिन असमान बदलाव आया है. मौजूदा संसद में सीटों का बंटवारा 40 साल से भी पहले के आंकड़ों पर हुआ है. इससे दो मुख्य समस्याएं पैदा हो सकती हैं:
पहली तो यह कि दक्षिण भारत की तुलना में उत्तर भारत में जनसंख्या तेजी से बढ़ी है. इस वजह से उत्तर भारत के एक सांसद पर लाखों की आबादी की जिम्मेदारी होती है. भारत में एक सांसद औसतन 25 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो अमेरिका के एक सांसद की तुलना में तीन गुना ज्यादा है.
दूसरी समस्या, पिछले कुछ सालों में तेजी से बढ़ा शहरीकरण और प्रवास है. इस वजह से राज्य के भीतर शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की जनसंख्या में व्यापक असमानताएं पैदा हुई हैं. ज्यादा आबादी वाले शहरी क्षेत्रों में ज्यादा सीटों और निर्वाचन क्षेत्रों के समान बंटवारे के बिना उन क्षेत्रों के मतदाताओं की ग्रामीण क्षेत्रों के मतदाताओं की तुलना में चुनावों में कम भूमिका होगी.
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श्रीकांत विश्वनाथन भी इससे सहमति जताते हैं और कहते हैं कि शहरीकरण एक दशक में बहुत तेजी से बढ़ा है और उनकी आबादी की तुलना में उन्हें प्रतिनिधित्व नहीं मिलने पर उनका ही नुकसान हो रहा है. इस असमानता को उनकी संस्था द्वारा प्रकाशित भारत की शहरी प्रणाली की वार्षिक सर्वेक्षण रिपोर्ट (एसिक्स) में देखा जा सकता है.
ऋत्विका शर्मा कहती हैं, "अगर वर्तमान जनसंख्या स्तर को संसद में सीटों के बंटवारे के लिए इस्तेमाल किया जाता है और लोकसभा में सीटों की संख्या नहीं बढ़ायी जाती है तो दक्षिण के कई राज्यों को मिलाकर 30 सीटें कम हो सकती हैं जबकि उत्तर भारत के कई राज्यों की इतनी ही सीटें बढ़ सकती हैं.”
परिसीमन आयोग कैसे काम करता है
परिसीमन आयोग चुनाव आयोग के साथ मिलकर अपनी जरूरत के हिसाब से आंकड़े इकट्ठा करता है. आयोग में सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश, मुख्य चुनाव आयुक्त और संबंधित राज्य के चुनाव आयुक्त शामिल रहते हैं. आयोग का काम सभी निर्वाचन क्षेत्रों की जनसंख्या को लगभग बराबर करने के लिए उनकी संख्या और सीमाओं का निर्धारण करना है.
परिसीमन आयोग की शक्तियों का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसकी रिपोर्ट के खिलाफ किसी भी अदालत में अपील नहीं की जा सकती है. एक बार जब ये अपनी रिपोर्ट दे देता है तो उसके बाद इसे भंग कर दिया जाता है और अगली जनगणना या जरूरत के हिसाब से दोबारा इसका गठन किया जाता है.
कैसे मिलेगा समाधान
ऋत्विका शर्मा कहती हैं, "वित्तीय रूप से अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों जैसे कर्नाटक, महाराष्ट्र, तमिलनाडु जिन्होंने अपनी जनसंख्या को सफलतापूर्वक नियंत्रित करने में कामयाबी हासिल की है, उन्होंने अपने योगदान के अनुरूप वित्तीय आवंटन न मिलने पर दुःख जताया है. अगर जनसंख्या को सफलतापूर्वक नियंत्रित करने के कारण संसद में उनकी सीटें कम होती हैं तो ऐसे राज्यों में अविश्वास की भावना बढ़ सकती है.”
2019 में छपे एक लेख (इंडियाज इमर्जिंग क्राइसिस ऑफ रिप्रेंजेटेशन) के अनुसार 2026 में अगर जनसंख्या के अनुमान के आधार पर परिसीमन किया गया तो अकेले बिहार और उत्तर प्रदेश की 21 सीटें बढ़ जाएंगी जबकि केरल और तमिलनाडु में 16 सीटें घट जाएंगी. लेख में इस समस्या से निपटने के लिए सबसे पहला समाधान मौजूदा सीटों की संख्या को दोबारा आवंटित करने की बजाए सदन के आकार का विस्तार करना बताया गया है.
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2026 की अनुमानित जनसंख्या के आधार पर जब सीटों के बंटवारे की बात की जाए तो अगर कोई राज्य एक सीट भी नहीं गंवाता है तो लोकसभा में सीटों की संख्या बढ़कर 848 हो जानी चाहिए. अगर ऐसा हुआ तो भारत की लोकसभा सीटों की संख्या के मामले में दुनिया का सबसे बड़ा सदन बन जाएगा.
इस प्रस्ताव के तहत उत्तर प्रदेश की लोकसभा सीटें 80 से बढ़कर 143 पहुंच जाएगी जबकि केरल की सीटों में कोई बदलाव नहीं आएगा. दक्षिण के राज्यों का मानना है कि अगर ऐसा होगा तो उत्तर भारत में सीटों की संख्या बढ़ने से उन राज्यों में राजनीति करने वाली पार्टियों को फायदा होगा और ऐसी जगहों से ज्यादा सीटें जीतकर उनके लिए सरकार बनाना आसान हो जाएगा. दक्षिण के राज्यों ने 15वें वित्त आयोग द्वारा अपनी सिफारिशों के लिए 2011 की जनगणना के आंकड़ों का इस्तेमाल करने पर भी सवाल उठाए थे. हालांकि इससे पहले की सिफारिशें 1971 की जनगणना को आधार बनाकर की जा रही थीं.
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श्रीकांत विश्वानथन भी सलाह देते हैं कि अगर 2031 के बाद लोकसभा की सीटों का परिसीमन किया जाता है तो मौजूदा स्थिति से निपटने के लिए संसद में सीटों की कुल संख्या बढ़ाने पर विचार किया जा सकता है ताकि किसी राज्य को अपनी मौजूदा सीटें न खोनी पड़ें. श्रीकांत यह भी कहते हैं कि मौजूदा नई संसद के निचले सदन में सदस्यों के बैठने के लिए कुल 888 सीटें लगाई गई हैं जिससे ऐसी उम्मीद है कि आने वाले समय में मौजूदा सांसदों की संख्या बढ़ाकर सभी राज्यों को बराबर प्रतिनिधित्व दिया जाएगा.