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समाज

74 आजाद सालों का हासिल क्या काफी है?

अविनाश द्विवेदी
१५ अगस्त २०२१

भारत की स्वतंत्रता की 74वीं सालगिरह पर केंद्र सरकार की ओर से लगातार भारत में सुख और संपन्नता की तस्वीर पेश की जा रही है लेकिन देश अभी भी गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई के चंगुल से पूरी तरह बाहर नहीं निकला है.

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तस्वीर: Naveen Sharma/SOPA Images/LightRocket/Getty Images

भारत की स्वतंत्रता की 74वीं सालगिरह पर केंद्र सरकार ने 'आजादी का अमृत महोत्सव' अभियान शुरू किया है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस बारे में एक कार्यक्रम में कहा, "आजादी की 75वीं सालगिरह ऐसी होगी जिसमें सनातन भारत के गौरव की झलक भी हो और आधुनिक भारत की चमक भी हो."

इस मौके पर सरकार की ओर से लगातार भारत में सुख-संपन्नता और ऐश्वर्य की तस्वीर पेश की जा रही है लेकिन फिलहाल यह देश गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई के अद्वितीय स्तर का सामना कर रहा है. यहां लोकतंत्र, प्रेस की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार और अर्थव्यवस्था सभी जबरदस्त दबाव का सामना कर रहे हैं.

तस्वीरों मेंः ऐसे मना स्वतंत्रता दिवस

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (CSDS) में प्रोफेसर अभय कुमार दुबे कहते हैं, "भारतीय लोकतंत्र का विकास तीन चरणों में हुआ है. पहले चरण में यानि इंदिरा गांधी के दौर तक लोगों को सिर्फ वोट का अधिकार था, राजनीति में उनकी सक्रिय भागीदारी नहीं थी. दूसरे चरण में राजनीति के विकेंद्रीकरण और आरक्षण आदि के जरिए उसका आधार विकसित हुआ. तीसरे चरण में आशा थी कि उसकी गुणवत्ता भी अच्छी होगी लेकिन ऐसा हुआ नहीं बल्कि पिछले 17 सालों में यह और खराब हुई है. यह भारतीय लोकतंत्र का विशिष्ट अंतर्विरोध है."

इस लेख में हमने वर्तमान भारत को 7 पैमानों पर मापकर जानने की कोशिश की है कि क्या आजाद भारत ने 74 सालों में जो हासिल किया, वह पर्याप्त है.

समावेशी नहीं बन सकी राजनीति

अब तक भारत में राजनीति समावेशी नहीं बन सकी है. भारत की जनसंख्या में करीब 14 फीसदी हिस्सा रखने वाले मुस्लिम वर्तमान लोकसभा में मात्र 4.7 फीसदी हैं. वहीं पहली लोकसभा में जहां महिला सदस्य 4.4 फीसदी थीं. तब से यह आंकड़ा बढ़कर मात्र 11.8 फीसदी हुआ है. इसी तरह 1952 में राज्यसभा में महिला सदस्य 7.5 फीसदी थीं, जो 2021 तक बढ़कर सिर्फ 11.6 फीसदी हो सकी हैं.

यूं तो भारत में कई महिलाएं बड़े राजनीतिक पद संभाल चुकी हैं लेकिन लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने वाला महिला आरक्षण बिल साल 2010 में राज्यसभा में पास होने के बाद से ही लटका हुआ है. जाहिर सी बात है 74 सालों में आधी आबादी को देश के लिए नीति निर्माण प्रक्रिया में शामिल करने में भारत बुरी तरह से फेल रहा है. अपराधियों का नेता बन जाना भी यहां आम रहा है. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स की एक रिपोर्ट के मुताबिक वर्तमान लोकसभा सदस्यों में से 43% पर आपराधिक मामले दर्ज हैं.

नागरिक स्वतंत्रता पर बड़ा खतरा

फ्रीडम इन द वर्ल्ड 2021 रिपोर्ट में भारत की राजनीतिक स्थिति को 'आंशिक रूप से स्वतंत्र' बताया गया है. भारत की स्थिति में गिरावट की वजह मीडिया की स्वतंत्रता में कमी, संकीर्ण हिंदूवादी हितों का उभार, इंटरनेट स्वतंत्रता में गिरावट, वायरस के विरुद्ध समुदाय विशेष को निशाना बनाया जाना, प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई और धर्म परिवर्तन के नए कानूनों को बताया गया है. पेगासस के जरिए समाज के प्रमुख लोगों की जासूसी कराने का आरोप भी नागरिक स्वतंत्रता की खराब स्थिति दिखाता है.

तस्वीरों मेंः मीडिया के हमलावरों में मोदी भी

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नाम का एक फ्रेंच एनजीओ 'वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स' जारी करता है. इस लिस्ट में साल 2021 में भारत को 180 देशों की लिस्ट में 142वें स्थान पर रखा गया है. मीडिया को नियंत्रित करने के लिए सरकारी एजेंसियों का इस्तेमाल, मानहानि, देशद्रोह और अवमानना जैसे साधनों का इस्तेमाल इस खराब रैंकिंग की वजह है. जानकार कहते हैं कि पत्रकारों के अलावा सामाजिक कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी देशद्रोह के कानून का खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा है. इससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय लोकतंत्र की छवि लगातार खराब हो रही है.

न्यायपालिका की बिगड़ती स्थिति

मुंबई हाईकोर्ट के जज बीएच लोया की संदिग्ध मौत ने भारत में न्यायपालिका की छवि को खराब किया था. भारत में सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों की ओर से साल 2018 में एक ऐतिहासिक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाकर भी इस मामले पर सवाल उठाए गए थे. मुख्य न्यायाधीश रहे रंजन गोगोई को कार्यकाल समाप्त होते ही राज्यसभा का सदस्य बनाए जाने के बाद एक बार फिर भारत में न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर गंभीर सवाल उठे थे. हाल ही में सामाजिक कार्यकर्ता स्टैन स्वामी की मौत के मामले ने एक बार फिर न्यायपालिका पर सवाल खड़े किए.

अभय कुमार दुबे के मुताबिक न्यायपालिका में आई गड़बड़ी के लिए भी सरकार ही जिम्मेदार है. वह कहते हैं, "लोकतंत्र के तीन अंग हैं, कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका. राजनीतिक सत्ता विधायिका और न्यायपालिका के पास नहीं होती सिर्फ कार्यपालिका के पास होती है. फिलहाल कार्यपालिका बहुत ज्यादा शक्तिशाली हो गई है. न्यायपालिका की गड़बड़ी के लिए भी वही जिम्मेदार है. ये गड़बड़ियां दूर करनी हैं तो कार्यपालिका को संयमित रखना होगा."

मजबूत विपक्ष की कमी

भारत की हिंदूवादी पार्टी बीजेपी पर राज्यों में सरकार बनाने के लिए विपक्षी विधायकों को खरीदने के कई आरोप लगे हैं. इसे लेकर अक्सर सोशल मीडिया पर पार्टी के पूर्व अध्यक्ष अमित शाह का मजाक भी उड़ाया जाता है. भारत के मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के कई बड़े नेता बीजेपी में शामिल हो चुके हैं और किसी राज्य में चुनाव से पहले वहां की मुख्य विपक्षी पार्टी के नेताओं का पाला बदल कर बीजेपी में शामिल हो जाना अब आम बात हो चली है.

देखेंः कब-कब कहा सरकार ने, आंकड़े नहीं हैं

एक ओर जहां सत्ताधारी बीजेपी पर सरकारी संस्थाओं के जरिए विपक्षी नेताओं पर शिकंजा कसने का आरोप लगाया जाता है, वहीं विपक्षी दल भी ऐतिहासिक रूप से कमजोर हुए हैं. भारत के ज्यादातर बड़े राज्यों में फिलहाल बीजेपी सरकार है. कुछ राज्यों में क्षेत्रीय पार्टियां सत्ता में हैं लेकिन वे अभी बीजेपी का राष्ट्रीय विकल्प नहीं मानी जा सकतीं. यही वजह है कि भारत में पिछले दिनों हुए ज्यादातर आंदोलन नागरिकों ने किए हैं. राजनीतिक दलों की ओर से पिछले कई सालों से कोई उल्लेखनीय आंदोलन नहीं हो सका है. प्रोफेसर अभय कुमार दुबे कहते हैं, "इसमें सरकार की भूमिका भी है. मीडिया जैसे उपकरणों का प्रयोग कर वह विपक्ष को अवैध बना देती है."

कानून के शासन में कमियां

जानकारों के मुताबिक आजादी के दौर से इस मोर्चे पर परिस्थितियां ज्यादा नहीं बदली हैं. आजादी से तुरंत पहले भारत ने बंगाल में जबरदस्त राजनीतिक हिंसा का दौर देखा था. पश्चिम बंगाल में हाल ही में समाप्त हुए विधानसभा चुनावों के बाद भी हिंसा का जबरदस्त दौर दिखा. भारत के राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC) ने इस दौरान हुए 'हत्या और बलात्कार जैसे जघन्य अपराधों' की सीबीआई जांच की सिफारिश की है.

भारत में मुस्लिमों के खिलाफ हिंसा के ऐसे दर्जनों मामले गिनाए जा सकते हैं, जिसमें आरोपियों को छोड़ दिया गया है. हाल ही में सामाजिक न्याय और अधिकारिता के राज्य मंत्री रामदास अठावले ने राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में कहा कि 2019 में एक साल पहले के मुकाबले अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लोगों के खिलाफ हिंसा के मामलों में 11.5 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है और इन मामलों में आरोपियों के सजा पाने की दर भी कम बनी हुई है. यही हाल गरीबों का भी है. खुद सुप्रीम कोर्ट भी ऐसी स्वीकारोक्ति कर चुका है कि गरीबों और अमीरों के लिए न्याय प्रणाली अलग-अलग तरीके से काम करती है.

भेदभाव के मारे नागरिक, कैसे निभाएं कर्तव्य

जानकार कहते हैं कि नागरिक कहते ही लगता है कि जैसे भारत में सभी नागरिक सामान्य हैं लेकिन ऐसा नहीं है. ऐसे में कौन राज्य के संसाधनों का अच्छी तरह फायदा उठा सकता है और कौन कर्तव्य निभा सकता है, यह उनकी परिस्थिति पर निर्भर करता है. इसके लिए अभय कुमार दुबे उदाहरण देते हैं अन्य पिछड़ी जातियों (OBC) का. वह कहते हैं, "आर्थिक रूप से मजबूत ओबीसी जातियां इसमें आगे रहती हैं और किसानी का काम करने वाली ओबीसी जातियां पिछड़ जाती हैं जबकि दोनों का हिस्सा समुदाय में करीब आधा-आधा है."

तस्वीरों मेंः गुलामी के भंवर में लोग

उनके मुताबिक इसके लिए भी सरकार ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार है क्योंकि वह देश की सबसे बड़ी एजेंसी है. गलत नीतियों के चलते ही सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और अन्य संसाधनों के मामले में नागरिकों के बीच खाई खतरनाक स्तर पर पहुंच चुकी है. इन सबके बावजूद सरकार चुनाव जीतने की टेक्नोलॉजी इस तरह विकसित कर चुकी है कि वह इन कारकों का इस्तेमाल भी अपने उद्देश्य के लिए कर लेती है.

समाज में सहिष्णुता और सहयोग मौजूद

भारत में नागरिक समुदायों के बीच सहिष्णुता, सहयोग और समझौते की भावना लंबे समय से चर्चा का विषय बनी हुई है. देश में आए दिन ऐसे वीडियो सामने आते हैं, जिनमें मुस्लिम समुदाय से आने वाले लोगों से 'जय श्री राम' जैसे धार्मिक नारे लगवाने और हिंसा करने की घटनाएं दर्ज होती हैं. जानकार कहते हैं कि चुनावों के बीच की राजनीति इसके लिए जिम्मेदार होती है. भारत में अब समुदायों के बीच नफरत को राजनीतिक गोलबंदी का तरीका बना लिया गया है.

अभय कुमार दुबे कहते हैं, "समाज का इससे कोई लेना-देना नहीं है. यह सामाजिक असामाजिक तत्वों का काम है. यह नारे लगवाने वाले राजनीतिक महत्वाकांक्षा वाले कट्टरपंथी तत्व हैं. अगर सामाजिक बदलाव आ गया होता और पूरे देश में कट्टरपंथ की लहर चल गई होती तो यह घटनाएं पश्चिम बंगाल और अन्य गैर-बीजेपी शासित राज्यों में भी हो रही होतीं. दरअसल अभी ये सिर्फ इसलिए हो रही हैं क्योंकि इन्हें अंजाम देने वाले जानते हैं कि वे जिस राज्य में हैं, वहां वे पुलिस और न्यायपालिका की कार्रवाई से बच जाएंगे."

धारा 370 हटने के दो साल बाद कश्मीर

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