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मंदिर की जमीन पर आईआईटी बनाना सही होगा?

१८ नवम्बर २०१६

गोवा में आईआईटी का नया कैंपस बनना है. लेकिन गांव वाले जमीन देने से इनकार कर रहे हैं क्योंकि पवित्र जमीन है. विकास और परंपरा बीच जंग जारी है.

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तस्वीर: picture-alliance/AP Photo

दक्षिणी गोवा के लोलिएम गांव में टीचर मीना वारिक के लिए भगवती मोल नाम की उस जगह का मतलब एक सार्वजनिक जगह है. एक ऐसी जगह जहां गांव के मवेशी चराये जा सकते हैं, धार्मिक आयोजन हो सकते हैं और वन्य जीव खुशी खुशी रहते हैं. लेकिन राज्य सरकार की चली तो यहां नया आईआईटी बनेगा, सैकड़ों स्टूडेंट हॉस्टलों में रहेंगे और आधुनिक लैब्स में रिसर्च करेंगे. पर वारिक ऐसा नहीं चाहतीं. वह कहती हैं, "हम विकास के विरोधी नहीं हैं लेकिन यह जमीन हमारे लिए पवित्र है और हमारे जीवन का हिस्सा है." वारिक कहती हैं कि इस जमीन पर गांव का हक है और हमारी सहमति के बिना इसे लेने का हक किसी को नहीं है.

गोवा की 70 फीसदी जमीन पर मालिकाना हक 200 से कुछ ज्यादा सामुदायिक सभाओं का है. ये सभाएं सदियों पुरानी पारंपरिक संहिता पर चलती हैं. हालांकि बरसों से इनकी जमीनों को सड़कों, खदानों, उद्योगों या होटल आदि बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है. बहुत बार विवाद भी हुआ है. इस सभाओं की असोसिएशन के सचिव और एक पेशेवर वकील आंद्रे एंटोनियो परेरा कहते हैं, "ये सामुदायिक जमीनें हैं जिनका इस्तेमाल पूरे गांव की भलाई के लिए होता रहा है. किसी एक व्यक्ति या किसी एक संस्था के लिए नहीं. लेकिन एक एक करके हम विकास के नाम पर इन जमीनों को खोते जा रहे हैं. अगर हम इनकी सुरक्षा नहीं करेंगे तो अपने इतिहास के एक हिस्से को को बैठेंगे."

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मुंबई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज ने एक रिसर्च की है जिसमें पता चला है कि भारत में जमीन को लेकर जितने भी विवाद हैं उनमें से ज्यादातर सार्जवनिक भूमि को लेकर हैं. एक अन्य स्टडी राइट्स एंड रिसॉर्सेज इनिशिएटिव ने की है जो बताती है कि जनवरी 2000 से लेकर अक्टूबर 2016 के बीच 40 हजार योजनाओं का ऐलान हुआ जिनमें से 14 फीसदी भूमि विवादों के कारण अटक गईं.

सार्वजनिक जमीन अक्सर किसी समुदाय के सामाजिक और आर्थिक विकास का आधार होती है. मसलन गोवा में ऐसी जमीनों का इस्तेमाल खेती से लेकर मछली पालने, जानवर चराने और नमक बनाने के लिए किया जाता है.

भारत में ऐसे कानून मौजूद हैं जो जमीन पर आदिवासियों के हक की रक्षा करते हैं. जैसे 2006 का वन अधिकार कानून और 1996 का आदिवासी क्षेत्र अधिनियम इसी मकसद से बनाया गया था. लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये कानून या तो नरम कर दिए जाते हैं या फिर इन्हें इतनी खराब तरीके से लागू किया जाता है कि इनका होना न होना एक जैसा हो जाता है.

एक दिक्कत यह है कि इस तरह की जमीनों का कोई आधिकारिक दस्तावेज नहीं होता. भारत में अभी जमीनों का रिकॉर्ड डिजिटल रूप में दर्ज करने का अभियान चल रहा है लेकिन विशाल देश के लिए यह बहुत बड़ा काम है. इस बीच गोवा सरकार और मीना वारिक के गांव के लोग आमने सामने हैं. ठीक वैसे ही जैसे उत्तरी गोवा में नए एयरपोर्ट के लिए या दक्षिण गोवा में नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलजी के लिए जमीनों को लेकर ग्रामीण और सरकार झगड़ रहे हैं.

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केंद्र सरकार ने गोवा में नए आईआईटी संस्थान को दो साल पहले ही मंजूरी दे दी थी. इस साल इस संस्थान ने एक अस्थायी कैंपस से काम करना भी शुरू कर दिया है. तकनीकी शिक्षा निदेशालय के निदेशक विवेक कामत कहते हैं कि लोलिएम में आईआईटी कैंपस बनाने का फैसला ग्रामीणों से सलाह के बाद लिया गया था और अब वे जमीन देने से इनकार करते हैं तो फिर सोचना होगा. उधर गांव वालों का कहना है कि उन्हें इस प्रोजेक्ट के बारे में कुछ ही महीने पहले पता चला और तब से वे अधिकारियों को लगातार चिट्ठियां लिखकर विरोध जता रहे हैं. उनका कहना है कि अगर सामुदायिक सभा के लोगों ने इस योजना के लिए हामी भरी भी तो गांव वालों से बात किए बिना ऐसा किया.

हालांकि गांव के सरपंच भूषण पडगांवकर कहते हैं कि आईआईटी एक सम्मानजनक संस्थान हैं, कोई प्रदूषक फैक्ट्री नहीं, इसलिए इसका आना तो गांव के भविष्य के लिए अच्छा होगा. लेकिन बहुत सारे ग्रामीण इसमें ज्यादा फायदा नहीं देख रहे हैं. उन्हें लगता है कि गांव के लिए तो बराबर पानी है नहीं, इतने बड़े संस्थान के लिए कहां से आएगा. पर्यावरणविदों का भी कहना है कि यह इलाका संवेदनशील है और नदी की जिस धारा पर गांव का जीवन निर्भर है, वह इसी इलाके की वजह से जिंदा है.

वीके/ओएसजे (रॉयटर्स)