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क्या है बोडोलैंड आंदोलन का पूरा मसला?

प्रभाकर मणि तिवारी
१७ फ़रवरी २०२०

असम के बोडो बहुल इलाके में अलग राज्य की मांग के चलते आंदोलन का इतिहास आठ दशक से भी पुराना है. जानिए क्या है बोडोलैंड आंदोलन का पूरा इतिहास.

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तस्वीर: picture-alliance/dpa

बीते महीने बोडो संगठनों के साथ हुए जिस समझौते को इतिहास बता कर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही थी वही इलाके के बोडो संगठनों के बीच मतभेद की वजह बन गया है. इससे 2003 में दूसरे बोडो समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले बोडो पीपुल्स फ्रंट (बीपीएफ) में नाराजगी है. वह असम की बीजेपी सरकार में भी शामिल है. वह 2003 से ही बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल (बीटीसी) पर राज कर रहा है और इसी साल अप्रैल में इसकी 40 सीटों पर चुनाव होने हैं.

ताजा समझौता उग्रवादी संगठनो एडीएफबी के तमाम गुटों के अलावा दो अन्य संगठनों के साथ किया गया है. लेकिन बीपीएफ का कहना है कि ताजा समझौते से सिर्फ बीटीसी का नाम बदल कर बोडोलैंड टेरीटोरियल रीजन (बीटीआर) हुआ है. वह इस समझौते को स्वीकार नहीं करेगा. समझौते के बाद विभिन्न संगठनों में आरोप-प्रत्यारोप का दौर भी तेज होने लगा है.

ताजा समझौता

केंद्र सरकार ने बोडो छात्र संघ (आब्सू) और उग्रवादी संगठन नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) के तमाम गुटों के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे. तब सरकार ने दावा किया था कि इससे निचले असम के बोडो बहुल इलाकों में विकास की एक नई सुबह की शुरुआत होगी. लेकिन इस समझौते के कुछ दिनों बाद ही आब्सू अध्यक्ष प्रमोद बोडो ने अपने पद से इस्तीफा देकर अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षा का संकेत दे दिया.

इससे पहले 2003 में हुए समझौते के बाद बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल (बीटीसी) का गठन किया गया था. उसके बाद इस पर बीटीसी का ही कब्जा रहा है. अब बीटीसी, जिसका नाम प्रस्तावित समझौते के तहत बदल कर बोडोलैंड टेरीटोरियल रीजन (बीटीआर) हो जाएगा, के चुनावों के लिए आब्सू और एनडीएफबी ने नई राजनीतिक पार्टी बनाने का भी संकेत दिया है. नए समझौते में नाम बदलने के अलावा बीटीआर की सीटें भी मौजूदा 40 से बढ़ा कर 60 करने का प्रावधान है. इनके लिए अप्रैल-मई में मतदान होना है.

समझौते की शर्तों के मुताबिक बीटीआर को पहले से ज्यादा अधिकार दिए जाएंगे. गृह विभाग को छोड़कर विधायी, प्रशासनिक और वित्तीय तमाम अधिकार बीटीआर के पास रहेंगे. इसके अलावा इलाके में कई नए जिलों का गठन किया जाएगा. केंद्र सरकार ने नए समझौते की शर्तों पर अमल करने के लिए अगले तीन वर्षों में बोडोलैंड के विकास के लिए 1,500 करोड़ रुपये के एक पैकेज को मंजूरी दी है.

2003 में केंद्र से समझौते के आधार पर बीटीसी का गठन होने के बाद उग्रवादी संगठन बोडो लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) के प्रमुख हाग्रामा मोहिलारी ने बोडोलैंड पीपुल्स फ्रंट नामक एक राजनीतिक पार्टी बना कर राजनीति में कदम रखा था. पहले कांग्रेस सरकार में शामिल रही बीपीएफ फिलहाल सर्बानांद सोनोवाल की अगुवाई वाली राज्य की बीजेपी सरकार में सहयोगी है.

अलग राज्य की मांग

असम के बोडो बहुल इलाके में अलग राज्य की मांग के चलते आंदोलन का इतिहास आठ दशक से भी पुराना है. उपेंद्रनाथ ब्रह्म की अगुवाई में अखिल बोडो छात्र संघ (आब्सू) ने दो मार्च 1987 को बोडोलैंड को अलग राज्य का दर्जा देने की मांग में जोरदार आंदोलन छेड़ा था. इसी दौरान उग्रवादी संगठन बोडो सिक्यूरिटी फोर्स के गठन के बाद आंदोलन हिंसक हो उठा.

यही संगठन आगे चल कर 1994 में नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) बन गया. एनडीएफबी और आब्सू के नेताओं के बीच टकराव भी उसी समय शुरू हुआ. ताकतवर बोडो छात्र संघ आब्सू के नेता भारतीय संविधान के तहत अलग राज्य की मांग कर रहे थे लेकिन एनडीएफबी भारत से अलग होकर बोडोलैंड नामक आजाद देश की मांग कर रहा था.

बोडो-बहुल इलाके के चार जिलों कोकराझार, चिरांग, बक्सा और उदालगुड़ी की आबादी में लगभग 30 फीसदी बोडो हैं. यही इलाके की सबसे बड़ी जनजाति है. असम सरकार ने 1993 में बोडोलैंड स्वायत्त परिषद के गठन के लिए आब्सू के साथ समझौता किया था. लेकिन यह प्रयोग नाकाम रहने के बाद आब्सू ने 1996 में नए सिरे से अलग राज्य की मांग में आंदोलन शुरू कर दिया.

उसी साल बोडोलैंड लिबरेशन टाइगर्स (बीएलटी) नामक उग्रवादी संगठन का भी उदय हुआ. लेकिन जल्दी ही यह संगठन एनडीएफबी का प्रतिद्वंद्वी बन गया. फरवरी 2003 में केंद्र ने बीएलटी के साथ बोडो समझौता किया. बीएलटी ने समझौते के बाद हथियार डाल दिए और बोडोलैंड टेरीटोरियल काउंसिल पर इसी संगठन का कब्जा हो गया. बाद में उसने बोडो पीपुल्स पार्टी नामक राजनीतिक पार्टी का गठन किया.

उभरते मतभेद

अब ताजा समझौते पर विभिन्न बोडो संगठनों के बीच मतभेद तेज होने लगे हैं. बीटीसी प्रमुख मोहिलारी कहते हैं, "हम नए समझौते को स्वीकार नहीं कर सकते.” वैसे मोहिलारी और आब्सू का रिश्ता हमेशा छत्तीस का ही रहा है. बीटीसी चुनाव में आब्सू हमेशा बीपीएफ के विरोध दलों के साथ करहा है.

आब्सू के पूर्व अध्यक्ष प्रमोद बोडो की आलोचना करते हुए मोहिलारी कहते हैं, "प्रमोद कहते थे कि वह कभी न तो राजनीति में आएंगे और न ही चुनाव लड़ेंगे. आब्सू में रहते हुए इतना बड़ा झूठ बोलने वाले प्रमोद सत्ता में आने के बाद और ज्यादा झूठ बोलेंगे.” दूसरी ओर प्रमोद बोडो ने यह कहते हुए पलटवार किया है कि मोहिलारी अब इलाके के लोगों का भरोसा खो चुके हैं. वह कहते हैं, "बोडो इलाके के लोग नेतृत्व में बदलाव के लिए बेचैन हैं.”

उधर राजनीतिक पर्यवेक्षकों को एक दूसरी ही आशंका परेशान कर रही है. इसकी वजह यह है कि नए समझौते में अलग बोडोलैंड राज्य के बारे में कोई जिक्र नहीं किया गया है. इलाके में हमेशा इसी मांग में हिंसक आंदोलन होते रहे हैं. ऐसे में लाख टके का सवाल यह है कि कहीं यह समझौता भी पहले के दो समझौतों की तरह बेअसर तो नहीं साबित होगा. राजनीतिक विश्लेषक डीके बसुमतारी कहते हैं, "इलाके का इतिहास रहा है कि एक गुट के समझौता करने के बाद दूसरा गुट अलग राज्य की मांग में आंदोलन शुरू कर देता है. कहीं अब की बार भी यह इतिहास तो नहीं दोहराया जाएगा?” फिलहाल इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है.

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