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समाज

ब्रिटेन: ढांचागत नस्लभेद को नकारने वाली रिपोर्ट की आलोचना

स्वाति बक्शी
२ अप्रैल २०२१

ब्रिटेन में नस्लीय और जातीय असमानता की जांच के लिए बने आयोग की ताजा रिपोर्ट ने घमासान मचा दिया है. रिपोर्ट में कहा गया है कि ब्रिटेन में संस्थागत नस्लभेद अब नहीं है.

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Großbritannien London Black Lives Matter Protest
तस्वीर: Thabo Jaiyesimi/SOPA Images/ZUMA Wire/picture alliance

रिपोर्ट में कहा गया है कि भले ही ब्रिटेन एक उत्तर-नस्लीय समाज नहीं बन पाया है लेकिन लोगों के जीवन में नस्लीय समूह की बजाय पारिवारिक ढांचे और सामाजिक वर्ग की भूमिका ज्यादा अहम है. अमरीका में एक काले व्यक्ति जॉर्ज फ्लाएड की मौत के बाद ब्रिटेन के भीतर उपजे तनाव और ‘ब्लैक लाइव्स मैटर' प्रदर्शनों के बाद ये कमीशन स्थापित किया गया था.

रिपोर्ट ने ब्रिटेन के भारतीय समुदाय समेत कुछ अन्य जातीय समूहों का उदाहरण देते हुए ये साबित करने की कोशिश की है नस्लवाद भले ही मौजूद है लेकिन वो ब्रिटिश जीवन में अब निर्णायक भूमिका में नहीं है. कमीशन के अध्यक्ष टोनी सिवेल ने अपनी प्रस्तावना में कहा है कि "सुबूत ये दिखाते हैं कि हमारा समाज एक खुला समाज है. पिछले पचास सालों में देश ने लंबा रास्ता तय किया है और यहां शिक्षा व कुछ हद तक आर्थिक क्षेत्र में अल्पसंख्यक समुदायों की तरक्की, बहुसंख्यक गोरी आबादी वाले मुल्कों के लिए एक आदर्श के तौर पर मानी जानी चाहिए.”

जातीय समुदायों के शैक्षणिक उपलब्धियों को आधार बनाकर नस्लीय भेदभाव को नकारने ब्रिटेन में सांस्थानिक नस्लभेद को नकारने वाली इस रिपोर्ट की कड़ी आलोचना हो रही है. नस्लीय समानता के लिए काम करने वाली तमाम संस्थाओं ने एक सुर में इसे समाज में दरार डालने वाली, राजनीतिक समीकरणों से प्रेरित रिपोर्ट करार दिया है. गैर-सरकारी संस्था रेस इक्वॉलिटी फाउंडेशन के प्रमुख जबीर बट ने बातचीत में कहा, "अगर इरादा नस्लभेद को नकारने का हो तो फिर अल्पसंख्यक समुदायों की सामाजिक असमानता के कारण उनके घर में ही ढूंढे जाएंगे. ये हमने पहले 1960-70 में देखा है जब कैरिबियाई पुरुषों और अपराधों के बीच संबंधों पर किए गए शोध अध्ययनों में नस्ल, पुलिस और कानून की भूमिका को देखने की बजाए, उनके घरों की सांस्कृतिक स्थितियों में कारण ढूंढे गए. हमने वहां से एक लंबा रास्ता तय किया है ये सामने लाने में कि यहां मसला मुख्य रूप से नस्ल का है लेकिन लगता हम वापिस वहीं जाकर खड़े हो गए हैं.”  

भारतीय समुदाय का जिक्र

समाज में होने वाले सभी प्रकार के भेद-भाव को नस्लभेद की नजर से ना देखने की अपील करती इस रिपोर्ट रेखांकित करती है कि नस्ल का मसला अब भेद-भाव, कड़वाहट और पूर्वाग्रहों के रूप में भले ही मौजूद है, सामाजिक ढांचे अब नस्लभेद पर आधारित नहीं हैं. हालांकि नस्लभेद की बजाय जातीय समुदायों के पारिवारिक, धार्मिक ढांचे और नजरिए को लोगों के जीवन की दिशा और दशा निर्धारित करने वाले कारक ठहराया गया है.

रिपोर्ट कहती है कि ब्रिटेन में शिक्षा के क्षेत्र में भारतीय, बांग्लादेशी, काले अफ्रीकी और चीनी लोगों की तरक्की की वजहों को समझने और उन्हें दोहराने की जरूरत है. इस बात का बार-बार जिक्र किया गया है कि ब्रिटिश भारतीय समुदाय के बच्चों का प्रदर्शन गोरे बच्चों के मुकाबले बेहतर है और ये इस बात का उदाहरण है कि समाज में मौजूद असमानता को समझने के लिए नस्ल के बजाय दूसरे सामाजिक कारणों की तरफ देखना चाहिए. भारतीय समुदाय समेत पाकिस्तानी और बांग्लादेशी परिवारों की आय और संपत्ति के आंकड़ों को भी उनकी बेहतर सामाजिक स्थिति के सुबूत के तौर पर पेश किया गया है.

ब्रिटेन में संस्थागत नस्लभेद को खारिज करने पर एक ब्रिटिश थिंक टैंक रनीमीड ट्रस्ट की मुख्य कार्यकारी हलीमा बेगम ने मीडिया से बातचीत में इस रिपोर्ट पर आपत्ति दर्ज कराते हुए कहा, "नस्लभेद को अनदेखा करती इस रिपोर्ट के जरिए गोरे और काले कामगार वर्ग के बीच जानबूझ कर दरार डालने की कोशिश की गई है.”

‘बेम' शब्द का इस्तेमाल खत्म करने की सिफारिश

रिपोर्ट की सबसे प्रमुख सिफारिशों में से है ब्रिटेन में काले और जातीय अल्पसंख्यकों के लिए इस्तेमाल होने वाले ‘बेम' यानी ब्लैक, एशियन ऐंड मायनॉरिटी एथनिक शब्द का इस्तेमाल खत्म करना. दलील ये दी गई है कि ये शब्द अब बेकार हो चुका है क्योंकि ये समुदायों की असल पहचान को बताने में नाकाम है. रिपोर्ट के मुताबिक "बेम शब्द सभी समुदायों को एक साथ बांधकर वो अर्थ देता है जो वो नहीं हैं बजाय वो बताने के जो वो दरअसल हैं जैसे ब्रिटिश भारतीय, ब्रिटिश कैरेबियन वगैरह. यह समुदायों के बीच मौजूद गहरे अंतर से जुड़े नतीजों को भी ढक लेता है."

यह सुझाव दिया गया है कि इस शब्द को इस्तेमाल को पूरी तरह से बंद कर दिया जाए और काले या गोरे लोगों को संबोधित करने के लिए ‘अल्पसंख्यक समूह', ‘जातीय समूह' या फिर ‘गोरे अल्पसंख्यक' का इस्तेमाल किया जाए. गौरतलब है कि आयोग ने ये भी कहा कि ‘गोरे' शब्द का इस्तेमाल भी एक समेकित लेबल के तौर पर इस्तेमाल करना कारगर नहीं हैं क्योंकि ये कई समूहों जैसे गोरे आयरिश, जिप्सी, रोमा और दूसरे पूर्वी यूरोपीय समूहों की सामाजिक विविधता पर पर्दा डाल देता है.

इन सब दलीलों और सुबूतों के मनमाने इस्तेमाल को राजनैतिक खेल बताते हुए जबीर बट कहते हैं, "ये एक नैरेटिव तय करने कि कोशिश है जिसके पीछे तैयारी है 2024 के चुनावों की. ब्रिटेन में ब्रिटिश जिंदगी की सकारात्मक तस्वीर खींचने पर जोर देकर ये सरकार उस हवा पर सवार होकर चुनाव जीतने की कोशिशों में लगी है. इसे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अल्पसंख्यकों की जिंदगी में सच क्या है."

गौरतलब है कि कुल 258 पन्नों की इस रिपोर्ट में आयोग ने शिक्षा, डिजिटल तकनीक, स्वास्थ्य और पुलिस सेवाओं में विश्वास, निष्पक्षता, और समावेश के जरिए असमानतओं को दूर करने के लिए 24 सुझाव रखे हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि जिस रिपोर्ट की शुरूआत ही ढांचागत नस्लभेद को नकारने से होती है वो खुद उसी ढांचे में विश्वास, निष्पक्षता और समावेश के उपाय सुझाने पर भरपूर स्याही खर्च करती है.