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समाज

स्कूल खुलने से पहले हजारों पर बच्चों का कोरोना टेस्ट

ईशा भाटिया सानन
२९ मई २०२०

जर्मनी में हजारों बच्चों पर टेस्ट कर पता लगाया जा रहा है कि कहीं वे चुपचाप कोरोना फैलाने का काम तो नहीं कर रहे हैं. स्कूलों के खुलने पर माता पिता को वायरस के मामले बढ़ने का डर भी सता रहा है.

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Symbolbilder Kinder mit Mundschutzmasken
तस्वीर: picture-alliance/abaca/A. Marechal

लॉकडाउन ने करोड़ों लोगों को घर में बैठने पर मजबूर किया. लेकिन फ्रंटलाइन वर्करों यानी डॉक्टर, नर्स, पुलिस इत्यादि का काम इस दौरान और बढ़ गया. भारत की ही तरह जर्मनी में भी स्कूल बंद हुए लेकिन फ्रंटलाइन वर्करों के बच्चों के लिए नहीं. ये बच्चे स्कूल, किंडरगार्टन और डे केयर जाते रहे. इस बीच इन पर अपने माता पिता से संक्रमित होने और उस संक्रमण को स्कूल में फैलाने का खतरा बना रहा. अब जब स्कूलों को पूरी तरह खोलने की बात चल रही है, तो आखिरकार यह बहस शुरू हो गई है कि क्या बच्चे वाकई सुरक्षित रहेंगे. स्कूलों को कब और कैसे खोलना है, जर्मनी में हर राज्य, हर शहर इसका फैसला खुद ले रहा है. ऐसे में कई शहरों में बच्चों को ले कर रिसर्च भी चल रहे हैं. 

जर्मनी के बॉन शहर के मेडिकल कॉलेज में पता लगाया जा रहा है कि बच्चों और टीचरों पर कोरोना का कितना खतरा है. पहले चरण में 80 बच्चों का टेस्ट किया गया है. रिसर्च करने वाले मार्टिन एक्सनर ने स्थानीय अखबार गेनराल अनसाइगर से बातचीत में कहा, "महामारी की शुरुआत में बच्चों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा था." उन्होंने बताया कि रिसर्च के केंद्र में यह सवाल है कि बच्चों का कोरोना वायरस फैलाने में कितना योगदान होता है. ऐसा मुमकिन है कि बच्चे वायरस से संक्रमित होते हों लेकिन उनमें लक्षण ना दिखते हों. ऐसे में वे दूसरों को और खास कर अध्यापकों को बीमार कर सकते हैं. मौजूदा शोध इस पर ठोस जानकारी देगा.

स्कूलों में सोशल डिस्टेंसिंग नामुमकिन

इसके अलावा स्कूल जितनी भी कोशिश कर लें लेकिन वहां सोशल डिस्टेंसिंग को लागू करना मुमकिन नहीं है. मार्टिन एक्सनर कहते हैं, "बच्चे करीब रहना चाहते हैं. साथ ही छोटे बच्चों से हर वक्त मास्क लगाने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती है." इस शोध के लिए एक से छह साल तक के बच्चों के स्वॉब टेस्ट किए जा रहे हैं. रिसर्चरों का कहना है कि वे यह देख कर हैरान थे कि बच्चे कितनी आसानी से इसके लिए तैयार हो गए. इस टेस्ट में नाक या गले में एक लंबा सा ईयर बड जैसा दिखने वाला स्वॉब डाल कर सैंपल लिया जाता है. व्यस्क भी इसे मुश्किल और दर्दनाक टेस्ट बताते हैं. जून और जुलाई में इन बच्चों और इनके अभिभावकों के और भी टेस्ट किए जाएंगे ताकि अगस्त में स्कूल खुलने से पहले नतीजे सामने आ सकें. जर्मनी में जुलाई में गर्मियों की छुट्टियां होती हैं और अगस्त में स्कूल खुलते हैं.

ऐसे फैलते हैं नए नए वायरस

इसी तरह ड्यूसलडॉर्फ में 5,000 बच्चों का टेस्ट करने का फैसला किया गया है. इन बच्चों की उम्र भी एक से छह साल के बीच होगी. लेकिन यहां स्वॉब टेस्ट का इस्तेमाल नहीं किया जाएगा, बल्कि बच्चों से एक बोतल में कुल्ला करने को कहा जाएगा और इसी सैंपल का टेस्ट किया जाएगा. वहीं बर्लिन में मशहूर शारीटे क्लीनिक के साथ मिल कर बच्चों के टेस्ट पर काम चल रहा है. यहां दस साल तक के बच्चों के सैंपल लिए जा रहे हैं. बच्चों के साथ साथ उनके माता या पिता में से किसी एक का टेस्ट भी किया जाएगा. कुल 10,000 लोगों के टेस्ट की योजना बनाई जा रही है. इनमें आधे बच्चे फ्रंटलाइन वर्करों के होंगे जिन्होंने कभी स्कूल जाना बंद नहीं किया था और आधे ऐसे जो लॉकडाउन के दौरान घर पर रहे. शोध में बच्चों के शरीर में बने एंटीबॉडी पर खास ध्यान दिया जाएगा. यह भी पता लगाने की कोशिश की जाएगी कि एक बार एंटीबॉडी बन जाने पर क्या बच्चे कोरोना वायरस से इम्यून हो गए हैं. हैम्बर्ग में इसी तरह 6,000 बच्चों पर टेस्ट किए जा रहे हैं.

इतने सारे रिसर्च की क्या जरूरत है?

जर्मनी में इस तरह का सबसे पहला रिसर्च हाइडलबर्ग यूनिवर्सिटी में हुआ. कुल 2,500 बच्चों और उनके माता पिता के टेस्ट किए गए. इनमें पॉजिटिव मामले ना के बरार थे. एक से दो फीसदी लोगों के शरीर में एंटीबॉडी मिले. इसका मतलब यह हुआ कि इन लोगों को संक्रमण हुआ था लेकिन शरीर खुद ही वायरस से निपटने में सक्षम रहा. इस रिसर्च के सामने आने के बाद देश भर में स्कूल खोलने की बात शुरू हो गई. कुछ जगह स्कूल खुले और संक्रमण के मामले भी सामने आने लगे.

ऐसे में सिर्फ एक रिसर्च पर निर्भर ना रह कर जगह जगह अलग अलग तरह की रिसर्च शुरू हुई. उम्मीद की जा रही है कि अगले दो महीनों में इन सब के नतीजों को मिला कर इनकी तुलना की जा सकेगी. वैज्ञानिक रूप से जब प्रयोगशाला में कोई रिसर्च की जाती है, तो उसके नतीजे प्रकाशित करने से पहले कई चरणों से गुजरते हैं. लेकिन कोरोना के मामले में स्वास्थ्य आपातकाल होने के चलते हर जानकारी जल्द से जल्द प्रकाशित हो रही है. जानकारों का मानना है कि इससे गलत नतीजों पर पहुंचने और इनके परिणामस्वरूप सरकारों द्वारा गलत फैसले लेने का खतरा बढ़ रहा है.

कोरोना वायरस 65 से ज्यादा उम्र वाले लोगों पर सबसे अधिक असर करता है. चीन में हुआ एक शोध दिखाता है कि 15 से 64 की उम्र के लोगों को जितना खतरा है, 14 साल तक के बच्चों को उससे तीन गुना कम खतरा होता है. इस वायरस की शुरुआत भले ही चीन से हुई थी लेकिन इस बीच दुनिया के 14 देशों में संक्रमित लोगों की संख्या चीन से ज्यादा हो चुकी है. ऐसे में देश चीन में हुए शोध पर अब बहुत ज्यादा भरोसा नहीं कर रहे हैं.

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