इसी साल 23 जून को, यानी सिर्फ 22 दिन पहले संयुक्त राष्ट्र ने चेतावनी दी थी कि तालिबान अफगानिस्तान के 370 जिलों में से 50 पर कब्जा कर चुका है.
अफगानिस्तान में संयुक्त राष्ट्र की विशेष दूत डेबरा ल्योन्स की यह चेतावनी एक हैरतअंगेज खबर की तरह आई थी क्योंकि तब चर्चाएं पश्चिमी सेनाओं के स्वदेश लौटने के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं और तालिबान की इस बढ़त पर किसी का ध्यान नहीं था.
फिर, पिछले हफ्ते अमेरिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई जिसमें कहा गया कि 30 दिन के भीतर तालिबान राजधानी काबुल के मुहाने पर होगा और 90 दिन के भीतर देश पर कब्जा कर सकता है. इस चेतावनी के एक हफ्ते के भीतर और पहली चेतावनी के सिर्फ 22 दिन बाद तालिबान ने अफगानिस्तान की सत्ता कब्जा ली है.
रविवार को तालिबान ने राजधानी काबुल में प्रवेश किया और देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी विदेश भाग गए. उन्होंने कहा कि वह खून-खराबा टालना चाहते हैं. तालिबान के एक प्रवक्ता ने कहा कि युद्ध खत्म हो गया है और अफगान लोगों को जल्द पता चलेगा कि नई सरकार कैसी होगी.
रविवार को मची भगदड़
रविवार को जब तालिबान के काबुल में घुसने की सूचनाएं फैलने लगीं तो शहरभर में भगदड़ मची हुई थी. अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों के हेलीकॉप्टर अपने कर्मचारियों और नागरिकों को वहां से निकालने के लिए आसमान पर मंडरा रहे थे.
काबुल के अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर जाम लगा हुआ था और सैकड़ों लोग देश से निकलने के लिए उड़ानों का इंतजार कर रहे थे. एक सूत्र ने समाचार एजेंसी रॉयटर्स को बताया कि विमानों में सीटों को लेकर लोगों के बीच झगड़े भी हुए.
स्थानीय टेलीविजन 1टीवी के मुताबिक रात के वक्त शहर में कई जगह धमाके सुने गए लेकिन दिन में राजधानी कमोबेश शांत रही. एक सामाजिक संगठन ‘इमरजेंसी' ने बताया कि 80 घायलों को अस्पताल लाया गया लेकिन भर्ती उन्हीं को किया जा रहा है जिन्हें जानलेवा घाव हैं.
इससे पहले अल जजीरा ने तालिबान कमांडरों के राष्ट्रपति भवन में होने के वीडियो भी प्रसारित किए थे. दर्जनों हथियारबंद लोगों को राष्ट्रपति भवन में टहलते देखा जा सकता था.
राष्ट्रपति ने छोड़ा देश
रविवार को देश के राष्ट्रपति अशरफ गनी ने अफगानिस्तान छोड़ दिया. हालांकि अभी यह पता नहीं है कि वह कहां गए हैं और सत्ता का हस्तांतरण कैसे होगा.
एक फेसबुक पोस्ट में गनी ने कहा कि उन्होंने खून-खराबा टालने के लिए देश छोड़ा है ताकि काबुल के लाखों लोगों की जान खतरे में ना पड़े. उन्होंने यह नहीं बताया कि वह कहां हैं. हालांकि सोशल मीडिया पर कई स्थानीय लोगों उन्हें अराजकता में छोड़कर भागने वाला कायर बताया.
तस्वीरों मेंः दानिश सिद्दीकी की मौत
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
पुलित्जर से सम्मानित
हाल ही में अफगानिस्तान के बदलते हालातों और हिंसा के अलावा, उन्होंने इराक युद्ध और रोहिंग्या संकट की भी कई यादगार तस्वीरें ली थीं. सन 2010 से समाचार एजेंसी रॉयटर्स के लिए काम करने वाले दानिश सिद्दीकी को 2018 में रोहिंग्या की तस्वीरों के लिए ही पुलित्जर पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
अफगान बल के साथ
विदेशी सेनाओं के अफगानिस्तान से निकलने और तालिबान के फिर से वहां कब्जा जमाने के इस दौर में हर दिन हिंसक घटनाएं हो रही हैं. ऐसे में अफगान सुरक्षा बलों के साथ मौजूद पत्रकारों के जत्थे में शामिल सिद्दिकी मरते दम तक अफगानिस्तान से तस्वीरें और खबरें भेजते रहे.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
कोरोना की नब्ज पर हाथ
हाल ही में भारत में कोरोना संकट की उनकी ली कई ऐसी तस्वीरें देश और दुनिया के मीडिया में छापी गईं. खुद संक्रमित होने का जोखिम उठाकर वह कोविड वॉर्डों से बीमार लोगों के हालात को कैमरे में कैद करते रहे.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
भगवान का रूप डॉक्टर
कोरोना काल में सिद्धीकी की ऐसी कई तस्वीरें आपने समाचारों में देखी होंगी जिसमें एक फोटो पूरी कहानी कहती है. महामारी के समय दानिश सिद्दीकी की ली ऐसी कई तस्वीरें इंसान की दुर्दशा और लाचारी को आंखों के सामने जीवंत करने वाली हैं.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
लाशों के ऐसे कई अंबार
जहां एक लाश का सामना किसी आम इंसान को हिला देता है वहीं पत्रकारिता के अपने पेशे में सिद्धीकी ने ना केवल लाशों के अंबार के सामने भी हिम्मत बनाए रखी बल्कि पेशेवर प्रतिबद्धता के बेहद ऊंचे प्रतिमान बनाए. कोरोना की दूसरी लहर के चरम पर दिल्ली के एक श्मशान की फोटो.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
कश्मीर पर राजनीति
भारत की केंद्र सरकार ने पांच अगस्त 2019 को जब जम्मू-कश्मीर राज्य का विशेष राज्य का दर्जा रद्द कर उसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा, उस समय भी ड्यूटी कर रहे फोटोजर्नलिस्ट सिद्दीकी ने वहां की सच्चाई पूरे विश्व तक पहुंचाई.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
सीएए विरोध के वो पल
केंद्र सरकार के नागरिकता संशोधन कानून के विरोध प्रदर्शनों से उनकी खींची ऐसी कई तस्वीरें दर्शकों के मन मानस पर छा गईं थी. जैसे 30 जनवरी 2020 को पुलिस की मौजूदगी में जामिया यूनिवर्सिटी के बाहर प्रदर्शन करने वालों पर बंदूक तानने वाले इस व्यक्ति की तस्वीर.
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पुलित्जर विजेता भारतीय पत्रकार दानिश सिद्दीकी की मौत
समर्पण पर गर्वित परिवार
जामिया यूनिवर्सिटी के शिक्षा विभाग में प्रोफेसर उनके पिता अख्तर सिद्दीकी ने डॉयचे वेले से बातचीत में बताया कि दानिश सिद्दीकी "बहुत समर्पित इंसान थे और मानते थे कि जिस समाज ने उन्हें यहां तक पहुंचाया है, वह पूरी ईमानदारी से सच्चाई को उन तक पहुंचाए." घटना के समय दानिश सिद्दीकी की पत्नी और बच्चे जर्मनी में छुट्टियां मनाने आए हुए थे.
रिपोर्ट: ऋतिका पाण्डेय
ऐसी ही भगदड़ अमेरिकी और अन्य पश्चिमी कर्मचारियों में भी देखी गई. शहर के किलेबंद ‘वजीर अकबर खान' इलाके में स्थित दूतावास से अमेरिकी कर्मचारियों को हेलिकॉप्टरों से हवाई अड्डे पर ले जाया गया.
एक अमेरिकी अधिकारी के मुताबिक देश से लगभग 500 लोगों को निकाला गया है जिनमें अधिकतर अमेरिकी नागरिक हैं. यह संख्या पांच हजार प्रतिदिन हो सकती है, जिसके लिए हजारों अमेरिकी सैनिकों को भेजा गया है.
यूरोपीय देशों ने भी अपने नागिरकों को वापस ले जाने का काम शुरू कर दिया है. हालांकि रूस ने कहा है कि उसे अपने दूतावास को खाली करने की कोई वजह नहीं दिखती. तुर्की ने भी कहा है कि उसका दूतावास नियमित रूप से काम करता रहेगा.
डरे हुए हैं लोग
तालिबान के एक प्रवक्ता ने कहा है कि उनकी सरकार अंतरराष्ट्रीय समुदाय के साथ अच्छे संबंध चाहती है. लेकिन, बहुत से अफगान लोगों को डर है कि तालिबान अपने उसी भयानक रूप में लौटेगा, जिसने 1996 से 2001 के दौरान लोगों को अमानवीय यातनाएं दी थीं.
अपने पांच साल के शासन में तालिबान ने अफगानिस्तान में देश पर शरिया कानून लागू कर दिया था. उस दौरान महिलाओं के पढ़ने और काम करने पर रोक लगा दी गई थी. देश में पत्थरबाजी, कोड़े मारना और सार्वजनिक तौर पर मौत के घाट उतारने जैसी सजाएं दी जाती
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव अंटोनियो गुटेरेश ने तालिबान और अन्य पक्षों से संयम बरतने की अपील की है. उन्होंने महिलाओं व लड़कियों के भविष्य को लेकर खासतौर पर चिंता जताई है.
वीके/एए (रॉयटर्स, एएफपी)
देखिएः चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
जहां तक नजर जाए
2021 में 11 सितंबर की बरसी से पहले अमेरिकी सेना बगराम बेस को खाली कर देना चाहती है. जल्दी-जल्दी काम निपटाए जा रहे हैं. और पीछे छूट रहा है टनों कचरा, जिसमें तारें, धातु और जाने क्या क्या है.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
कुछ काम की चीजें
अभी तो जहां कचरा है, वहां लोगों की भीड़ कुछ अच्छी चीजों की तलाश में पहुंच रही है. कुछ लोगों को कई काम की चीजें मिल भी जाती हैं. जैसे कि सैनिकों के जूते. लोगों को उम्मीद है कि ये चीजें वे कहीं बेच पाएंगे.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
इलेक्ट्रॉनिक खजाना
कुछ लोगों की नजरें इलेक्ट्रोनिक कचरे में मौजूद खजाने को खोजती रहती हैं. सर्किट बोर्ड में कुछ कीमती धातुएं होती हैं, जैसे सोने के कण. इन धातुओं को खजाने में बदला जा सकता है.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
बच्चे भी तलाश में
कचरे के ढेर से कुछ काम की चीज तलाशते बच्चे भी देखे जा सकते हैं. नाटो फौजों के देश में होने से लड़कियों को और महिलाओं को सबसे ज्यादा लाभ हुआ था. वे स्कूल जाने और काम करने की आजादी पा सकी थीं. डर है कि अब यह आजादी छिन न जाए.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
कुछ निशानियां
कई बार लोगों को कचरे के ढेर में प्यारी सी चीजें भी मिल जाती हैं. कुछ लोग तो इन चीजों को इसलिए जमा कर रहे हैं कि उन्हें इस वक्त की निशानी रखनी है.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
खतरनाक है वापसी
1 मई से सैनिकों की वापसी आधिकारिक तौर पर शुरू हुई है. लेकिन सब कुछ हड़बड़ी में हो रहा है क्योंकि तालीबान के हमले का खतरा बना रहता है. इसलिए कचरा बढ़ने की गुंजाइश भी बढ़ गई है.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
कहां जाएगा यह कचरा?
अमेरिकी फौजों के पास जो साज-ओ-सामान है, उसे या तो वे वापस ले जाएंगे या फिर स्थानीय अधिकारियों को दे देंगे. लेकिन तब भी ऐसा बहुत कुछ बच जाएगा, जो किसी खाते में नहीं होगा. इसमें बहुत सारा इलेक्ट्रॉनिक कचरा है, जो बीस साल तक यहां रहे एक लाख से ज्यादा सैनिकों ने उपभोग करके छोड़ा है.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
बगराम का क्या होगा?
हिंदुकुश पर्वत की तलहटी में बसा बगराम एक ऐतिहासिक सैन्य बेस है. 1979 में जब सोवियत संघ की सेना अफगानिस्तान आई थी, तो उसने भी यहीं अपना अड्डा बनाया था. लेकिन, अब लोगों को डर सता रहा है कि अमरीकियों के जाने के बाद यह जगह तालीबान के कब्जे में जा सकती है.
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चले गए अमेरिकी, छोड़ गए कचरा
सोचो, साथ क्या जाएगा
क्या नाटो के बीस साल लंबे अफगानिस्तान अभियान का हासिल बस यह कचरा है? स्थानीय लोग इसी सवाल का जवाब खोज रहे हैं.