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समाज

चीन-तालिबान में नजदीकी में भारत कहां है

अविनाश द्विवेदी
२८ जुलाई २०२१

अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर कई देश रणनीतियां बना रहे हैं. इनमें इसके साथ बड़ी सीमा साझा करने वाले पाकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान के अलावा भारत, चीन, रूस और अमेरिका जैसे देश भी हैं.

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तस्वीर: Hoshang Hashimi/AFP/Getty Images

अफगानिस्तान से अमेरिका और पश्चिमी देशों की सेनाओं की वापसी का काम लगभग पूरा हो चुका है. इसके साथ ही तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जे की लड़ाई तेज कर दी है.

हालिया जानकारी के मुताबिक अफगानिस्तान के 400 जिलों में से लगभग आधे पर उसने कब्जा कर लिया है. लेकिन वह 34 प्रांतीय राजधानियों में से एक को भी हासिल नहीं कर सका है. हालांकि इनमें से आधी राजधानियों पर वह दबाव बनाए हुए है और काबुल समेत कई इलाकों में अफगान सुरक्षा बलों के साथ लड़ रहा है.

तालिबान दावा कर रहा है कि वह अफगानिस्तान के 85% हिस्से पर कब्जा कर चुका है और वहां की सत्ता पर इसका काबिज होना तय है. लेकिन अमेरिका और भारत सहित कई देश इस दावे पर विश्वास नहीं कर रहे. ये देश मानते हैं कि अफगान सुरक्षा बल अफगानिस्तान की रक्षा में समर्थ हैं.

हालांकि इस दौरान ये देश तालिबान और अफगान सरकार के बीच बातचीत के जरिए भविष्य का रास्ता निकालने पर भी जोर दे रहे हैं. अफगानिस्तान के भविष्य को लेकर कई देश रणनीतियां बना रहे हैं. इनमें इसके साथ बड़ी सीमा साझा करने वाले पाकिस्तान, ईरान, तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान के अलावा भारत, चीन, रूस और अमेरिका जैसे देश भी हैं.

भारत के पास दो रास्ते

भारत के लिए अफगानिस्तान का भविष्य बहुत मायने रखता है. इसकी कई वजह हैं लेकिन तीन सबसे प्रमुख हैं. पहली, भारत की कश्मीर में आतंकवाद को बढ़ने से रोकने की कोशिश, जिसे बढ़ावा देने में तालिबान की भूमिका रही है. दूसरी, पाकिस्तान की तालिबान से ऐतिहासिक नजदीकियां, जिनके चलते भारत के हितों को नुकसान होने की गुंजाइश है. और तीसरी, अफगानिस्तान में पिछले दशकों में भारत की ओर से किए विकास कार्यों को बचाना. भारत ने अफगानिस्तान में कई विकास कार्यों सहित वहां की नई संसद के निर्माण में भी मदद की है.

फिलहाल भारत न सिर्फ ईरान और रूस के साथ मिलकर अफगान समस्या का हल खोजने की कोशिश कर रहा है बल्कि मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक वह तालिबान से भी सीधे बातचीत कर रहा है. हालांकि भारतीय सरकार ने सीधी बातचीत से इंकार किया है. लेकिन जानकारों का मानना है कि भारत को असली सफलता तभी मिल सकती है जब वह चीन के साथ मिलकर इस मामले का हल निकालने की कोशिश करे.

दूसरी तरफ, कई जानकार यह मानते हैं कि उसे दूसरा रास्ता अपनाते हुए चीन से बात न करके ईरान के प्रति अमेरिका का रुख नर्म होने का इंतजार करना चाहिए और ईरान की मदद से अफगानिस्तान नीति तैयार करनी चाहिए.

चीन को साथ लेना जरूरी

चीन के साथ अफगानिस्तान पर भारत की कोई भी चर्चा उत्तरी लद्दाख और कई बॉर्डर के इलाकों में कथित चीनी घुसपैठ और चीन की पाकिस्तान से नजदीकियों को ध्यान में रखे बिना नहीं हो सकती है. फिर भी जानकार अफगान समस्या का हल करने के लिए चीन और भारत के साथ आने की वकालत कर रहे हैं.

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सेंटर फॉर पॉलिसी स्ट्डीज के निदेशक सी उदय भास्कर कहते हैं, "भारत को चीन के साथ जरूर बात करनी चाहिए. इसके लिए चीन के सामने प्रस्ताव रखने की जरूरत नहीं है. शांघाई कॉपरेशन ऑर्गनाइजेशन (SCO) जैसे मंच पर ऐसे मुद्दों को उठाया जा सकता है."

हालांकि सीधी अफगान नीति तैयार करने के मुद्दे पर वह कहते हैं, "भारत को थोड़ा इंतजार करना चाहिए और अफगानिस्तान और तालिबान के बीच सत्ता साझा किए जाने का रास्ता निकलने और वहां थोड़ी स्थिरता होने के बाद ही अफगान नीति पर कोई सीधा एक्शन लेना चाहिए. अभी अफगान सरकार की सीधी मदद का नुकसानदेह भी हो सकती है क्योंकि भारत तालिबान से भी बात कर रहा है."

अफगानिस्तान की विधवाओं का दर्द

वहीं लंदन के किंग्स कॉलेज में इंटरनेशन रिलेशंस के प्रोफेसर हर्ष वी पंत कहते हैं, "भारत को सबसे बात करनी चाहिए, इसलिए चीन से भी बात करे. लेकिन क्या चीन भी बात करेगा? दोनों देश अफगानिस्तान को पहले ही अपनी बातचीत में प्राथमिकता में रख चुके हैं लेकिन यह आगे नहीं बढ़ी. चीन की पाकिस्तान से करीबी इसकी वजह है. इसलिए भारत परिस्थितियों पर नजर रखे और समय देखकर अपनी नीति के बारे में फैसला करे."

बातों का कोई जमीनी असर नहीं

जानकार मानते हैं यह इतना आसान नहीं होगा. 'साम्राज्यों का कब्रिस्तान' कहे जाने वाले अफगानिस्तान पर अब चीन की नजरें हैं. चीन की ओर से कहा गया है कि 'बॉर्डर ऐंड रोड एनीशिएटिव' के तहत अफगानिस्तान में भी निवेश किया जाएगा.

चीन लंबे समय से तालिबानी नेताओं के साथ चर्चा कर रहा है. उसे अपने उद्देश्य में पाकिस्तान से भी मदद मिल रही है. तालिबानी नेता बीजिंग दौरे पर भी गए हैं. इसका असर तालिबानी प्रतिक्रिया में देखने को मिला है. उसने चीन के खिलाफ अफगान जमीन का इस्तेमाल न करने का वादा किया है. उसकी ओर से चीनी निवेश को कोई नुकसान न पहुंचाने का वादा भी किया गया है.

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जानकार मानते हैं कि चीन के लिए स्थितियां जितनी आसान लग रही हैं, उतनी हैं नहीं. सिर्फ आर्थिक निवेश से तालिबान को साधना नामुमकिन है. पहले भी अमेरिका जैसे देशों की यह कोशिश नाकाम रही है. फिलहाल अफगानिस्तान सालों तक अशांत रहने वाला है. वहां तालिबान का शासन आ जाए तो भी पूरी तरह स्थिरता आने में लंबा समय लगेगा.

हर्ष वी पंत ने डीडब्ल्यू से कहा, "फिलहाल तालिबान सिर्फ वैधता हासिल करने के लिए आर्थिक विकास, नागरिक और महिला अधिकारों आदि की बात कर रहा है लेकिन यह साफ है कि उसकी विचारधारा धार्मिक कट्टरपंथ की है और वह चीन के विचारों से मेल नहीं खाती. चीन भी यह बात बखूबी समझता है, इसलिए उसकी ओर से भी सिर्फ बातें की जा रही हैं. इसी वजह से इन बातों का कोई जमीनी नतीजा नहीं दिखा है."

जानकार कहते हैं कि चीन के पास अपेक्षाकृत स्थिर पाकिस्तान में चाइना-पाकिस्तान इकॉनमिक कॉरिडोर (CPEC) पर बढ़ रहे आतंकी हमलों का बुरा अनुभव भी है. हाल ही में पाकिस्तान के कोहेस्तान में हुए एक आतंकी हमले में चीन के 9 नागरिक मारे गए थे. यह बात उसे अफगानिस्तान में शांति होने तक इंतजार करने के लिए मजबूर करेगी.

इसके अलावा चीन को तालिबान के असर के चलते अपने पश्चिमी प्रांत शिनजियांग में मुस्लिम कट्टरपंथ में बढ़ोतरी होने का भी डर जरूर होगा. यानी तमाम दावों के बावजूद यही संभावना है कि फिलहाल चीन अफगानिस्तान में कोई खास रुचि नहीं लेगा.

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