1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
शिक्षा

जर्मनी में पक्की नौकरियों को तरसती साइंस और रिसर्च बिरादरी

२ जुलाई २०२१

जर्मनी में वैज्ञानिक और शोधकर्ता, काम के जोखिम भरे हालात के खिलाफ आवाज उठाने लगे हैं. रोजगार की असुरक्षा और मदद की कमी यूरोपीय संघ के दूसरे देशों और ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में भी एक बड़ी समस्या की तरह उभरी है.

https://p.dw.com/p/3vwES
तस्वीर: picture-alliance/blickwinkel/McPHOTO/ADR

"प्रिय शिक्षा जगत, ये वक्त है खुद को बदलने का, बहुत हुआ शॉर्ट-टर्म कॉन्ट्रेक्ट, शोषण और असुरक्षा, अब बस." बहुत से होनहार नये शोधकर्ता (अर्ली करियर रिसर्चर) विज्ञान छोड़ने पर मजबूर हैं. ये एक दुष्चक्र है जिसमें 12 साल बाद आपको आखिरकार ‘आधिकारिक' तौर पर अकादमिक दुनिया से बाहर फेंक दिया जाता है. #ichbinhana हैशटैग से कई ट्वीट, जर्मन विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में वैज्ञानिकों के करियर का हाल और जिंदगी के अनुभव को बयान करते हैं.

शोधकर्ताओं के लिए हालात मुश्किल हैं. एक के बाद एक नियत अवधि के कॉन्ट्रेक्ट, मजबूरन हर कुछ साल में एक नौकरी छोड़कर दूसरी पकड़ना, कॉन्ट्रेक्ट पूरा होने के बाद महज बेरोजगारी भत्तों के साथ रिसर्च जारी रखना, और अस्थायी कॉन्ट्रेक्टों की 12 साल की मियाद पूरे होते ही, जर्मन विश्वविद्यालयों में आगे अनुबंध पर कोई काम न मिलना. ये रोक उस कानूनी ढांचे के तहत लगा दी जाती है जो यूं शोधकर्ताओं की हिफाजत के लिए बनाने का दावा किया गया है.

जर्मनी में पक्की नौकरी न पा सकने वाले रिसर्चरों की यही स्थिति है. और पक्की नौकरियां दुर्लभ हैं. जर्मनी के संघीय सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक 87 प्रतिशत रिसर्चरों और वैज्ञानिकों को 2019 में नियत अवधि के ठेके पर नौकरी मिली थी. लगता है मैं पहले से ही इस चीज से वाकिफ हूं: मेरी भी ख्वाहिश थी साइंटिस्ट बनने की. ठीक ठीक कहूं तो एक जीववैज्ञानिक. लेकिन मास्टर्स डिग्री मिलने के बाद मैंने पत्रकारिता में जाने का फैसला किया. (हालांकि यहां भी काम के हालात अक्सर बुरे होते हैं.)

इंडस्ट्री में कड़ी प्रतिस्पर्धा का माहौल, कई घंटे बगैर भुगतान का ओवरटाइम, और अक्सर कभी यहां कभी वहां वाली नौकरी, मैंने ये तमाम चीजें देखीं तो साइंटिफिक रिसर्च का ऑप्शन मुझे खास पसंद नहीं आया.

कानून का उल्टा असर

जर्मन विश्वविद्यालयों में असुरक्षित रोजगार कई लोगों का एक आम अनुभव बन जाता है तो इसके पीछे कई फैक्टर काम करते हैं. 2007 में एक कानून लाया गया था- "विसनशाफ्ट्ससाइटफरट्राग्सगेजेत्स" यानि शोधकार्य में कॉन्ट्रैक्ट का कानून. इसके मुताबिक जर्मन विश्वविद्यालयों में फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रेक्ट के तहत "वैज्ञानिक और कलाकर्मी" अधिकतम 12 साल तक काम कर सकते हैं.

कई शोधकर्ताओं के लिए इसका मतलब हुआ पीएचडी के छह साल और उसके बाद छह साल और. अगर अकादमिक जगत में ही काम करते रहना है तो शोधकर्ताओं को स्थायी पोजीशन हासिल करनी होगी. पदों पर चालू रहने वाली सुरक्षित भर्तियों से शोधकर्ता वंचित रह जाते थे. इसीलिए ये कानून अकादमिक जगत में अंतहीन नियत अवधि कॉन्ट्रेक्टों पर रोक लगाने के लिए लाया गया था.

उत्तरपश्चिम जर्मनी की पादेरबॉर्न यूनिवर्सिटी में साहित्य-विदुषी क्रिस्टीन आइषहोर्न ने डीडब्ल्यू को बताया, "जाहिर है ये कानून उल्टा पड़ गया. इसकी वजह से लोगों की नियुक्ति ही रुक गयी है." दार्शनिक आमराई बार और इतिहासकार सेबास्टियन कुबोन के साथ मिलकर क्रिस्टीन ने जर्मन शिक्षा और शोध मंत्रालय के अपनी सफाई में जारी एक वीडियो के जवाब में ट्विटर पर मध्य जून में इशबिनहाना हैशटैग चला दिया. 

ये वीडियो तो अब हटा दिया गया है लेकिन इस एनीमेटड वीडियों में एक काल्पनिक पीएचडी छात्रा हाना को एक मिसाल की तरह दिखाया गया है कि कैसे शोधकर्ता फिक्स्ड टर्म कॉन्ट्रेक्टों में सफल हो सकते हैं. अपनी अस्थायी नौकरी की बदौलत ही ‘हाना' यूनिवर्सिटी में ज्यादा समय के लिए न टिके रहकर और सिस्टम को "अवरुद्ध" न कर, योग्यता और अनुभव हासिल कर सकती है. उसके ऐसा करने से नये शोधकर्ताओं के अवसर भी अवरुद्ध नहीं होंगे.

शैक्षणिक जगत में करियर के इस प्रस्तुतिकरण पर जर्मनी में कार्यरत वैज्ञानिक भड़क उठे. अपनी असुरक्षित कार्य स्थितियों और भविष्य में संभावनाओं की किल्लत से वे लोग पहले ही डरे हुए हैं. और ऊपर से ये वीडियो उन्हें घाव पर नमक छिड़कने की तरह लगता है. 

बद से बदतर होते मौके

क्रिस्टीन आइषहोर्न कहती हैं कि "शोध करने वाले स्कॉलर आज ये नहीं जानते कि चालीस तक पहुंचते पहुंचते वे स्थायी रूप से विज्ञान में बने रह पाएंगे या नहीं." उनका खुद का कॉन्ट्रेक्ट सितंबर में खत्म हो रहा है. उनके पास 2023 तक का समय है, तब उनके 12 साल पूरे हो जाएंगे. असल में ये 2022 में ही खत्म हो जाता लेकिन महामारी की वजह से जर्मनी में शोधकर्ताओं को एक साल एक्सट्रा मिला है.

आइषहोर्न कहती हैं कि "अक्सर अकेला विकल्प प्रोफेसर बन जाने का होता है. लेकिन इसका तो चांस ही नहीं है. कुछ फील्ड्स में एक पद के लिए 200 आवेदन आ जाते हैं." स्थायी नियुक्ति कितना मुश्किल है, इसी साल अपनी बैचलर थीसिस के दौरान, मुझे पहली बार इसका पता चला. मेरे सुपरवाइजर और इवोल्युश्नरी बायोलॉजिस्ट क्लाउस राइनहार्ट अपना कॉन्ट्रेक्ट पूरा होने के बाद नौकरी की तलाश में थे और कुछ कुछ हताश हो चले थे.

आज वो ड्रेसडेन की टेक्निकल यूनिवर्सिटी में एप्लाइड जूलोजी के प्रोफेसर हैं. लेकिन नौकरी मिलने से पहले उन्हें बेरोजगारी भत्तों के सहारे साल काटना पड़ा. राइनहार्ट ने डीडब्ल्यू को बताया, "मुझे अभी भी याद है कि नियुक्ति की प्रक्रिया के दौरान कैसे डायरेक्टर ये जानने पर आमादा थे कि मेरी आखिरी सैलरी कितनी थी. मैं तो उस समय बेरोजगार था. तब मैंने सोचा ‘गये काम से'." राइनहार्ट को नौकरी किसी तरह मिल तो गयी लेकिन उनका कहना है कि बेरोजगारी में प्रोफेसरी मिल जाना दुर्लभ ही है.  

सागर में दफन हैं लाखों टन विस्फोटक

कॉन्ट्रेक्ट वाली नौकरियों का मतलब

जर्मनी के संघीय सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक 2019 मे जर्मन विश्वविद्यालयों में चार लाख से थोड़ा ज्यादा लोग "वैज्ञानिक और कलाकर्मी” के रूप में काम करते थे. इनमें से एक लाख 80 हजार लोग, पीएचडी उम्मीदवार थे. वैसे तो राइनहार्ट को सिस्टम से खुद भी जूझना पड़ा लेकिन वो नियत अवधि वाले अनुबंधों में कोई समस्या नहीं देखते. वो सोचते हैं कि पीएचडी के दौरान अस्थायी कॉन्ट्रेक्ट सही है. वो कहते हैं कि आखिरकार सारे पीएचडी स्कॉलर तो रिसर्च फील्ड में नहीं रहना चाहते हैं.

यंग अकेडमिक्स पर जर्मन सरकार की संघीय रिपोर्ट में भी इस बात की पुष्टि होती है. उसके मुताबिक 50 प्रतिशत छात्र, पीएचडी पूरी कर पहले साल में ही यूनिवर्सिटी छोड़ देते हैं. पोस्ट-डॉक्टरेट के बाद के 10 साल तक, बेरोजगारी की दर सिर्फ एक से दो प्रतिशत है. लेकिन इस आंकड़े से ये नहीं पता चलता कि कितने छात्र अकेडमिक्स छोड़ देते हैं क्योंकि मेरी तरह काम के बुरे हालात और जॉब सिक्योरिटी की कमी की आशंका की वजह से वे भी पीछे हटे थे.

और बात सिर्फ जर्मनी की नहीं

ड्रेसडेन में जॉब मिलने से पहले राइनहार्ट ने इंग्लैंड में शेफील्ड यूनिवर्सिटी में भी काम किया था. उनके मुताबिक वहां सिस्टम पूरी तरह अलग है. "ट्यूशन फीस पेड होती है. अगर कोई नयी स्थायी जगह बनती है तो वे और छात्र भर लेते हैं, जैसे एक नया डिग्री कोर्स ही लॉन्च कर देते हैं." ब्रिटेन के उच्च शिक्षा स्टाफ के आंकड़ों के मुताबिक 50 प्रतिशत रिसर्चरों को 2018-19 में स्थायी नियुक्ति मिल गयी थी. लेकिन नौकरी मिलना वहां भी कठिन होता है. जैसा कि जेसक (बदला हुआ नाम) ने मुझे बताया. उसने पोलैंड में पढ़ाई की थी और 2012 में ब्रिटेन से पीएचडी की थी.

उसका कहना है, "तब मुझे लगता था कि साइंस में मेरे पास अच्छे मौके हैं. एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से पीएचडी है, कई कॉन्फ्रेन्स अटेंड की है, रिसर्च आर्टिकल भी ठीकठाक छपे हुए हैं और इस फील्ड में मेरा नेटवर्क भी बढ़िया है. मैं निश्चिंत था कि पोस्टडॉक या लेक्चरर की नौकरी मुझे मिल जाएगी. बहुत नादान था मैं."

कई सारी अर्जियों के बावजूद जेसक को ब्रिटेन में बड़ी मुश्किल से एक साल बाद एक प्रोजेक्ट में काम मिल पाया. वो कहता है, "काम रोचक था और सहकर्मी बहुत अच्छे थे लेकिन पोजीशन अनपेड थी." तंग आकर ही उसने वो काम पकड़ा और इधर उधर से थोड़े बहुत पैसे कमाकर अपना खर्चा निकाला. अलग अलग देशों में कई सारी अलग अलग नौकरियां करने के बाद, विदेशी फंडिंग से सैकड़ों हजारों यूरो जुटाने के बाद, तीन किताबें और 100 से ज्यादा लेख प्रकाशित होने के बाद, आज वो स्केन्डिनेविया यूनिवर्सिटी में काम करता है, जाहिर है अस्थायी तौर पर. 

सुनसान बर्लिन की छवियां

बुनियादी समस्या फंडिंग की है

आइषहोर्न कहती हैं कि "खर्चा कम करने की जुगत सभी जगह चलती है. लेकिन फिक्स्ड-टर्म कॉन्ट्रेक्ट की ऊपरी लिमिट तो सिर्फ जर्मनी में ही लागू है. दूसरे देशों में शोधकर्ता रिटायर होने तक फिक्स्ड-टर्म के आधार पर काम कर सकते हैं. ये अच्छा तो नहीं है लेकिन कम से कम उन्हें सिस्टम से निकलना तो नहीं पड़ता." आइषहोर्न के मुताबिक बुनियादी समस्या, विश्वविद्यालयों के वित्तीय सेटअप में है. जर्मनी में, जहां विद्यार्थियों से ट्यूशन फीस नहीं ली जाती है, वहां बहुत सी यूनिवर्सिटियों का पैसा सीधे संघीय राज्यों से आता है.

लेकिन आइषहोर्न के अनुसार उनकी लागत का सिर्फ 50 प्रतिशत हिस्सा ही इस बेसिक फंडिंग से निकल पाता है. बाकी का पैसा प्रोजेक्ट से जुड़ी बाहरी फंडिंग के जरिए उठाया जाता है. शोध करने वालों को खुद ही इस फंडिंग के लिए आवेदन करना होता है. उपलब्ध प्रोजेक्ट फंड के लिए भी मारामारी रहती है. इस फंडिंग के साथ जो पद मिलता है वो जाहिर है एक निश्चित मियाद वाले प्रोजेक्ट से ही जुड़ा होता है, नियत तारीख से शुरू, नियत तारीख पर खत्म. यानी ये पद अस्थायी होते हैं.

सरकार से ज्यादा फंड, बाहर वालों से कम 

इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि जर्मनी का शिक्षा बजट कम है. 2019 में सरकार का विश्वविद्यालयों के लिए 19 अरब यूरो का बजट था. शोध और विकास में तो दुनिया का चौथा सबसे बड़ा बजट, जर्मनी का है. फिर भी आइषहोर्न कहती हैं कि अध्ययन-अध्यापन जैसी सतत जारी भूमिकाओं को देखते हुए अधिक से अधिक स्थायी पद सृजित करने होंगे और इसके लिए यूनिवर्सिटियों को सरकार की ओर से और ज्यादा फंडिंग की दरकार है. वैसे जर्मन विश्वविद्यालयो में वैज्ञानिकों के काम के हालात इतना जल्दी तो नहीं सुधर पाएंगे.

12 साल के अनुबंध वाले कानून के लिए जिम्मेदार मंत्री ने हाल में इसका बचाव करते हुए कहा था कि कई मामलों में ये अनुबंध सही हैं. वो ये भी ध्यान दिलाती हैं कि कानून में अस्थायी अनुबंधों का हवाला नहीं है, यूनिवर्सिटी किसी भी समय स्थायी पद निकाल सकती हैं. उन्होंने ये साफ नहीं किया कि उन लंबी अवधि के पदों के लिए पैसा आखिर आएगा कहां से. तो आखिरकार, विज्ञान पत्रकारिता में आने का मेरा फैसला शायद सही था. हालांकि मुझे आज भी कभीकभार लैब की याद आ जाती है.

रिपोर्ट: सोफिया वाग्नर

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी