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समाज

कोरोना महामारी के बीच स्कूल खोलना कितना सही?

स्तुति मिश्रा
३ जुलाई २०२०

मार्च से बंद स्कूल कुछ ही दिनों में खुल सकते हैं. पर अगर स्कूल खुलते हैं तो वायरस के बीच बच्चों को सुरक्षित रखने की कितनी तैयारियां हैं?

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Indien | Coronavirus | Schulen bleiben geschlossen
तस्वीर: DW/S. Mishra

भारत में कोरोना महामारी के बाद स्कूलों का नया सेशन शुरु होने वाला है.  शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल ने अगस्त में स्कूलों के खुलने की बात कही थी लेकिन अभी तक बहुत से राज्य सरकारों की तरफ से कोई तारीख सामने नहीं आई है. मार्च के महीने में लॉकडाउन शुरु होते ही सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया था जिस बीच 10वीं और 12वीं के बोर्ड एग्जाम समेत कई परीक्षाएं टल गई थी जो अभी भी बाकी हैं. हालांकि अब भी कोविड संक्रमित लोगों का आंकड़ा देश में लगातार बढ़ता जा रहा है और अब ये छह लाख के पार जा चुका है, पर देश इस वक्त लॉकडाउन हटा कर ‘अनलॉक' के दौर में हैं.

केंद्र सरकार ने स्कूलों को खोलने को लेकर कई तरह की गाइडलाइन जारी की हैं जिसमें सोशल डिस्टेंसिंग और सैनिटाइजेशन जैसी चीजों को लेकर कुछ नियम हैं. साथ ही स्कूलों में सिर्फ 30-40 फीसदी की स्ट्रेंथ रखने की भी बात की गई है. दिल्ली और मुंबई जैसे बड़े शहरों में जहां इंफेक्शन का जोखिम ज्यादा है वहां शायद अभी कुछ महीने तक स्कूल ना खुलें तो वहीं कुछ शहरों में चरणों में स्कूलों को खोलने की बात हो रही है.

कितने तैयार हैं स्कूल?

गोरखपुर के सरमाउंट इंटरनेशनल स्कूल के प्रिंसिपल मेजर राजेश रंजीत का कहना है कि उनके हिसाब से इस साल दिसंबर तक स्कूलों के खुलने की संभावना कम ही नजर आ रही है. लेकिन अगर स्कूल खुलते हैं तो सोशल डिस्टेंसिंग को लेकर स्कूल में बड़े इंतज़ाम किए जा रहे हैं. उनके स्कूल में एक सेक्शन में 30 से 40 बच्चे है, और सभी बच्चों के बीच 1 मीटर की दूरी बनाए रखने के लिए उन्हें क्लास को दो सेक्शन्स में बांटना होगा, इसके लिए उनके पास कितने कमरे मौजूद हैं ये भी देखना पड़ेगा. उनका कहना है कि सैनिटाइजेशन समेत पानी पीने के इंतजाम तक में कई बदलाव देखने को मिलेंगे. लेकिन आखिरी फैसला तब ही हो पाएगा जब स्कूल खुलने की तारीख सामने आए.

ग्रेटर नोएडा के मंथन स्कूल में प्राइमरी सेक्शन की हेड पूजा बजाज का कहना है कि उनके स्कूल में भी लगातार साफ-सफाई का काम हो रहा है, साथ ही अब थर्मल स्क्रीनिंग और सैनिटाइजर स्टैंड भी लगा दिए गए हैं. साथ ही वो बच्चों और पेरेंट्स से लगातार बातचीत कर रही हैं. लेकिन जब तक स्कूलों के खुलने की तारीख का पता नहीं चलता और सरकार की तरफ से गाइडलाइंस नहीं आ जाते तब तक ये कहना मुश्किल है कि कितने बच्चों को स्कूल बुलाया जा सकता है और उसके लिए कितनी तैयारी की जरूरत है.

पूजा बजाज का भी ये मानना है कि बच्चों को मास्क पहनाए रख पाना या कहीं भी हाथ रखने से रोकना मुश्किल काम है. ऐसे में क्लास में कम बच्चे होना ही एकमात्र रास्ता है इंफेक्शन रोकने का, जिसके लिए ऑनलाइन और फिजिकल क्लास के बीच बदलते रहने का कोई रास्ता चुनना होगा.

क्या पेरेंट्स बच्चों को स्कूल भेजेंगे?

मंथन स्कूल में पढ़ने वाले 8 साल के आयुष की मां गुंजन का कहना है कि जब कई सोसाइटी कोविड पेशेंट्स मिलने के कारण सील हैं और बच्चे सोसाइटी में ही बाहर नहीं निकल पा रहे ऐसे में वो स्कूल तक कैसे जाएंगे. गुंजन मानती हैं कि स्कूल के अंदर साफ-सफाई का चाहे पूरा ध्यान रखा जा रहा हो, लेकिन स्कूल तक पहुंचने और वापस आने में बच्चे कई तरह के खतरों से एक्सपोज हो सकते हैं, और ये बड़ी मुसीबत है. दो स्कूल जाने वाले बच्चों की मां पल्लवी का भी कहना है कि जब तक कोविड के केस पूरी तरह खत्म नहीं हो जाते, बच्चों का स्कूल जाना बिलकुल ठीक नहीं.

नोएडा और ग्रेटर नोएडा की कई सोसाइटी में कोरोना के पॉजिटिव केस मिलने के बाद बिल्डिंगों को सील कर दिया गया. जाहिर है कि इस तरह के बदलावों से बच्चे भी परेशान हैं. मंथन स्कूल और पास के गैर इंटरनेशनल स्कूल में पढ़ने वाले कुछ बच्चों से बात की तो उनका कहना है कि वो स्कूल को मिस करते हैं और अब जल्द ही स्कूल वापस जाना चाहेंगे. छठी कक्षा में पढ़ने वाली राशि का कहना है कि वो घर पर पढ़ाई से बेहतर स्कूल जाकर पढ़ना पसंद करेंगी, लेकिन कोरोना वायरस के खतरे से वो वाकिफ हैं और थोड़ा डरे हुए भी हैं.

कई परिवारों पर पड़ रहा है असर

भारत में स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की तादाद 33 करोड़ है. भारत की कुल जनसंख्या का 19.29 फीसदी हिस्सा 6-14 की उम्र के बीच के बच्चे हैं जो RTE के तहत कानूनी रूप से शिक्षा के हकदार हैं. ऐसी स्थिति में जहां कोरोनावायरस के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं और वैक्सीन के बाजार में आने की कोई खबर नहीं, इसमें पेरेंट्स भी बच्चों को स्कूल भेजने से पहले चिंतित जरूर हैं लेकिन कई परिवारों के लिए स्कूल सिर्फ पढ़ाई करने की जगह नहीं हैं, वे उससे कुछ ज्यादा हैं.

कई सरकारी स्कूल बच्चों को खाना खिलाते हैं और उनकी सुरक्षा समेत उन तक सरकारी सुविधाओं के पहुंचने का माध्यम हैं. स्कूल बंद होने के दौरान लगभग 9.12 करोड़ भारतीय बच्चों को उनका मिड-डे मील नहीं मिल रहा है. ये भोजन इसलिए भी बेहद जरूरी है क्योंकि स्टडी के मुताबिक भारत में गरीब परिवार अपनी आय का 75 फीसदी हिस्सा खाने में लगा देते हैं. मिड डे मील ना सिर्फ बच्चों को सही पोषक खाना मुहैया कराता है, ये गरीब परिवारों के बड़े खर्चे को भी कम करता है.

ऑनलाइन पढ़ाई के भी खतरे

कोरोना वायरस की वजह से स्कूलों के खुलने में होने वाली देरी और लंबे वक्त तक ऑनलाइन स्कूलिंग की वजह से बच्चों की पढ़ाई पर तो असर पड़ ही रहा है, साथ ही बच्चों की आदतों में बड़े बदलाव भी आने वाले हैं. इन बदलावों के बाद बच्चों के लिए स्कूल सिस्टम में वापस जाना मुश्किल भी होगा. साथ ही प्रवासी मजदूरों जैसे जो लोग अपने-अपने शहरों में वापस चले गए हैं, उनके बच्चे भी स्कूलों से लंबे समय तक गायब रहने वाले हैं.

लॉकडाउन के दौरान घर से पढ़ाई के तरीके ढूढ़ने की कई कोशिशें की गईं लेकिन इंटरनेट के जरिए पढ़ाई की अपनी मुसीबतें हैं. देश में हर शहर और गांव में ना तो तेज इंटरनेट की गारंटी है, ना ही सभी घरों में स्मार्टफोन और कंप्यूटर हैं. केरल सरकार ने लॉकडाउन के बीच इंटरनेट को मूल अधिकार का दर्जा दिया है, लेकिन जैसे-जैसे पढ़ाई के लिए इंटरनेट पर निर्भरता बढ़ती है वैसे ही कई गरीब परिवारों को ये स्कूलों से दूर करेगा, या उन्हें प्लेट में खाने और इंटरनेट के बीच चुनाव करना पड़ सकता है.

हालांकि मेजर राजेश का मानना है कि घर पर पढ़ाई की ये स्थिति कई मायनों में कुछ सीखने का मौका है. उनके मुताबिक घर पर रहने से माता-पिता बच्चों की पढ़ाई को ज्यादा अच्छे से समझेंगे, और साथ ही उनका बच्चों से रिश्ता बेहतर होगा. राजेश मानते हैं कि बच्चों को शहर कोरोना फ्री होने तक थ्योरी के लिए घर से ही पढ़ाई करनी चाहिए पर स्कूलों को ध्यान रखना चाहिए की वो बच्चों की फिजिकल एक्सरसाइज पर भी ध्यान दें और कुछ एक्टिविटी के लिए उन्हें स्कूल बुलाएं. सरकार ने 5वीं क्लास तक के बच्चों का स्क्रीन टाइम ना बढ़ाने की कोशिश में ऑनलाइन क्लासेस पर रोक लगा दी है और 6ठी और आठवीं कक्षा के बच्चों के ऑनलाइन क्लासेस को कम देर रखने की बात की है.

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टीचर भी हैं मुसीबत में

कोरोना महामारी के बीच टीचरों की मुसीबतें भी बढ़ीं हैं. जहां एक तरफ उन्हें बच्चों को पढ़ाने के नए नए तरीके खोजने पड़ रहे हैं, वहीं दूसरी तरफ कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले टीचरों को सैलरी के लिए भी जूझना पड़ रहा है. भारत के स्कूलों में 10 लाख से ऊपर कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले टीचर हैं. सिर्फ दिल्ली में 29 हजार से ऊपर कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वाले टीचर हैं, और दिल्ली समेत यूपी और बिहार के भी टीचर महामारी से पहले से ही सैलरी ना मिलने की शिकायत करते रहे हैं, जिनकी समस्या कोविड ने और भी बढ़ा दी है.

कई शहरों में स्कूलों के जरिए राहत का सामान भी लोगों तक पहुंचाया जा रहा है. अकेले दिल्ली में 250 के ऊपर स्कूल राहत कार्यों में लगे हुए हैं, और सभी स्कूलों में टीचरों को इन कामों  में लगना पड़ा है. कॉन्ट्रैक्ट टीचर्स अगर काम के लिए नहीं आ रहे तो उन्हें पैसे नहीं मिल रहे. साथ ही अगर स्कूल सरकारी आदेशों पर कम स्टाफ के साथ काम करने की कोशिश करते हैं तो इससे कई शिक्षकों की नौकरियों पर भी खतरा मंडरा सकता है. इसलिए कई टीचर इस बात से भी चिंतित हैं.

मुश्किल होगी स्कूलों में वापसी

अगर सरकार ऑनलाइन क्लास और फिजिकल क्लास के बीच स्कूली शिक्षा को बांट देती है तो इससे अमीर और गरीब बच्चों के बीच की खाई और गहरी हो जाएगी. गरीब परिवारों के बच्चे जो स्मार्टफोन और कंप्यूटर नहीं खरीद सकते और अमीर परिवार जो बच्चों को घर में रखकर पढ़ा सकते हैं. साथ ही लॉकडाउन के दौरान घर में रह कर पढ़ने की आदत डाल रहे बच्चों की स्कूल जाकर और टीचरों से आमने सामने पढ़ने की आदत भी छूट चुकी होगी. बच्चों के लिए ये बदलाव आसान नहीं.

कोविड-19 के साथ परिवारों पर आई मुसीबतें भी बच्चों पर असर डाल रही हैं. घर में गरीबी का सीधा रिश्ता बच्चों की पढ़ाई रुकने और स्कूल छोड़ने से है. लॉकडाउन से निकल कर स्कूल जाने वाले कई बच्चों ने पैसों की कमी, घर में तनाव जैसी कई चीजें देख ली हैं. ऐसे में बच्चों की पढ़ाई और उनके मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखने का काम स्कूलों के लिए बड़ा है. साथ ही ज्यादातर बच्चों की स्क्रीन पर ज्यादा समय बिताने की भी आदत हो गई है, जिसे बदल पाना मुश्किल है. शायद स्कूलों में मेंटल हेल्थ और काउंसलिंग की भी जरूरत पड़े.

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