2020 में जब कोरोना वायरस की लहर ने कहर बरपाया और पूरे भारत को एकाएक लॉकडाउन में डाल दिया गया, तब मोहम्मद तनवीर भूखे-प्यास पैदल चलते हुए या किसी से लिफ्ट मांगते हुए 1,900 किलोमीटर दूर अपने घर पहुंचे थे. हजारों प्रवासी मजदूरों की तरह लॉकडाउन में तनवीर की भी नौकरी चली गई थी और उनके पास घर जाने के अलावा कोई चारा नहीं था. तब उन्होंने कसम खाई कि वह अपने परिवार से दूर जाकर काम नहीं करेंगे.
पूर्वी बिहार के रहने वाले तनवीर अब पूर्वी दिल्ली की एक मार्बल फैक्ट्री में काम करते हैं. वह अपनी पत्नी और बच्चों को भी साथ ले आए हैं. वह बताते हैं, "मेरी शादी दस साल पहले हुई थी लेकिन यह पहली बार है कि मेरी पत्नी और दोनों बच्चे मेरे साथ रह रहे हैं. चेन्नै में काम करते हुए मेरे पास यह विकल्प नहीं था.”
कड़ाके की सर्दी में कुछ ऐसे रात गुजारते हैं दिल्ली के बेघर
2020 में जब लॉकडाउन लागू हुआ तब तनवीर तमिलनाडू की राजधानी चेन्नई की एक मार्बल फैक्ट्री में काम कर रहे थे. नौकरी जाने के बाद उन्हें घर पहुंचने में बहुत मुश्किलें हुईं क्योंकि कोई साधन उपलब्ध नहीं था. वह बताते हैं, "तब मैं अक्सर परेशान रहता था कि घर में कोई बीमार हो गया तो क्या होगा. मैं इतनी दूर घर कैसे जाऊंगा. तब मैंने फैसला किया कि मैं घर से इतनी दूर काम नहीं करूंगा. मेरे परिवार ने भी कहा कि घर के पास रहना ही बेहतर है.”
उस अनुभव ने दिया सबक
तनवीर उन एक करोड़ से ज्यादा मजदूरों में से एक थे जिन्होंने भीषण गर्मी में हजारों किलोमीटर पैदल यात्रा की ताकि वे अपने घर पहुंच सकें. तब भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक दिन टीवी पर आकर एकाएक लॉकडाउन का आदेश जारी कर दिया था. चूंकि सब कुछ पूरी तरह बंद हो गया था और लोगों के पास इतना वक्त भी नहीं था कि कोई वैकल्पिक इंतजाम कर सकें, इसलिए ये करोड़ों मजदूर पैदल ही सामान उठाकर घरों को निकल लिए थे. पैदल चलते उन मजदूरों की तस्वीरें दुनियाभर में वायरल हुई थीं.
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गुलामी के भवर में आज भी फसें हैं भारत के कई लोग
भारत में दुर्दशा
80 लाख की संख्या के साथ भारत में सबसे ज्यादा आधुनिक गुलाम रहते हैं. इसके बाद 38.6 लाख के साथ चीन इस मामले में दूसरे स्थान पर आता है. पाकिस्तान में 31.9 लाख, उत्तर कोरिया में 26.4 लाख और नाइजीरिया में 13.9 लाख लोग आज भी गुलाम हैं.
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गुलामी के धंधे
मुनाफे के लिए लोगों से हर तरह का काम कराया जा रहा है. उन्हें देह व्यापार, बंधुआ मजदूरी और अपराधों की दुनिया में धकेला जा रहा है. कहीं उनसे भीख मंगवाई जा रही है, तो कहीं घरों में उनका शोषण हो रहा है. जबरन शादी और अंगों के व्यापार में भी उन्हें मुनाफे का जरिया बनाया जा रहा है.
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कुल कितने गुलाम
दुनिया में कम से 4.03 करोड़ लोग गुलामों की तरह रह रहे हैं. इसमें से दो करोड़ से खेतों, फैक्ट्रियों और फिशिंग बोट्स पर काम लिया जा रहा है. 1.54 करोड़ को शादी के लिए मजबूर किया जाता है जबकि पचास लाख लोग देह व्यापार में धकेले गए हैं.
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यूएन का लक्ष्य
संयुक्त राष्ट्र का कहना है कि इंसानों की तस्करी तेजी से बढ़ते हुए अपराध उद्योग की जगह ले रही है. संयुक्त राष्ट्र ने 2030 तक बंधुआ मजदूरी और जबरी विवाह को खत्म करने का लक्ष्य रखा है. लेकिन यह काम बहुत ही चुनौतीपूर्ण है.
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इंसानी तस्करी विरोधी दिवस
कहां पर कितने लोगों से गुलामों की तरह काम लिया जा रहा है, इस पर कहीं विश्वसनीय आंकड़े नहीं मिलते. लेकिन कुछ आंकड़े और तथ्य इतना जरूर बता सकते हैं कि समस्या कितनी गंभीर है. इसी की तरफ ध्यान दिलाने के लिए यूरोपीय संघ 18 अक्टूबर को इंसानी तस्करी विरोधी दिवस मनाता है.
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महिलाएं और लड़कियां निशाना
आधुनिक गुलामों में हर दस लोगों में सात महिलाएं और लड़कियां हैं जबकि इनमें एक चौथाई बच्चे शामिल हैं. वैश्विक स्तर पर देखें तो हर 185 लोगों में से एक गुलाम है. आबादी के हिसाब से उत्तर कोरिया में सबसे ज्यादा आधुनिक गुलाम रहते हैं.
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कहां क्या स्थिति
उत्तर कोरिया में 10 प्रतिशत आबादी को गुलाम बनाकर रखा गया है. इसके बाद इरिट्रिया में 9.3 प्रतिशत, बुरुंडी में चार प्रतिशत, सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक में 2.2 प्रतिशत और अफगानिस्तान में 2.2 प्रतिशत लोग गुलामों की जिंदगी जी रहे हैं.
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तो किसे अपराध कहेंगे?
2019 की शुरुआत तक 47 देशों में इंसानी तस्करी को अपराध घोषित नहीं किया गया था. 96 देशों में बंधुआ मजदूरी अपराध नहीं थी जबकि 133 देशों में जबरन शादी को रोकने वाला कोई कानून नहीं था.
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विकसित देश भी पीछे नहीं
अनुमान है कि इंसानी तस्करी से हर साल कम से कम 150 अरब डॉलर का मुनाफा कमाया जा रहा है. विकासशील ही नहीं, विकसित देशों में भी आधुनिक गुलाम मौजूद हैं. ब्रिटेन में 1.36 लाख और अमेरिका में चार लाख लोगों से गुलामों की तरह काम लिया जा रहा है. (स्रोत: अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन, वॉक फ्री फाउंडेशन)
उन दुरूह यात्राओं ने इन मजदूरों के लिए बहुत कुछ बदल दिया. भारत में काम करने वाले लोगों का लगभग 20 प्रतिशथ यानी 14 करोड़ लोग ऐसे हैं जो असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं. ये लोग बेहद कठिन परिस्थितियों में, बहुत कम अधिकारों के साथ और अक्सर बहुत कम तन्ख्वाहों पर काम करते हैं.
कोविड लॉकडाउन के अनुभव ने इन मजदूरों को अपने लिए कुछ फैसले लेने पर मजबूर किया. बहुत से मजदूरों ने फैसला किया कि वे ज्यादा दूर जाकर काम नहीं करेंगे और घर के आसपास ही काम तलाशेंगे. मजदूरों के अधिकारों के लिए कार्यकर्ता कहते हैं कि कोरोना वायरस की बार-बार आ रही लहरों के कारण और दूर-दराज शहरों में खराब होतीं काम की परिस्थितियों के चलते बहुत से प्रवासी मजदूर अब घरों के नजदीक काम खोज रहे हैं. और, जो दूर शहरों में काम करने जा भी रहे हैं, वे मजबूत नेटवर्क बना रहे हैं ताकि जरूरत के समय एक दूसरे की मदद कर सकें.
बिहार में उद्योग-धंधे खस्ताहाल, कैसे रूकें प्रवासी कामगार
केरल में स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ माइग्रेशन एंड डेवेलपमेंट नामक संस्था के अध्यक्ष एस इरूदया राजन कहते हैं, "लंबी दूरी के आप्रवासन में अब कमी आएगी. मजदूरों को वे दिन याद हैं और वे उस तरह के हालात को टालना चाहते हैं. अनिश्चितताओं को कम करने के लिए वे कम दूरी की ही यात्राएं करना चाहते हैं.”
कामगारों के अधिकार
प्रवासी मजदूरों को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ माना जाता है. अपने दूर-दराजों गांवों से हजारों किलोमीटर दूर जाकर बड़े शहरों में ये लोग रिक्शा चलाने, टैक्सी चलाने, कपड़े सिलाई करने, भवन निर्माण में मजदूरी करने से लेकर फसल की कटाई आदि तक जैसे काम करते हैं जिनके बूते पर देश की अर्थव्यवस्था चलती है. जब ये लोग दूर शहरों में काम कर रहे होते हैं तब इनके परिवार अक्सर गांवों में संघर्ष करते हैं.
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कब-कब सरकार ने कहा आंकड़े नहीं हैं
ऑक्सीजन की कमी से मौत
कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की कमी से किसी की भी मौत नहीं होने के बयान के बाद सरकार दोबारा से डेटा जुटाएगी. सरकार ने संसद में 20 जुलाई को बयान दिया था कि देश में ऑक्सीजन की कमी से किसी की भी मौत नहीं हुई थी. लेकिन विपक्षी दलों के हंगामे और आलोचना के बाद सरकार ने राज्यों से दोबारा से ऑक्सीजन की कमी से होने वाली मौतों का आंकड़ा मांगा है.
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कब-कब सरकार ने कहा आंकड़े नहीं हैं
प्रवासी मजदूरों की मौत
कोरोना की पहली लहर में लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूर पैदल ही शहरों से गांव की ओर निकल पड़े. सफर के दौरान प्रवासी मजदूरों की सड़क हादसे, रेल ट्रैक पर चलने और अन्य कारणों से मौत हुई. स्ट्रैंडेड वर्कर्स एक्शन नेटवर्क के आंकड़ों के मुताबिक पिछले लॉकडाउन के दौरान 971 प्रवासी मजदूरों की गैर कोविड मौतें हुईं. सरकार ने कहा था कि लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों की मौत के बारे में उसके पास डेटा नहीं है.
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कब-कब सरकार ने कहा आंकड़े नहीं हैं
बेरोजगारी और नौकरी गंवाने पर डेटा
मानसून सत्र में सरकार से सभी दलों के कम से कम 13 सांसदों ने कोरोना महामारी के दौरान बेरोजगारी और नौकरी गंवाने वालों का स्पष्ट डेटा मांगा था, लेकिन सरकार ने डेटा मुहैया नहीं कराया. इसके बदले केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भर भारत पैकेज, मेड इन इंडिया परियोजनाओं, स्वरोजगार योजनाओं और ऋणों का विवरण देकर इस मुद्दे को टाल दिया.
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किसान आंदोलन के दौरान मौत का आंकड़ा
23 जुलाई 2021 को केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा था कि किसान आंदोलन के दौरान कितने किसानों की मौत हुई इसकी जानकारी नहीं है, लेकिन पंजाब सरकार ने जो डेटा इकट्ठा किया है उसके मुताबिक कुल 220 किसानों की राज्य में मौत हुई. राज्य सरकार ने मृतकों के परिजनों को 10.86 करोड़ मुआवजा भी दिया है.
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कितना काला धन
मानसून सत्र में सरकार ने कहा है कि पिछले दस साल में स्विस बैंकों में कितना काला धन छिपाया गया है उसे इस बारे में कोई आधिकारिक अनुमान नहीं है. लोकसभा में कांग्रेस सांसद विन्सेंट एच पाला के सवाल के लिखित जवाब में वित्त राज्य मंत्री पंकज चौधरी ने यह बात कही. साथ ही उन्होंने कहा कि सरकार ने बीते कई सालों में विदेशों में छिपाए गए काले धन को लाने की कई कोशिशें की हैं.
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क्रिप्टो करेंसी के कितने निवेशक
भारत में काम कर रहे निजी क्रिप्टो करेंसी एक्सचेंजों की संख्या बढ़ रही है, केंद्र के पास उन पर कोई आधिकारिक डेटा नहीं है. इन एक्सचेंजों से जुड़े निवेशकों की संख्या के बारे में भी कोई जानकारी नहीं है. देश में एक्सचेंजों की संख्या और उनसे जुड़े निवेशकों की संख्या पर एक प्रश्न के उत्तर में वित्त मंत्री ने 27 जुलाई को संसद में एक लिखित जवाब में कहा, "यह जानकारी सरकार द्वारा एकत्र नहीं की जाती है."
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पेगासस जासूसी मामला
भारत ही नहीं पूरी दुनिया में पेगासस जासूसी मामला इस वक्त सबसे गर्म मुद्दा है. दुनिया के 17 मीडिया संस्थानों ने एक साथ रिपोर्ट छापी, जिनमें दावा किया गया था कि पेगासस नाम के एक स्पाईवेयर के जरिए विभिन्न सरकारों ने अपने यहां पत्रकारों, नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के फोन हैक करने की कोशिश की. भारत के संचार मंत्री ने इस मामले में लोकसभा में एक बयान में कहा कि फोन टैपिंग से जासूसी के आरोप गलत है.
रिपोर्ट: आमिर अंसारी
भारत में मजदूर अधिकारों के लिए संघर्ष का लंबा इतिहास होने के बावजूद प्रवासी मजदूर बहुत कम यूनियन आदि के सदस्य बनते हैं. इस बारे में जानकार कहते हैं कि ये लोग अक्सर असंगठित क्षेत्र में समयबद्ध काम करते हैं.
18 साल तक गुजरात के सूरत में एक बुनकर के तौर पर काम कर चुके लिंगराज सेती अब कपड़ा मजदूरों के एक संगठन के सदस्य हैं जिसका नाम है प्रवासी श्रमिक सुरक्षा मंच. लॉकडाउन के दौरान इस संगठन ने अहम भूमिका निभाई थी. प्रवासी मजदूरों को खाना, पानी, मास्क और सैनेटाइजर आदि उपलब्ध कराने से लेकर घर ले जाने के लिए ट्रेन उपबल्ध कराने तक का काम इस संगठन ने किया.
संगठित हो रहे हैं मजदूर
ओडिशा स्थित अपने घर से 1,500 किलोमीटर दूर काम करने वाले सेती बताते हैं, "प्रवासी मजदूर भी ऐसे संगठनों का हिस्सा बनना चाहते हैं जहां वे जरूरत पड़ने पर मदद मांग सकें.” महामारी के बाद से प्रवासी श्रमिक सुरक्षा मंच का आकार लगातार बढ़ रहा है. सेती बताते हैं कि लॉकडाउन से पहले यानी मार्च 2020 में संगठन के 3,300 सदस्य थे जो अब बढ़कर पांच हजार को पार कर गए हैं.
यह संगठन मजदूरों को रोजमर्रा की समस्याओं के अलावा मेहनताने के लिए मोलभाव करने, काम के घंटों पर बात करने और काम के हालात सुधारने जैसी मांगों की ओर भी जागरूक कर रहा है. 2020 में संगठन ने एक औपचारिक यूनियन के तौर पर रजिस्ट्रेशन करा लिया था.
सेती कहते हैं कि बहुत से कामगारों को लॉकडाउन के दौरान घर चलाने के लिए कर्ज लेना पड़ा, जिसे वे अब तक चुका नहीं पाए हैं. वह कहते हैं, "मजदूर जितनी मेहनत करते हैं, उन्हें उतना सम्मान नहीं मिलता. मजूदर एक दूसरे की मदद के लिए साथ आ रहे हैं ताकि उनके लिए हालात बेहतर हों.”
वीके/एए (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)