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समाज

कोरोना से काम-धंधा चौपट, कर्ज में डूब रहे ग्रामीण

६ जुलाई २०२१

सात सदस्यों वाले परिवार का पेट पालने वाली आशा देवी को अब यह भी याद नहीं कि उन्हें कितनी बार खाना छोड़ना पड़ा. कोरोना गांवों में कर्ज और ब्याज की पुरानी समस्या को और बढ़ा रहा है.

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तस्वीर: DW/S. Bandopadhyay

35 साल की आशा देवी को 20 हजार रुपये के कर्ज लिए अपनी जमीन गिरवी रखनी पड़ी. कर्ज लिए हुए छह महीने बीत गए हैं और उन्होंने दूध खरीदना बंद कर दिया है, क्योंकि घर में पैसे नहीं है. खाना बनाने के लिए वह बहुत कम तेल का इस्तेमाल करती हैं और दस दिन में एक ही बार दाल खरीद पाती हैं.

निर्माण कार्य करने वाले उनके पति के पास काम नहीं और वह कर्ज में और डूबती जा रही हैं. उत्तर प्रदेश के एक गांव से आशा समाचार एजेंसी रॉयटर्स से कहती हैं, "मैं कभी भूखे पेट सो जाती हूं. पिछले हफ्ते मैं दो बार भूखे पेट सोई, अब मुझे याद नहीं है."

आशा अपनी कहानी बताते हुए रो पड़ती हैं. वह यूपी के एक गांव में कच्चे मकान में रहती है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार ने गरीबों के लिए मुफ्त में राशन देने का ऐलान किया है. आशा कहती हैं कि राशन तो मिलता है लेकिन उतना नहीं होता है जो परिवार के लिए पर्याप्त हो. पिछले साल कोरोना वायरस के संक्रमण को रोकने के लिए लगाया लॉकडाउन शहरों में काम करने वाले लाखों लोगों को बेरोजगार कर गया. वे अपने गांवों में वापस लौटने को मजबूर हुए और कर्ज के चक्कर में फंस गए.

Indien | Corona Händehygiene in Slums
सरकार ने मुफ्त राशन देने का ऐलान किया हैतस्वीर: Deepalaya

गांव में काम नहीं, कर्ज लेने को मजबूर

भारत के सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य के आठ गांवों के समूह में 75 परिवारों के साथ साक्षात्कार से पता चलता है कि घरेलू आय में औसतन 75 फीसदी तक की गिरावट दर्ज की गई और लगभग दो तिहाई परिवारों ने कर्ज लिया है.

आशा का पति पंजाब में निर्माण मजदूर था लेकिन काम नहीं होने की वजह से उसे गांव लौटना पड़ा. अब वह गांव में काम की तलाश में जुटा है. इसी गांव के अन्य पुरुष भी बेरोजगार हो गए हैं और हर सुबह इस उम्मीद के साथ ईंट भट्टे के पास जमा होते हैं कि उन्हें काम मिलेगा.

ग्रामीण भारत में पैसों का संकट

देहात इलाकों में बड़ा कर्ज और कम आय आर्थिक सुधार को रोकेगी, जिसे सरकार पैदा करने की कोशिश कर रही है. अर्थशास्त्रियों का कहना है कि इससे निजी बचत और निवेश भी प्रभावित होगा. अर्थशास्त्री और बेंगलुरु स्थित बीएएसई विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर एनआर भानुमूर्ति के मुताबिक, "इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ेगा और यह रिकवरी को लंबा खींचेगा. निजी खपत और निवेश दोनों को नुकसान होगा. लोगों के हाथों में पैसे देने के तरीकों पर ध्यान देना होगा."

55 साल के कोमल प्रसाद कहते हैं, "गांव के करीब-करीब सभी लोग कर्ज में हैं...बेरोजगारी सबसे बड़ी समस्या है." प्रसाद के छोटे से गौरिया गांव की आबादी करीब दो हजार है. 35 साल की जुग्गी लाल कहती हैं उन्हें अपने अपाहिज पति के लिए दवा खरीदने के लिए जद्दोजहद करनी पड़ रही है. उनके पास काम नहीं है और उन्होंने 60 हजार रुपये का कर्ज ले रखा है.

जुग्गी लाल कहती हैं, "हर सुबह मैं यही सोचती हूं कि क्या काम मिलेगा, मेरा दिन कैसे पार होगा?"

एए/सीके (रॉयटर्स)

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