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मानवाधिकारबांग्लादेश

वीटो की दुनिया में अपनी घरवापसी का इंतजार करते रोहिंग्या

जुबैर अहमद
२६ अगस्त २०२२

रोहिंग्या मुसलमानों के म्यांमार से बांग्लादेश पलायन के पांच साल हो गए हैं. शरणार्थी शिविरों में रह रहे लोगों का कहना है कि उन्हें इसके अंत की उम्मीद नहीं दिख रही है.

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Bangladesch l Rohingya Camp l Mishara
तस्वीर: Zobaer Ahmed/DW

रोहिंग्या मुसलमानों के सबसे बड़े और सबसे नए पलायन को पांच साल हो गए हैं. बांग्लादेश के शिविरों में रह रहे इन शरणार्थियों का कहना है कि वो जिस अंधकार में रह रहे हैं, उन्हें लगता है कि यह खत्म होने वाला नहीं है. वापस जाने और एक सामान्य जीवन जीने की उम्मीद ये लोग छोड़ चुके हैं. बांग्लादेश में इस वक्त करीब दस लाख रोहिंग्या रह रहे हैं, लेकिन ऐसे बहुत कम लोग हैं जो इसे अपना घर कहते हों.

हाल ही में, हसीना बेगम ने अपने पिता से सार्वजनिक कुंए से पानी लाने को कहा क्योंकि उनके पति शरणार्थी शिविर के बाहर गया हुए थे. 25 वर्षीय यह महिला खुद से पानी इसलिए नहीं ला सकती थी क्योंकि वह शारीरिक रूप से बहुत कमजोर थी. अपनी शारीरिक अपंगता को वो अपने दुपट्टे से ढकने की कोशिश करती है.

पूछने पर वह पांच साल पुरानी घटना का जिक्र करते हुए रो पड़ती हैं. बेगम कहती हैं, "म्यांमार सैनिकों ने मुझे डंडे से मारा. मेरा शरीर खून से भीग गया. उन्हें लगा कि मैं मर गई हूं, इसलिए वो मुझे छोड़कर वहां से चले गए.”

कॉक्स बाजार के कैंप में रहती हसीन बेगम
कॉक्स बाजार के कैंप में रहती हसीन बेगमतस्वीर: Zobaer Ahmed/DW

पांच साल बाद भी बेगम को उस चोट की वजह से सिर और पैर में दर्द होता है. बेगम भी म्यांमार सेना की उस क्रूरता की शिकार हैं जो उसने 2017 में रोहिंग्या मुसलमानों पर दिखाई थी. म्यांमार की सेना ने 25 अगस्त 2017 को कुछ रोहिंग्या आतंकवादियों द्वारा सीमा पर हमले के बाद उत्तरी रखाइन प्रांत में बड़े पैमाने पर नरसंहार, बलात्कार और आगजनी की थी. 

डॉक्टर्स विदाउड बॉर्डर्स समेत कई अंतरराष्ट्रीय संगठनों के मुताबिक, इस अभियान में हजारों रोहिंग्या मारे गए. संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, पलायन के वक्त करीब साढ़े सात लाख रोहिंग्या पड़ोसी देश बांग्लादेश भाग गए. यह आंकड़ा अब दस लाख से ऊपर हो गया है. बेगम और उनका परिवार फिलहाल शरणार्थी शिविर में रह रहा है.

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बांग्लादेशी शिविरों में जीवन

बेगम, कॉक्स बाजार स्थित बालूखाली शिविर में अपने पति और बच्चे के साथ एक छोटे से दो कमरे वाले घर में रहती हैं. यह शिविर दुनिया का सबसे बड़ा शरणार्थी शिविर है जहां रिफ्यूजी काउंसिल यूएसए के मुताबिक, करीब छह लाख शरणार्थी रहते हैं.

बेगम कहती हैं, "मेरे पति के पास कोई काम नहीं है. वो भोजन और अन्य चीजों के लिए तबलीक में जाते हैं.”

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यहां बेगम के 44 वर्षीय पिता इनायतुल्लाह की तरह ज्यादातर लोग बेरोजगार हैं. इनायतुल्लाह पानी के एक बर्तन के साथ वापस आते हैं. इनायतुल्लाह कहते हैं, "हमारे पास एक बड़ा खेत था. हम लोग वहां खेती करते थे. हमारे पास मवेशी भी थे, एक घर भी था और बहुत सारा सामान था. लेकिन हमें उन सब चीजों को छोड़कर आना पड़ा.”

इनायतुल्लाह कहते हैं कि म्यांमार छोड़ते वक्त हमने अपने सामान और अन्य चीजों के बारे में नहीं सोचा लेकिन अब पांच साल बाद वो अपने घर, जमीन और अन्य चीजों को बहुत याद करते हैं.

काम की तलाश, पर उम्मीद नहीं

शिविरों में रह रहे तमाम लोग काम करना चाहते हैं और अपनी जिंदगी को नए सिरे से जीना चाहते हैं. 33 साल के मोहम्मद शफी कहते हैं, "हम शिविरों के बाहर नहीं जा सकते हैं. कभी-कभी हमें काम पर बुला लिया जाता है लेकिन ऐसा बहुत कम होता है.”

रोहिंग्या शरणार्थियों के बच्चों के लिए पढ़ाई के भी बहुत सीमित अवसर हैं. मोहम्मद रियाज दसवीं कक्षा में पढ़ते हैं. शिविर के भीतर रहकर पढ़ने का यह उनका आखिरी साल है. इसके बाद यहां पढ़ाई की कोई सुविधा नहीं है. डीडब्ल्यू से बातचीत में रियाज कहते हैं, "इस साल के बाद मेरे पास आगे पढ़ने का कोई मौका नहीं है लेकिन मैं आगे भी पढ़ना चाहता हूं.”

अवसरों की तलाश में कई रोहिंग्या शिविरों से बाहर आने की कोशिश में लगे रहते हैं और बांग्लादेश से बाहर जाना चाहते हैं. ह्यूमन राइट्स वॉच के एशिया डायरेक्टर एलेन पियर्सन ने 2017 के पलायन की वर्षगांठ पर एक वक्तव्य जारी किया है. उनका कहना है, "दान देने वालों को रोहिंग्या शरणार्थियों की पढ़ाई और काम में मदद करनी चाहिए ताकि स्वतंत्रता और सुरक्षा के साथ काम करते हुए वो आत्मनिर्भर बन सकें और अपना भविष्य संवार सकें.”

मोहम्मद शफी भी शरणार्थी की जिंदगी जीते जीते उकता गए हैं
मोहम्मद शफी भी शरणार्थी की जिंदगी जीते जीते उकता गए हैंतस्वीर: Zobaer Ahmed/DW

संयुक्त राष्ट्र की प्रतिनिधि बेशलेट का बांग्लादेश दौरा

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयुक्त मिशेल बेशलेट ने हाल ही में बांग्लादेश के रोहिंग्या शरणार्थी शिविरों का दौरा किया. उनके साथ रोहिंग्या समुदाय के प्रतिनिधि भी थे. इन लोगों का कहना था कि वो अपना एक बेहतर भविष्य बनाना चाहते हैं.

इनायतुल्लाह कहते हैं, "मैं एक दिन अपने घर जाना चाहता हूं लेकिन मुझे पता नहीं कि ऐसा कब होगा?”

शरणार्थी शिविरों में रोहिंग्या लोगों की जिंदगी जैसे जेल में बीत रही है और वहां से बाहर निकलने की कोई उम्मीद भी उन्हें नहीं दिख रही है. तस्मीद बेगम डीडब्ल्यू से बातचीत में कहती हैं, "जब मैं अपनी मातृभूमि को याद करती हूं तो मैं परेशान हो जाती हैं. मैं अपने घर वापस जाना चाहती हूं. लेकिन तभी जाना चाहूंगी जब मुझे वहां शांति मिलेगी और हमारी चीजें वापस मिल जाएंगी.”

तस्मीदा बेगम इस बात से भी डरी हुई हैं कि अगर वो वापस जाती हैं तो सेना उन पर दोबारा हमला कर देगी. साल 2017 के हमले में उनके एक भाई और एक देवर की मौत हो गई थी.

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ऑन्ग क्यॉ मो, आंग सान सू ची की पार्टी एनएलडी के नेतृत्व वाली म्यांमार की नेशनल यूनिटी सरकार में सलाहकार हैं. म्यांमार की सरकार में कोई पद धारण करने वाले वो अकेले रोहिंग्या हैं. डीडब्ल्यू से बातचीत में वो कहते हैं कि इन लोगों की वापसी संभव नहीं है क्योंकि म्यांमार की सरकार की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं है. मो कहते हैं, "ऐसा नहीं होने वाला है क्योंकि म्यांमार की सरकार में राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव है. वे नहीं चाहते कि रोहिंग्या वापस जाएं.”

म्यांमार, बांग्लादेश और संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न निकायों के बीच रोहिंग्या की घर वापसी पर बातचीत जारी है. इसके लिए रोहिंग्या शरणार्थियों की सूची बनाने के लिए एक संयुक्त कार्य बल का काम अपने अंतिम दौर में है. शरणार्थी राहत और प्रत्यावर्तन आयुक्त के दफ्तर में अतिरिक्त आयुक्त शमसूद डूजा कहते हैं, "हमने उन्हें 8,30,000 रोहिंग्या की सूची पहले ही सौंप दी है. उन्होंने इसे स्वीकार भी कर लिया है. हम इन लोगों को मानवीय सहायता पहुंचा रहे हैं लेकिन आखिरकार कभी न कभी तो इन्हें शिविर छोड़ना ही होगा.” 

बांग्लादेश चाहता है कि सारे रोहिंग्या म्यांमार वापस भेजे जाएं. रविवार को, बांग्लादेश के विदेश मंत्री मसूद बिन मोमेन ने पत्रकारों से बातचीत में कहा कि साल 2022 के अंत तक इन्हें भेजने का काम शुरू हो जाएगा. उनका कहना था, "हमें उम्मीद है कि इस साल के अंत तक हम इन्हें वापस भेजने की कार्रवाई शुरू कर सकते हैं. ऐसा हम अपने हित में कर रहे हैं कि क्योंकि ये हमारे लिए अब बोझ हो गए हैं.”

इससे पहले भी इनकी घरवापसी की दो कोशिशें हो चुकी हैं लेकिन दोनों ही असफल रहीं. मो इसके लिए प्रक्रिया को दोषी ठहराते हैं, "म्यांमार के पास सूची है. उन्हें पता है कि कौन लोग भागे हैं. यदि वो सच में चाहते हैं कि इनकी वापसी हो तो उन्हें वह सूची बांग्लादेश को उपलब्ध करानी चाहिए ताकि लोगों को ढूंढ़ा जा सके और फिर उन्हें वापस म्यांमार भेजा जा सके.”

क्या न्याय हो सकेगा?

पांच साल हो गए हैं लेकिन म्यांमार में रोहिंग्या के साथ हुई इस बर्बर घटना के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया है. जांबिया ने अंतरराष्ट्रीय न्यायाल में इस नरसंहार के खिलाफ एक मुकदमा दर्ज कराया है. मुकदमे की सुनवाई जारी है. म्यांमार सरकार ने एक अपील फाइल की थी लेकिन उसे खारिज कर दिया गया था.

मानवाधिकार संगठनों की मांग है कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद अपनी निष्क्रियता को समाप्त करते हुए म्यांमार पर वैश्विक हथियार प्रतिबंध लगाने के लिए एक प्रस्ताव पर तत्काल बातचीत करे. ह्यूमन राइट्स वॉच का कहना है कि सुरक्षा परिषद को स्थिति की गंभीरता को समझते हुए इसे अंतरराष्ट्रीय न्यायालय तक ले जाना चाहिए और जुंटा और सैन्य स्वामित्व वाले समूहों पर चुनिंदा प्रतिबंध लगाना चाहिए. लेकिन इस तरह की संयुक्त राष्ट्र की कार्रवाई को चीन और रूस वीटो कर सकते हैं.

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मो कहते हैं, "चीन रोहिंग्या के लिए हमेशा से ही समस्या खड़ा करता रहा है. हमें रूस और चीन की ओर से अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं, खासकर सुरक्षा परिषद के सामने खड़े गिए जाने वाले व्यवधानों से निपटने के लिए कोई रास्ता तलाशना होगा.”

हसीना बेगम कहती हैं कि उन्हें नहीं पता कि रोहिंग्या के साथ किस तरह से और कैसा न्याय होगा. उन्हें सामान्य जीवन जीने के लिए भी एक लंबा रास्ता तय करना होगा जिसमें मानसिक और अदृश्य शारीरिक घाव बाहर दिखने वाले घावों से कहीं ज्यादा होंगे. वो कहती हैं, "मुझे नहीं पता कि आगे क्या होगा. मुझे तो उनका भविष्य कहीं नहीं दिख रहा है.”