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समाज

क्या सरकारी विफलता के कारण बिहार में चमकी बुखार से मरे बच्चे

रवि रंजन
१४ नवम्बर २०१९

पिछले दो दशक से बिहार में चमकी बुखार का कहर जारी है. इससे प्रभावित होने वाले सबसे ज्यादा तादाद गरीब, पिछड़े, दलित और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चों की है. क्या यह सरकारी तंत्र की विफलता को दर्शाता है?

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Indien Baby Kleinkind Gesundheit
तस्वीर: picture-alliance/dpa/R.Shukla

गर्मी का मौसम आते ही बिहार के मुजफ्फरपुर, वैशाली, सीतामढ़ी, समस्तीपुर, शिवहर जैसे जिलों में बच्चों की मौत होनी शुरू हो जाती है. यह सिलसिला बारिश होने तक जारी रहता है. वर्ष 1995 से ही इस रहस्यमयी बीमारी की वजह से बच्चे काल के गाल में समा रहे हैं. बीच के कुछ सालों में मौत का आंकड़ा कम हुआ लेकिन इस साल 2019 में सरकारी बही-खातों में यह संख्या 180 के पार हो गई. वास्तविक संख्या काफी ज्यादा हो सकती है. स्थानीय लोगों ने इस बीमारी का नाम दिया है 'चमकी बुखार'. डॉक्टर कहते हैं कि यह वास्तव में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) है. इसे दिमागी बुखार भी कह सकते हैं. बीते दो दशक में हजारों बच्चे इस बुखार की वजह से काल के गाल में समा चुके हैं लेकिन विशेषज्ञ इसका उचित इलाज नहीं ढ़ूंढ पाए हैं.

क्या होता है चमकी बुखार

इस बुखार से सबसे ज्यादा बच्चे प्रभावित होते हैं. इसमें बच्चों के खून में शुगर और सोडियम की कमी हो जाती है और सही समय पर इलाज नहीं मिलने की वजह से उनकी मौत हो सकती है. ब्लड प्रेशर कम होना, सिरदर्द, थकान, लकवा, मिर्गी, भूख न लगना चमकी बुखार के लक्षण हैं. यह बीमारी मुख्य रूप से नर्वस सिस्टम को प्रभावित करती है. इसका असर इतनी तेजी होता है कि बच्चे बेहोश हो जाते हैं, कई बार वे कोमा में चले जाते हैं. ऐसी स्थिति में यदि सही वक्त पर इलाज न मिले तो मौत तय है.

इस साल जब चमकी बुखार की वजह से सैकड़ों बच्चों की मौत हुई तो शासन और प्रशासन पूरी तरह लाचार नजर आए. बिहार के कुछ युवा मदद के लिए प्रभावित क्षेत्र पहुंचे. पहले तो इन युवाओं ने लोगों के बीच डिहाइड्रेशन रोकने वाला ओआरएस घोल, ग्लूकॉन डी, बेबी फूड, सत्तू, पानी, बिस्किट, जूस और थर्मामीटर जैसी जरूरी चीजें बांटी. इस अभियान में शामिल सत्यम कुमार झा कहते हैं, "प्रभावित क्षेत्रों में पहुंचने पर जरूरी चीजें बांटने के अलावा हमने उनके बीच जागरुकता बढ़ाने का काम किया. उन्हें बीमारी के लक्षण बताए. हमने कहा कि समय-समय पर अपने बच्चों के शरीर के तापमान की जांच करते रहें. यदि बुखार 103 डिग्री फॉरेनहाइट हो, तुरंत नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र लेकर जाएं. ऐसा न हो कि बड़े अस्पताल में ले जाने में लगने वाले समय की वजह से बच्चा बीच रास्ते में ही दम तोड़ दे." सत्यम ने अपने साथियों के साथ मिलकर बुखार से पीड़ित 227 परिवारों से बातचीत की और एक रिपोर्ट तैयार की.

Indien Mädchen
तस्वीर: Getty Images/AFP/Z. Hussain

रिपोर्ट के अनुसार दलित, पिछड़ा और अल्पसंख्यक समुदाय के बच्चे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए. सामान्य श्रेणी के बच्चों की संख्या महज 3.5 फीसद रही. पीड़ित परिवारों में से 98 प्रतिशत परिवारों की आय 10 हजार रूपये से कम थी. 76 प्रतिशत परिवारों को इस बुखार के बारे में किसी तरह की जानकारी नहीं थी. प्रभावित बच्चों में से 53 फीसद ने बीमार होने से 24 घंटे पहले लीची खायी थी, वहीं 71 फीसद देर तक गर्मी में घूमते रहते थे. अस्पताल पहुंचाने के लिए एंबुलेंस की सेवा भी करीब 10 फीसद लोगों को ही मिली. सरकार ने यह घोषणा की थी कि जो लोग खुद एंबुलेंस लेकर आएंगे उन्हें चार सौ रुपये दिए जाएंगे लेकिन यह पैसा महज 10 फीसद लोगों को ही मिला. ज्यादातर लोगों ने अस्पताल कर्मियों के व्यवहार की तारीफ की लेकिन 30 फीसद लोगों ने यह भी कहा कि उन्हें दवा तक नहीं मिली.

सरकारी कमजोरी या लाचारी?

इस साल जब बीमारी का कहर बरपा तो केंद्र से लेकर बिहार सरकार तक सभी लाचार नजर आए. सिर्फ लाचारी ही नहीं स्थानीय सरकार की लापरवाही भी साफ नजर आई. सबसे ज्यादा मौत मुजफ्फरपुर स्थित एसके मेडिकल कॉलेज अस्पताल में दर्ज की गई. बच्चे यहां बुखार में तपते हुए आ रहे थे और कफन में लिपटकर वापस जा रहे थे. परिजनों के चित्कार से माहौल गमगीन था. मौत का तांडव शुरू होने के 14 दिनों बाद सूबे के मुखिया नीतीश कुमार की नींद खुली. वे एसकेएमसीएच पहुंचे और जायजा लेकर लौट गए. राज्य के उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने चमकी बुखार पर पत्रकारों के सवाल का जवाब तक नहीं दिया.

स्थानीय स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडेय चमकी बुखार को लेकर हुई बैठक के दौरान भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच का स्कोर पूछते नजर आए. केद्रीय स्वास्थ्य राज्य मंत्री अश्विनी चौबे केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन के साथ बैठक के दौरान उंघते रहे. विपक्षी पार्टी के नेता भी इस मुद्दे को उठाने की जगह पूरी तरह खामोश रहे. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आयुष्मान भारत कार्ड की लॉचिंग पर कहा था कि गरीब लोगों को अब इलाज में परेशानी नहीं आएगी लेकिन चमकी बुखार से पीड़ित परिवारों में से 81 फीसद के पास यह कार्ड नहीं था और किसी ने भी इस बीमारी में इस कार्ड का इस्तेमाल नहीं किया.

Indien Nitish Kumar nach den Wahlen in Bihar
तस्वीर: picture-alliance/AP Photo/A. A. Siddiqui

गरीबी और पिछड़ेपन से है इस बीमारी का रिश्ता

रिपोर्ट के नतीजे साफ दिखाते हैं कि बीमारी का संबंध पूरी तरह से गरीबी, पिछड़ेपन और अशिक्षा से है. सत्यम कहते हैं, "हमने कई ऐसे परिवारों को देखा जिनके घर में खाने के लिए पर्याप्त सामान नहीं थे. इस क्षेत्र में लीची की काफी पैदावार होती है. कई बच्चे रात को खाना नहीं खा पाते थे और सुबह-सुबह बागानों में जाकर लीची खा लेते थे. लीची में साइट्रिक एसिड होता है और खाली पेट खाने से यह काफी नुकसानदायक साबित होता है." रिपोर्ट के अनुसार बीमार बच्चों के परिजन बताते हैं कि सिर्फ 57 फीसद आंगनबाड़ी केद्रों में ही नियमित भोजन मिलता है. करीब आधे आंगनबाड़ी केद्रों में तो बच्चों के स्वास्थ्य की भी नियमित जांच नहीं की जाती है. यहां तक की 70 फीसद परिवारों को इस बीमारी के बारे में आशा कार्यकर्ता, आंगनबाड़ी कर्मचारी या फिर सरकारी कर्मचारी ने पहले से जानकारी भी नहीं दी थी. 

इस बीमारी से प्रभावित बच्चों में से एक बड़े हिस्से में कई तरह की मनौवैज्ञानिक और शारीरिक समस्याएं देखने को मिली. इसकी वजह से उनका समुचित शारीरिक और मानसिक विकास नहीं होता है. पिछले करीब दो दशक से हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत चमकी बुखार की वजह से होती थी. लेकिन 2014-15 में बिहार सरकार ने इस बुखार से बच्चों को बचाने के लिए एक स्टैंडर्ड प्रक्रिया तैयार की थी जिसका असर दिखा और मौत की संख्या में कमी आई. लेकिन 2019 में फिर से एक बार काफी संख्या में बच्चों की मौत हुई. पूरा बिहार असहाय नजर आया.

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