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समाज

जेल सुधार में राजस्थान सबसे आगे

अविनाश द्विवेदी
१ जुलाई २०२१

भारतीय जेलों की दुर्दशा के लिए क्षमता से अधिक कैदी, जेल में स्टाफ की कमी और बेहद कम बजट जिम्मेदार रहे हैं. इसकी एक वजह भारत में जेलों का राज्य सरकारों के अंतर्गत आना है, जिससे उन्हें पर्याप्त फंडिंग नहीं मिल पाती है.

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तस्वीर: Anindito Mukherjee/dpa/picture alliance

भारत की जेलें अमानवीय जिंदगी, गंदगी, बदतर खाने और कैदियों की हिंसक झड़पों के लिए कुख्यात रही हैं. लेकिन पिछले कई सालों से कुछ राज्यों में जेलों की स्थिति बदली है. जहां कैदियों में सुधार कर उन्हें समाज की मुख्यधारा में वापस जोड़ने का काम किया जा रहा है.

ऐसे राज्यों में राजस्थान, तेलंगाना और हिमाचल प्रदेश सबसे आगे रहे हैं. हालांकि सिर्फ जेल सुधार की बात करें तो राजस्थान सबसे आगे है. टाटा ट्रस्ट की 'इंडिया जस्टिस रिपोर्ट' के मुताबिक जेलों के मामले में राजस्थान, भारत के 18 बड़े और मध्यम राज्यों के बीच नंबर एक रहा है. साल 2021 में राजस्थान 12वें से सीधे पहले नंबर पर आ गया है.

भारतीय जेलों की दुर्दशा के लिए क्षमता से अधिक कैदी, जेल के लिए पुलिसकर्मियों की कमी और बेहद कम बजट जिम्मेदार रहे हैं. इसकी एक वजह भारत में जेलों का राज्य सरकारों के अंतर्गत आना है, जिससे उन्हें पर्याप्त फंडिंग नहीं मिल पाती है. राजस्थान की जेलों ने पिछले सालों में इन सभी पैमानों पर तरक्की की है.

न्याय और मानवाधिकार के क्षेत्र में काम करने वाले भारत के 7 प्रमुख एनजीओ मिलकर इंडिया जस्टिस रिपोर्ट तैयार करते हैं, जिसमें कहा गया है, "बजट के बेहतर इस्तेमाल, ज्यादा अधिकारियों की भर्ती, जेलों पर कम हुआ कैदियों का बोझ और जेल में अधिक महिला स्टाफ की भर्ती राजस्थान की इस सफलता की वजहें हैं."

जयपुर के बीचोंबीच तेंदुए

ओपेन जेलों में स्किल्ड कैदियों को रोजगार

राजस्थान में जेल महानिदेशक के पद से 30 जून को रिटायर हुए राजीव दासौत ने बताते हैं, "फिलहाल राजस्थान की जेलों में करीब 21 हजार कैदी हैं, जबकि यहां की 144 जेलों की कुल क्षमता 22 हजार कैदियों की है. जेल कर्मियों की भर्ती की प्रक्रिया लगातार जारी है और इस बार हमें जेलों के लिए मिला बजट राज्य के पुलिस बजट से करीब दोगुना है."

जेलों में आ रहे सुधार के चलते सरकार ने भी जेलों पर ध्यान देना शुरू किया है. राजस्थान में ओपन जेलों का कॉन्सेप्ट बहुत अच्छे से काम कर रहा है. विश्वास योग्य कैदियों को स्किल सिखाकर इन जेलों में शिफ्ट कर दिया जाता है. यहां रहते हुए वे सूर्योदय से सूर्यास्त तक बाहर जाकर कोई भी काम कर सकते हैं. इससे उन्हें फिर से समाज की मुख्यधारा में जोड़ने में मदद मिलती है. इनमें अब तक 1300 से ज्यादा कैदी शिफ्ट किए जा चुके हैं. इससे भी सामान्य जेलों पर कैदियों का बोझ कम हुआ है.

अब राजस्थान कैदियों को स्किल सिखाने के लिए राज्य स्तर पर कानून भी बना रहा है. जातिवाद के मोर्चे पर भी राजस्थान की जेलों में सुधार हुआ है. जातिवाद भारतीय समाज की सच्चाई है और जेलों में इसका और नृशंस रूप दिखता है. एक राजनीतिक गतिविधि के दौरान कुछ दिन उत्तर प्रदेश की फतेहपुर जेल में बंद रहे रिसर्च स्कॉलर आशुतोष राय कहते हैं, "जेलों, खासकर उत्तर प्रदेश जैसे राज्य की जेलों में बहुत जातिवाद है. जेल में पर्याप्त कर्मचारियों की कमी होने से ज्यादातर कामकाज सवर्ण कैदी ही संभाल रहे होते हैं."

हाल ही में राजस्थान की जेलों में 70 साल पुराना जाति आधारित कानून खत्म किया गया है. इसके बाद अब सफाई का काम केवल एससी समुदाय के लोगों को नहीं करना होगा और सिर्फ ब्राह्मण समुदाय के लोग खाना नहीं बनाएंगे.

जेल महानिदेशक ने कैदियों के साथ बनाई फिल्म

राजस्थान की जयपुर सेंट्रल जेल में एक और अनूठा प्रयोग देखने को मिला. पूर्व जेल महानिदेशक राजीव दासौत ने कैदियों की समाज में वापसी के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने के लिए एक फिल्म 'रोड टू रिफॉर्म' बनाई है. यह फिल्म जेल से बाहर आए दो कैदियों दिनकर और सीमा की कहानी है.

बारहवीं के तुरंत बाद जेल गया दिनकर वहीं कॉमर्स से ग्रेजुएशन पूरा करता है, जबकि सीमा जेल में सजा काटने के दौरान मेंहदी लगाना सीखती है. इसके बाद सीमा जहां समाज में सम्मान के साथ वापसी करने में सफल रहती है. दिनकर के साथ जेल में 5 साल काटने की बात एक धब्बे की तरह चिपकी जाती है और वह लगातार नौकरियों के इंटरव्यू में अच्छा प्रदर्शन करने के बाद भी रिजेक्ट होता रहता है और फिल्म के अंत तक उसे नौकरी नहीं मिल पाती.

राजीव दासौत कहते हैं, "फिल्म को देशभर में हजारों लोग देख चुके हैं. मुझे सैकड़ों लोगों से प्रतिक्रिया मिली है कि फिल्म के अंत में दिनकर को भी नौकरी मिल जानी चाहिए थी. लेकिन यह बात मैं नहीं चाहता. मैं इस फिल्म में यही सवाल खड़ा करना चाहता था कि जेल में हुए सुधार और सीखे हुनर के बावजूद हमारे समाज में जेल में समय गुजारकर आए लोगों के साथ एक कलंक जुड़ा रहता है, जो समाज में उनके फिर से शामिल हो पाने में बाधा बनता है."

दासौत कहते हैंn कि जो लोग फिल्म में दिनकर को नौकरी करते हुए देखना चाहते हैं, वो असल जिंदगी में भी उसे नौकरी देने को तैयार हों, तो फिल्म का मकसद खुद-ब-खुद पूरा हो जाएगा. उनके मुताबिक फिल्म के रिलीज होने के बाद कैदियों के उत्साह और मनोबल में काफी बढ़ोतरी हुई है.

मानसिक स्वास्थ्य पर भी दिया जा रहा जोर

जेल से निकलने के बाद लोगों की मुख्यधारा में वापसी आसानी नहीं होती. उनके साथ जुड़ा कलंक उन्हें समाज में आसानी से नहीं जुड़ने देता. हालांकि इस मसले पर रिसर्च करने वाले मयूरभंज लॉ कॉलेज, ओडिशा के प्रोफेसर डॉ बनमाली बारिक अपने रिसर्च पेपर में लिखते हैं, "जेल से निकलने वाले हर कैदी को आफ्टर केयर और फॉलोअप की जरूरत नहीं होती. बड़ी संख्या में कैदी ग्रामीण, खेतिहर और व्यापारिक समुदायों से आते हैं, जिन्हें आसानी से फिर परिवार में स्वीकार कर लिया जाता है."

इनके लिए सिर्फ अपनी जेल की अवधि के दौरान परिवार और रिश्तेदारों से संपर्क बना रहना और जेल से छोड़े जाने से पहले थोड़ी सी काउंसिलिंग काफी होती है. हालांकि बाद में भी उन्हें मदद, मार्गदर्शन, काउंसिलिंग और सहयोग की जरूरत पड़ती है. एक राजनीतिक गतिविधि के दौरान उत्तर प्रदेश की गाजीपुर जेल में बंद रहीं लेखिका प्रदीपिका सारस्वत बताती हैं, "सजा काट चुकी महिलाओं के लिए परिस्थितियां बहुत मुश्किल होती हैं. परिवार में रोजी-रोटी कमाने वाला न होने के चलते उन्हें ज्यादा भेदभाव झेलना पड़ता है."

राजस्थान की जेलों में इस पर भी काम हुआ है. राजीव दासौत बताते हैं, "कोरोना के चलते जेल में विजिट बंद थी. ऐसे में पूरे देश में कैदियों को घर पर हफ्ते में एक बार पांच मिनट की वीडियो कॉल करने की सुविधा दी गई थी. यहां हर जेल में एक मनोचिकित्सक भी है, जो कैदियों की जांच करता है." अब सरकार की एक नई योजना के मुताबिक कुछ जेलकर्मियों की वर्दी पर कैमरे लगाने का काम भी चल रहा है, जिससे कैदियों की गतिविधियों पर नजर रखना आसान होगा और कुछ असामान्य पाए जाने पर उनकी दवाओं या काउंसिलिंग के जरिए मदद दी जा सकेगी.

यूपी जैसे राज्यों में अब भी अमानवीय स्थिति

हालांकि अब भी कई समस्याएं हैं, जिन पर काम जारी है. मसलन 2017 में राजस्थान की जेलो में कैदियों ने मात्र 91 लाख रुपये का सामान बनाया था. जबकि एक नंबर पर रहे तेलंगाना के कैदियों ने 60 करोड़ रुपये का सामान बनाया था.

राजीव दासौत कहते हैं, "पहले राजस्थान में जहां हर कुशल कैदी को रोजाना 209 रुपये और अकुशल कैदी को 189 रुपये मेहनताना मिलता था, वह बढ़ाकर क्रमश: 249 और 225 रुपये रोजाना कर दिया गया है. हालांकि कैदियों का मेहनताना सरकार के न्यूनतम मजदूरी के आंकड़ों से लिंक करने की कोशिश सफल नहीं हो सकी है."

राजस्थान में कैदियों का जेलों से भागना अब भी एक समस्या है. राजस्थान के जोधपुर जिले की जेल से अप्रैल में 16 कैदी फरार हो गए थे.  हालांकि कुछ समस्याओं के बाद भी राजस्थान की ये जेलें, जेल सुधार में बुरी तरह पिछड़े उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों के लिए एक नजीर पेश करती हैं.

अपराध साबित हुए बिना भारत की जेलों में बंद कैदियों में से 23% सिर्फ उत्तर प्रदेश की जेलों में बंद हैं. इनमें बड़ी संख्या में समाज के वंचित तबके के लोग हैं. साथ ही वहां क्षमता से 5 गुना ज्यादा कैदी भी बंद हैं.

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