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ब्रेक्जिट के बाद क्या करवट लेंगे भारत-ब्रिटेन संबंध?

स्वाति बक्शी
११ जून २०२१

ब्रेक्जिट के बाद अपनी ठोस वैश्विक भूमिका तलाश रहे ब्रिटेन के लिए ये वक्त अपनी विदेश नीति को नए सिरे से गढ़ने और यूरोपीय यूनियन से निकलकर नए साथी तलाशने का है.

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G7-Gipfel in Frankreich Boris Johnson und Narendra Modi
ब्रिटिश प्रधानमंत्री जॉनसन और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी (फाइल फोटो)तस्वीर: imago images/i Images

ब्रेक्जिट के बाद अपनी ठोस वैश्विक भूमिका तलाश रहे ब्रिटेन के लिए ये वक्त अपनी विदेश नीति को नए सिरे से गढ़ने और यूरोपीय यूनियन से निकलकर नए साथी तलाशने का है. एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ब्रिटिश प्रभाव बढ़ाने और कॉमनवेल्थ के बहुपक्षीय मंच का इस्तेमाल करने का इरादा भी रिपोर्टों में सामने आया है. ब्रिटेन के कॉर्नवॉल में विकसित देशों के समूह जी7 की बैठक में भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व्यक्तिगत तौर पर शामिल नहीं हो रहे हैं, लेकिन वर्चुअल तौर पर हिस्सा लेंगे.  ब्रिटिश प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसन ने दुनिया के अमीर लोकतांत्रिक देशों की इस बैठक में ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण कोरिया के साथ भारत को भी आमंत्रित किया है. नए संदर्भ से उपज रहे अहम सवाल ये हैं कि दक्षिण- एशियाई इलाके में ब्रिटेन की नीति क्या होगी और क्या भारत-ब्रिटेन संबंधों में एक नए दौर की शुरूआत हो रही है?

ब्रिटिश विदेश नीति में भारत

ब्रेक्जिट का उथल-पुथल भरा दौर अभी पूरी तरह गुजरा नहीं है. ईयू के साथ संबंधों के भविष्य को लेकर अटकलें लगाना मुश्किल माना जा रहा है लेकिन ब्रिटेन की विदेश नीति और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की रूपरेखा को लेकर कुछ बातें साफ होती नजर आ रही हैं. लंदन के स्कूल ऑफ ओरिएंटल स्टडीज में दक्षिण-एशिया संस्थान में सीनियर लेक्चरर डॉ. अविनाश पालीवाल का कहना है, "मोटे तौर पर इस वक्त ब्रिटेन की विदेश नीति और भारत समेत किसी भी देश के साथ संबंधों में दो बातें सबसे अहम हैं. पहला, आने वाले बरसों में ब्रिटेन के आर्थिक विकास की जरूरत जो किसी भी द्विपक्षीय या बहुपक्षीय संबंध की जड़ में रहेगा." सालों तक यूरोपीय संघ के एकीकृत बाजार में रहने और महामारी झेलने के बाद अब ब्रिटेन के लिए आर्थिक और व्यापारिक तरक्की की रफ्तार को बनाए रखना वाकई बड़ी चुनौती है. यूरोप के बाहर सहयोग और संबंधों में मुक्त व्यापार समझौते ब्रिटेन के लिए बेहद मायने रखते हैं.

UK Brexit Verhandlungen | Boris Johnson
ब्रिटिश प्रधानमंत्री बॉरिस जॉनसनतस्वीर: AFP/N. Halle'n

मार्च में ब्रिटिश सरकार ने सुरक्षा, प्रतिरक्षा, विकास और विदेश नीति की समेकित समीक्षा देश के सामने रखी तो उसमें ये साफ किया गया कि इंडो-पैसिफिक की तरफ झुकाव की नीति सुरक्षा और प्रतिरक्षा के रणनीतिक दायरे में नहीं बल्कि इस क्षेत्र में व्यापारिक समझौतों, पर्यावरण और भारत से संबंधों में नई ऊर्जा भरने पर टिकी होगी. सवाल ये है कि क्या इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में ब्रिटेन के लिए इतनी आर्थिक संभावनाएं मौजूद हैं कि ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन की आर्थिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा कर सके? ससेक्स विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफेसर और यूके ट्रेड ऑब्जर्वेट्री के निदेशक डॉ माइकल गैजियोरेक का कहना है कि ब्रिटेन भले ही ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप में शामिल होने जैसे कई प्रयास कर रहा है लेकिन ये समझौते ब्रिटेन के सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार ईयू का विकल्प नहीं बन सकते.

व्यापार और आर्थिक पक्ष की महत्ता के अलावा डॉ पालीवाल वर्तमान में ब्रिटेन की विदेश नीति का दूसरा बड़ा पहलू चीन को मानते हैं. उनकी राय है कि “पिछले सालों में ब्रिटेन ने लगातार चीन के साथ बातचीत के रास्ते को खुला रखा, व्यापारिक संबंधों को मजबूत किया. अमरीका और चीन के बीच तनाव भले ही बढ़ता रहा लेकिन ब्रिटेन अपने को उससे बचाकर चलता रहा. अब रवैये में बदलाव दिख रहा है." सचमुच पिछले कुछ महीनों में ब्रिटेन-चीन रिश्तों में तनाव बढ़ा है और डॉ. पालीवाल के अनुसार अब ब्रिटेन की कोशिश है कि इंडो-पैसिफिक इलाके में ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और भारत के साथ सहयोग बढ़ाकर चीन की चुनौती का सामना किया जाए.

भारत से रिश्तों के समीकरण

दक्षिण-एशिया में ब्रिटेन का औपनिवेशिक इतिहास भारत से रिश्तों में अहम भूमिका निभाता है. इस इतिहास से छुटकारा पाया नहीं जा सकता लेकिन सामयिकता के आधार पर उसमें नए मोड़ जरूर आ सकते हैं. जहां ब्रिटेन में भारत के साथ बेहतर रिश्तों का एक ताजा दौर शुरू होने की चर्चा है वहीं प्रोफेसर गैजियोरेक का कहना है कि भारत समझौतों और सौदेबाजी के लिहाज एक बेहद जटिल देश है. ब्रिटेन के लिए वहां से ज्यादा कुछ हासिल कर पाना मुमकिन नहीं लगता.

दोनों देशों के संबंधों में एक अहम मसला ब्रेक्जिट बाद होने वाले मुक्त व्यापार समझौते पर चल रही सौदेबाजी है. ब्रिटेन भारत में कार और व्हिस्की आयात पर लगने वाला शुल्क नीचे करने की मांग पर अड़ा है तो भारत ब्रिटेन से वीजा और आव्रजन नियमों में रियायत चाहता है. पिछले दिनों इस दिशा में कुछ प्रगति होती दिखी जब मई में दोनों देशों के बीच ‘माइग्रेशन और मोबिलिटी’ समझौते पर सहमति बनी. इस समझौते में अवैध प्रवासियों को लौटाने समेत तीस बरस से कम उम्र के युवाओं के लिए एक नई वीजा योजना की भी बात है जिसके जरिए भारतीय और ब्रिटिश युवा एक दूसरे के देश में जाकर काम तलाश कर सकेंगे.

हालांकि डॉ. पालीवाल दोनों देशों के रिश्तों में वर्तमान से ज्यादा अतीत की परछाइयों को अहम बताते हुए कहते हैं कि "अंतरराष्ट्रीय संबंधों की नजर से ब्रिटेन और भारत के रिश्तों में अफगानिस्तान के हालात और इस्लामाबाद अहम रहे हैं. हालांकि अब ऐसा लग रहा है कि दोनों तरफ ये बात महसूस की जा रही है कि पाकिस्तान को बीच में रखकर आगे का रास्ता निकाला नहीं जा सकता." शायद ये वक्त की नजाकत का ही अहसास है कि मतभेदों के बावजूद वीजा और आव्रजन के मामले पर दोनों देश बीच का रास्ता निकालने की कोशिशों में लगे हैं.

ग्लोबल ब्रिटेन का नारा

ब्रेक्जिट के बाद ब्रिटेन की सरकार ने देश के सामने ‘ग्लोबल ब्रिटेन' का नारा बुलंद किया जो सत्ताधारी पार्टी के नेताओं की जुबान और सरकारी रिपोर्टों में पढ़ने को मिलता रहा है. हालांकि वैश्विक ब्रिटेन का मकसद और मतलब पूरी तरह साफ नहीं है. ब्रिटेन के भीतर मौजूद थिक टैंक मानते हैं कि इसका एक पहलू वैश्विक स्तर पर बहुपक्षीय समूहों के जरिए ब्रिटेन के लोकतांत्रिक मूल्यों का प्रसार और संवर्धन है और दक्षिण-एशिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक ताकत भारत को साथ लेकर चलना ब्रिटेन के लिए एक स्वाभाविक विकल्प लगता है. हालांकि ब्रिटेन के एक बौद्धिक वर्ग का ये भी मानना है कि वर्तमान भारतीय सरकार के लोकतांत्रिक रिपोर्ट कार्ड पर धब्बे हैं और ब्रिटेन को भारत में कूटनीतिक तौर पर ज्यादा निवेश नहीं करना चाहिए.

ब्रिटेन का इरादा कॉमनवेल्थ के जरिए भी बहुपक्षीय कूटनीति का इस्तेमाल करते हुए एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने का है. डॉ. पालीवाल मानते हैं कि कॉमनवेल्थ में अगुआ देश बनने की ब्रिटिश महत्वाकांक्षा पूरी होना मुश्किल लगता है क्योंकि औपनिवेशिक इतिहास का दर्द भुला दिया गया हो ऐसा नहीं है. दूसरे, इस गुट में शक्ति के कई केंद्र बिंदु हैं और सबका नेता बन पाना किसी भी एक देश के लिए मुमकिन नहीं होगा, भारत के लिए भी नहीं.

पारस्परिक संबंधों की चुनौतियां

ब्रिटेन की विदेश नीति में व्यापारिक और आर्थिक पहलुओं की प्राथमिकता और भारतीय हितों के बीच सामंजस्य एक चुनौती बनी हुई है लेकिन कोविड महामारी के बाद से ही दूसरा सबसे बड़ा सवाल चीन की बढ़ती ताकत का रहा है. आने वाले अगले कुछ बरसों में भारत-ब्रिटेन संबंधों में चीन की चुनौती क्या बाकी सभी पहलुओं पर हावी हो सकती है? इस सवाल के जवाब में डॉ. पालीवाल कहते हैं कि "मुझे नहीं लगता कि चीन भारत-ब्रिटिश संबंधों में इतना बड़ा सवाल बन सकता है. चीन दक्षिण-एशिया में महामारी से पहले भी सक्रिय ताकत था और अब भी है. भारत और ब्रिटेन के संबंधों में सबसे ज्यादा कोई बात मायने रखती है तो वो है पारंपरिक तौर पर भी दोनों देशों के संबंधों में चीन से ज्यादा बड़ा मुद्दा पाकिस्तान रहा है."

चीन से कहीं बड़ी चुनौती है दक्षिण-एशिया में ब्रिटेन का औपनिवेशिक इतिहास और उसकी अंदरूनी राजनीति में अप्रवासी भारतीय समुदाय की भूमिका. दूसरी चुनौती ये है कि चीन के मसले पर जहां अमरीका, फ्रांस और भारत के बीच ज्यादा नजदीकी नजर आती है वहीं ब्रिटेन की कोई नीति उभरकर नहीं आई है. इस कारण से भी चीन के मसले पर दोनों देशों के बीच सहयोग के किसी रणनीतिक स्वरूप का अंदाजा लगाना मुमकिन नहीं है. ब्रिटेन की विदेश नीति के इस नए दौर में भारत के साथ संबंधों को नया संदर्भ मिल सकता है. इसमें भारत के लिए द्विपक्षीय और बहुपक्षीय स्तरों पर अहम भूमिका निभाने का मौका है. हालांकि दोनों देशों के संबंध ऐतिहासिक रिश्तों और वैश्विक समीकरणों के दायरे में ही परवान चढ़ेंगे.

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