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नगालैंड में परंपरा बनाम संविधान की जंग

प्रभाकर मणि तिवारी
१० फ़रवरी २०१७

भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में मातृसत्तात्मक समाज का प्रचलन है. यानी वहां महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले ज्यादा अधिकार मिले हैं. लेकिन बात जब राजनीति और चुनाव की होती है तो महिलाओं को जबरन दबा दिया जाता है.

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Indien Ausschreitungen & Gewalt, Protest gegen Wahlreservierungen für Frauen
तस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/C. Mao

नगालैंड में 33 फीसदी आरक्षण की मांग उठाने वाली महिलाओं का आंदोलन इस बार इतना हिंसक हो गया कि सेना बुलानी पड़ी और दो लोगों की मौत हो गई. आखिर में चुनावों को स्थगित करना पड़ा.

आरक्षण विरोधी अपनी मांगों के समर्थन में परंपरा की दुहाई दे रहे हैं. दरअसल, यहां लड़ाई संवैधानिक प्रावधानों और परंपरा के बीच है. नागालैंड ट्राइबल एक्शन कमेटी (एनटीएसी) मुख्यमंत्री टीआर जेलियांग के इस्तीफे की मांग पर अड़ी है. पूर्वोत्तर में ज्यादातर जनजातीय समूह मातृसत्तात्मक हैं. यहां पारिवारिक और सामाजिक ही नहीं, बल्कि आर्थिक तौर पर भी महिलाएं देश के दूसरे राज्यों के मुकाबले ज्यादा ताकतवर हैं.

क्या है माजरा

आमतौर पर उग्रवाद के लिए सुर्खियों में रहने वाले इस राज्य में आखिर इस बार महिलाओं ने इतनी जिद क्यों पकड़ी कि पूरा राज्य हिंसा की चपेट में आ गया? दरअसल, यह पुरुष समाज की बर्चस्ववादी मानसिकता का सबूत है. राज्य में एक फरवरी को शहरी निकाय चुनावों के लिए मतदान होना था. इस मौके पर टीआर जेलियांग के नेतृत्व वाली नगा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) सरकार, जिसमें बीजेपी भी साझीदार है, ने महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण पर मुहर लगा दी. लेकिन विभिन्न नगा संगठनों ने बड़े पैमाने पर इसका विरोध शुरू कर दिया.

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दूसरी ओर, महिला संगठन नगा मदर्स एसोसिएशन भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के हवाले आरक्षण की मांग पर अड़ा रहा. इसी पर टकराव शुरू हुआ. हालात इतने बेकाबू हो गए कि राज्य में सेना उतारनी पड़ी और हिंसा में दो लोगों की मौत हो गई. आखिर राज्यपाल ने इन चुनावों को रद्द कर दिया है. बावजूद इसके इस मुद्दे पर तनाव जस का तस है.

दरअसल वर्ष 2012 में नगा मदर्स एसोएिशन ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका में अदालत से शहरी निकायों में महिलाओं को 33 फीसदी आरक्षण मुहैया कराने के लिए राज्य सरकार को निर्देश देने की अपील की थी. दो साल चली सुनवाई के बाद बीते साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने उसके पक्ष में फैसला सुनाया. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट के फैसले का सम्मान करते हुए सरकार ने 16 साल बाद इन चुनावों के लिए मतदान कराने का फैसला किया. उसके बाद ही महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण को मंत्रिमंडल की हरी झंडी मिल गई.

सरकार के फैसले के बाद ही पुरुष प्रधान जनजातीय नगा संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया. उनकी दलील है कि 33 फीसदी आरक्षण का यह प्रावधान संविधान की धारा 371ए के तहत नगा लोगों को मिले अधिकारों और सदियों पुरानी परंपरा का उल्लंघन है. आरक्षण-विरोधी आंदोलन की कमान संभालने वाली ज्वायंट कोआर्डिनेशन कमेटी (जेएसी) के सह-संयोजक वेखोसाई न्योखा कहते हैं, "संविधान की धारा 371 ए के तहत हमें जो विशेषाधिकार मिले हैं, उनका हनन बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. हम अपनी माताओं और बहनों का सम्मान करते हैं. लेकिन उनको राजनीतिक अधिकारों से लैस नहीं होने देंगे."

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राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि दरअसल, पारंपरिक नगा समाज में जमीन पर महिलाओं का कोई हक नहीं होता. नगा समाज में सत्ता का केंद्र समझी जाने वाली ग्राम परिषदों में भी उनकी आवाज नहीं सुनी जाती. यहां तमाम फैसलों का अधिकार पुरुषों को ही है. अब उनको डर है कि शहरी निकायों में चुने जाने पर महिलाएं तमाम धन और उनके खर्च का हिसाब मांगने लगेंगी. नगा समाज के पुरुष अहम को यह बात बर्दाश्त नहीं हो रही है.

"नगा होहो" के बैनर तले आंदोलन करने वाले तमाम संगठनों की दलील है कि महिलाओं को राजनीति में आने का अधिकार मिलने की स्थिति में नगा समाज का सदियों पुराना तानाबाना और पंरपराएं टूट कर बिखर जाएंगी और इसका प्रतिकूल असर होगा. दूसरी ओर, महिला संगठनों की दलील है कि वह अपनी प्राचीन परंपराओं का सम्मान करते हैं. लेकिन समय के साथ नगा समाज को भी बदलना होगा.

तनाव

विवाद बढ़ता देख कर बीती 30 जनवरी को नगालैंड बैपटिस्ट काउंसिल ने नगालैंड सरकार और ज्वायंट कोआर्डिनेशन कमेटी (जेएसी) के बीच मध्यस्थता करते हुए तय किया कि जनजातीय परिषदें अपना विरोध प्रदर्शन बंद कर देंगी और सरकार चुनावों को दो महीनों के लिए टाल देगी. लेकिन गुवाहाटी हाईकोर्ट के आदेश के बाद राज्य सरकार ने चुनावों को टालने से इंकार कर दिया.

पूर्वोत्तर के यह इलाके संविधान की छठी अनुसूची में आते हैं जहां पर राज्यपाल की मंजूरी के बिना केंद्र और राज्य सरकार का कोई कानून लागू नहीं किया जा सकता. इसके अलावा 371 (ए) आदिवासियों को अपनी परंपरा और रीति-रिवाजों की हिफाजत का भी अधिकार देता है. इन अधिकारों और रीति-रिवाजों के बारे में फैसला राज्य के 18 आदिवासी जातियों के संगठन मिल-जुलकर करते हैं.

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मुख्यमंत्री टीआर जिलियांग कह रहे हैं कि स्थानीय निकायों का गठन आधुनिक है, इसलिए उनको आदिवासियों की परंपरा और रीति-रिवाजों  के दायरे में शामिल नहीं किया जा सकता. लेकिन नगालैंड के आदिवासी संगठन को यह आरक्षण कबूल नहीं है और इसके विरोध में उन्होंने कोहिमा में नगर पालिका का दफ्तर फूंका और मुख्यमंत्री आवास पर भी हमला किया.

नगालैंड की राजनीति में महिलाओं की अनुपस्थिति को अच्छी तरह महसूस किया जा सकता है. साठ सदस्यीय राज्य विधानसभा के लिए आज तक एक भी महिला नहीं चुनी जा सकी है. वर्ष 1977 के लोकसभा चुनावों में एक महिला रानो एम शैजा जीती जरूर थी. लेकिन इसे एक अपवाद माना जा सकता है.

मंशा पर सवाल 

स्थानीय दबाव को दरकिनार कर निकाय चुनाव कराने पर आमादा सरकार की क्या मंशा थी? आखिर वह कौन-सा दबाव था जो स्थानीय सिविल सोसायटी के दबाव पर भारी पड़ गया? इन सवालों के जवाब तमाम पक्ष अलग-अलग तरीके से तलाश रहे हैं. राजनीतिक पर्यवेक्षकों का कहना है कि पहला दबाव तो महिला संगठनों और कोर्ट के फैसले का ही था.

सरकार उसे लागू करने के लिए बाध्य थी. यानी यह सरकार की संवैधानिक मजबूरी थी. लेकिन, पर्यवेक्षकों के एक गुट का कहना है कि विभिन्न परियोजनाओं के लिए केंद्र से मिलने वाली मोटी रकम ही इस विवाद की जड़ है. शहरी निकाय के चुनाव नहीं होने पर राज्य सरकार को यह रकम नहीं मिलेगी. 

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नगालैंड एक दिसंबर 1963 को  भारत संघ का 16 वां राज्य बनाया गया था. उसी समय से राज्य को 371 ए के तहत विशेष अधिकार मिला हुआ है. इस कानून में राज्य की सामाजिक-सांस्कृतिक परंपराओं और रीति-रिवाजों की पूरी सुरक्षा का जिक्र है. यहां दीवानी और आपराधिक मामलों में न्याय करते समय भी पारंपरिक कानूनों की सहायता लेने का प्रावधान है.

फिलहाल राज्य में हालात बेहद तनावपूर्ण हैं. इस मुद्दे पर सरकार भी अदालत और संविधान की दो चक्कियों के बीच फंसी है. दूसरी ओर, न तो आरक्षण समर्थक पीछे हटने को तैयार हैं और न ही उसके विरोधी. ऐसे में इस विवाद के भी लंबा खिंचने के आसार हैं.