1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

निर्दोष काट रहे हैं सजा, ये कैसा कानून है?

समीरात्मज मिश्र
९ मार्च २०२१

कानून का एक मूलभूत सिद्धांत है कि सौ अपराधी भले ही छूट जाएं लेकिन एक निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए. लेकिन तमाम दूसरे सिद्धांतों की तरह यह सिद्धांत भी व्यावहारिक स्तर पर खरा उतरता नहीं दिखता है.

https://p.dw.com/p/3qNiE
अदालत
कानून दावपेचों में फंसकर कई निर्दोष जेल के सीखचों के पीछे पहुंच रहे हैंतस्वीर: Trischberger Rupert/Zoonar/picture alliance

उत्तर प्रदेश में पिछले दिनों कुछ ऐसे मामले सामने आए जहां कानून के इस मूलभूत सिद्धांत की अनदेखी साफ तौर पर दिखी. हत्या के आरोप में निचली अदालत से सजा पाए एक व्यक्ति को 14 साल तक जेल में गुजारने के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट ने बरी कर दिया तो रेप और एससी/ एसटी एक्ट के तहत बीस साल की सजा काटने के बाद झांसी के विष्षु तिवारी को हाई कोर्ट ने यह कहकर बरी कर दिया कि उन्होंने यह सब नहीं किया था.

इसका एक अन्य पहलू यह भी है कि शाहजहांपुर में एक महिला ने 26 साल के बाद दो लोगों पर गैंगरेप का केस दर्ज कराया है. महिला के साथ जब यह घटना घटी थी तो उसकी उम्र महज 12 साल थी. समाज के डर से परिजनों ने किसी को कुछ बताया नहीं और कथित तौर पर दुष्कर्म के बाद जन्मे बेटे को किसी और को सौंप दिया गया. 25 साल बाद जब बेटे ने मां से बाप का नाम पूछा तो महिला के सामने वो सारी घटनाएं याद आ गईं और फिर महिला ने अदालत का दरवाजा खटखटाया. अदालत के आदेश पर पुलिस ने केस दर्ज किया है.

शाहजहांपुर की इस महिला ने इन 25 वर्षों में जो यातनाएं झेलीं, सामाजिक दंश झेला और आर्थिक तंगी का शिकार हुई, उसे इस बात से ही समझा जा सकता है कि परिजनों ने उसकी शादी कर दी लेकिन छह साल बाद जब पति को पता चला कि उसके साथ दुष्कर्म हुआ है तो पति ने महिला को अकेले रहने के लिए छोड़ दिया. तब से लेकर अब तक का समय महिला ने उसी बेटे के साथ गुजारा जो कथित तौर पर दुष्कर्म के बाद पैदा हुआ था. दुष्कर्म के बाद जन्मा बेटा 25 साल का हो गया है. महिला ने बेटे के डीएनए टेस्ट की भी मांग की है.

इस दौरान यूपी में कानून के संदर्भ में एक और जानकारी सामने आई है कि राज्य सरकार ने पिछले एक साल में करीब तीन लाख मुकदमे वापस ले लिए हैं जिनमें ढाई लाख के करीब कोरोना काल में लॉकडाउन के उल्लंघन के मामलों में दर्ज हुए थे जबकि करीब सात सौ मुकदमे विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के खिलाफ दर्ज हुए थे. राज्य सरकार के कानून मंत्री ब्रजेश पाठक के मुताबिक, अक्सर विरोधी दलों के खिलाफ राजनीतिक विद्वेष के चलते मुकदमे दर्ज हो जाते हैं, उन्हें ही वापस लिया गया है. वापस लिए गए ज्यादातर मुकदमे उन नेताओं के हैं जो सत्तारूढ़ दल के साथ हैं.

ये भी पढ़िए: बढ़ती जा रही है जेलों में विचाराधीन कैदियों की संख्या

जेल में बीते साल

उत्तर प्रदेश के बलिया जिले में एक व्यक्ति को निर्दोष साबित होने में 14 साल लग गए लेकिन ये 14 साल उनके जेल में ही कट गए. बलिया जिले के रेवती गांव के रहने वाले मुकेश तिवारी पिछले दिनों जेल से 14 साल सजा काटने के बाद निर्दोष साबित होने पर घर लौटे. परिजन उनके घर लौटने से खुश हैं लेकिन जीवन के 14 अनमोल वर्ष उनके जो बर्बाद हुए, उसकी भरपाई कौन करेगा, यह सवाल सभी पूछ रहे हैं.

साल 2007 में मुकेश के पड़ोसी प्रताप शंकर मिश्र की हत्या हो गई थी और हत्या के मामले में परिजनों की तहरीर पर मुकेश तिवारी को अभियुक्त बनाया गया था. मुकेश तिवारी बताते हैं कि उस समय वो अपने घर पर सोए हुए थे. उन्होंने लाख दलील दी लेकिन किसी ने उनकी बात नहीं सुनी और आखिरकार वकीलों की सलाह पर तीन-चार दिन के बाद मुकेश तिवारी खुद ही थाने में हाजिर हो गए. ऐसा न करते तो पुलिस उन्हें तलाशती और ढूंढ़ ही लेती. मुकेश तिवारी पर मुकदमा चला और इस मामले में साल 2009 में जिला जज ने उन्हें सजा सुना दी.

लेकिन मुकेश के परिजनों ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की. लंबी सुनवाई के बाद हाई कोर्ट ने उन्हें पिछले दिनों बरी कर दिया. हाई कोर्ट ने उन्हें रिहा करने का भी आदेश दिया. निचली अदालत ने इस मामले में तीन लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी लेकिन दो लोगों को जमानत मिल गई थी लेकिन मुकेश तिवारी 14 साल से जेल में ही थे. हाई कोर्ट ने फैसला सुनाते हुए यह भी कहा कि निचली अदालत ने बिना तथ्यों को जांचे और समझे ही सजा सुना दी.

पिछले महीने ही इलाहाबाद हाई कोर्ट का एक ऐसा फैसला आया जिसने तमाम ऐसे कानूनों पर पुनर्विचार करने की जरूरत महसूस कराई जो किसी एक समुदाय के हित के लिए बने हैं लेकिन उनका दुरुपयोग इतना बढ़ गया है कि अक्सर उसका इस्तेमाल विरोधी पक्ष के खिलाफ एक हथियार के रूप में होने लगा है. ललितपुर के विष्णु तिवारी पर रेप और हरिजन एक्ट के तहत मुकदमा दर्ज हुआ था. निचली अदालत ने उन्हें सजा सुना दी लेकिन हाई कोर्ट से वो बरी कर दिए गए और बीस साल तक आगरा जेल में रहने के बाद पिछले हफ्ते अपने गांव लौटे हैं.

ये भी पढ़िए: दलितों के खिलाफ अपराध के 94 प्रतिशत मामले रह जाते हैं लंबित

कहां हैं खामियां

कानूनी प्रक्रिया की इन खामियों के पीछे तमाम वजहें हैं जिनकी वजह से कई बार निर्दोष लोगों को खुद को निर्दोष साबित करने में ही कई साल लग जाते हैं. यहां तक कि कई बार अभियुक्तों की मौत तक हो जाती है. करीब 35 साल से बेहमई कांड का मुकदमा इसका जीता जागता उदाहरण है जिसमें अभियुक्त समेत कई पीड़ित पक्ष के ज्यादातर लोगों की मौत हो चुकी है पर मुकदमे में फैसला तो छोड़िए, सुनवाई तक पूरी नहीं हुई है.

यूपी में डीजीपी रह चुके रिटायर्ड आईपीएस अधिकारी सुलखान सिंह कहते हैं, "विष्णु तिवारी और मुकेश के जैसे मामले हजारों हैं, और वह भी केवल उत्तर प्रदेश में. मैंने पुलिस और कारागार के अपने लंबे अनुभव से यह पाया है कि मीडिया, बुद्धिजीवी वर्ग, छात्रों और समाज में मानवाधिकारों और कानून के शासन के प्रति रंचमात्र भी सम्मान नहीं है. झूठा फंसाने वाले की कोई निंदा नहीं करता, नामजद लोगों पर चार्जशीट दाखिल करना सही माना जाता है और ट्रायल कोर्ट द्वारा बरी करना निंदनीय होता है सिवाय उस समय जब हम खुद फंसे हों.”

सुलखान सिंह कहते हैं कि इसमें न्यायिक प्रणाली ही दोषपूर्ण नहीं है बल्कि समाज का हर वर्ग दोषी है और खासकर मीडिया, जो पहले दिन से ही अभियुक्त को दोषी ठहराने लगता है. जबकि ऐसा वास्तव में नहीं होता है. कई बार अभियुक्तों का नाम पीड़ित पक्ष किन्हीं दबाव में या फिर रंजिश में भी लिखा देते हैं जबकि वास्तव में अपराधी कोई और होता है.

सुलखान सिंह कहते हैं कि ऐसे मामलों में असली सवाल कोई नहीं पूछता, "साल 2000 के मामले में ट्रायल कोर्ट ने 2003 में फैसला सुना दिया लेकिन अपील का निर्णय होने में 2003 से 2021 तक का समय क्यों लग गया? विष्णु तिवारी की रिहाई का आदेश 28 जनवरी को हो गया था, फिर रिहाई का परवाना जेल पहुंचने में एक महीने से ज्यादा समय क्यों लगा? हाई कोर्ट में अपील दाखिल होने पर जमानत क्यों नहीं मंजूर की गई? दंड प्रक्रिया संहिता में जमानत मंजूर करने के आधार नहीं दिए गए हैं. इसमें कोर्ट का विवेक बहुत व्यापक है. बीस-बीस साल और अनेक मामलों में इससे भी अधिक समय से लंबित पड़ी अपीलों पर हमारी अंतरात्मा क्यों नहीं कचोटती?”

भारत में इंसाफ की मुश्किल राह
भारत में आम लोगों के लिए कई बार इंसाफ पाने का रास्ता बहुत मुश्किल होता है (फाइल फोटो)तस्वीर: Getty Images/AFP

 

अदालतों पर बोझ

देखा जाए तो देश भर में करीब तीन चौथाई कैदी विचाराधीन मामलों में बंद हैं. यानी उनके मामलों में फैसला नहीं हुआ है और सिर्फ सुनवाई की वजह से उन्हें जेल में रखा गया है और जमानत नहीं मिल रही है.

दिल्ली हाई कोर्ट के वकील अभय सिंह बताते हैं कि अस्सी के दशक तक हत्या जैसे गंभीर मामलों में भी सत्र न्यायालय से जमानत मंजूर हो जाती थी लेकिन अब तो कई बार छोटे-छोटे मामलों में भी हाई कोर्ट जाना पड़ता है. इन वजहों से भी तमाम लोग विचाराधीन होने के बावजूद जेल की सजा काट रहे हैं. जबकि ऐसा होना नहीं चाहिए.

सुलखान सिंह कहते हैं, "आपराधिक अपीलों के निस्तारण की सीमा तय की जानी चाहिए. अपील लंबित रहने के दौरान जमानत मंजूर कर ली जानी चाहिए क्योंकि जमानत एक नियम है जबकि जेल अपवाद. यही नहीं, जिला न्यायालयों अधिकारियों के खिलाफ जमानत मंजूर करने पर दण्डात्मक कार्रवाई नहीं की जानी चाहिए. एक न्यायिक फैसले का प्रशासनिक मूल्यांकन नहीं होना चाहिए.”

कानून के जानकारों के मुताबिक, जब तक ऐसे मामलों पर गंभीरता से विचार नहीं होता और तमाम नियमों और कानूनों का पुनर्मूल्यांकन नहीं होता तब तक न सिर्फ विष्णु तिवारी और मुकेश जैसे मामले आते रहेंगे और अदालतों पर बोझ भी बढ़ता रहेगा. जेलों में अत्यधिक क्षमता में कैदी भी बढ़ते रहेंगे.

__________________________

हमसे जुड़ें: Facebook | Twitter | YouTube | GooglePlay | AppStore

इस विषय पर और जानकारी को स्किप करें

इस विषय पर और जानकारी