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खेरौना, वो गांव जिसने अमेठी को अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलाई

समीरात्मज मिश्र
२९ मार्च २०२४

अमेठी जिले का खेरौना वो गांव है, जिसकी वजह से अमेठी लोकसभा क्षेत्र एक सामान्य सीट से वीआईपी सीट बन गया. क्या है इस गांव के एकाएक चर्चित होने की कहानी?

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खेरौना गांव के प्राथमिक विद्यालय का द्वार
खेरौना गांव, अमेठी कस्बे से बिल्कुल लगा हुआ है.तस्वीर: Vishuv Mishra/DW

मई 1976 की बात है. देश में आपातकाल लगे करीब एक साल होने जा रहा था. आपातकाल के दौर के सबसे ताकतवर व्यक्ति कहे जाने वाले संजय गांधी राजनीतिक परिदृश्य में तो काफी चर्चित और ताकतवर हो चुके थे, लेकिन राजनीति में उनका औपचारिक प्रवेश तब तक नहीं हुआ था.

उनके इसी राजनीतिक प्रवेश के लिए सुल्तानपुर जिले के अमेठी कस्बे को चुना गया. यहां के चुनाव की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है. एक दिन संजय गांधी अमेठी पहुंचे, उनके साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायणदत्त तिवारी समेत कई बड़े कांग्रेसी नेता भी थे. ये सभी खेरौना नाम के एक गांव में आए और तय हुआ कि यहां कांग्रेस पार्टी के लोग श्रमदान करेंगे. यहीं से संजय गांधी की राजनीतिक जमीन तैयार की जानी थी. उनके इस फैसले से यह गुमनाम सा गांव अचानक देश और दुनिया के अखबारों की सुर्खी बन गया.

भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान कांग्रेस नेता और सांसद राहुल गांधी.
2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी ने गांधी परिवार की पारंपरिक सीट अमेठी पर राहुल गांधी को हरा दिया.तस्वीर: Anuwar Hazarika/NurPhoto/picture alliance

श्रमदान से सड़क बनाई

खेरौना गांव, अमेठी कस्बे से बिल्कुल लगा हुआ है. संजय गांधी अपने कुछ युवा साथियों के साथ जब यहां पहुंचे, तो फावड़ा चलाकर उन्होंने सड़क निर्माण का कार्य शुरू किया. इसी से शुरू हुआ श्रमदान का वह सिलसिला, जो एक महीने से भी ज्यादा चला और इससे अमेठी कस्बे में तीन सड़कें तैयार की गईं.

संजय गांधी के साथ देश भर से बड़ी संख्या में युवा कांग्रेसी यहां श्रमदान के लिए आकर जुटे थे.  श्रमदान के लिए सैकड़ों फावड़े, कुदाल, टोकरे जैसी चीजें यहां पहले ही पहुंचाई जा चुकी थीं. स्थानीय पत्रकार योगेश श्रीवास्तव बताते हैं कि श्रमदान एक महीने से भी ज्यादा समय तक चला और इस दौरान बाहर से आए सभी लोग यहीं रुके थे. उनके ठहरने के लिए खेरौना गांव और अमेठी कस्बे में ही इंतजाम किया गया था. स्थानीय लोगों के घरों में ही सभी के रुकने की व्यवस्था की गई थी.

योगेश श्रीवास्तव याद करते हैं, "बाहर से आए लोगों के लिए खाना यहीं बन रहा था. रुकने की व्यवस्था गांव के लोगों ने अपने घरों में कर रखी थी और मेहमानों के मनोरंजन के लिए शाम को कई तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे. कुल मिलाकर डेढ़ महीने तक यहां उत्सव का माहौल बना हुआ था."

अमेठी का खेरौना गांव
श्रमदान का सिलसिला एक महीने से भी ज्यादा चला और इससे अमेठी कस्बे में तीन सड़कें तैयार की गईं.तस्वीर: Vishuv Mishra/DW

कई ने तो पहली बार पकड़ा था कुदाल

न सिर्फ देश भर से आए युवा कांग्रेस के तमाम नेता श्रमदान में तत्परता से लगे रहे, बल्कि पूरा सरकारी अमला भी खिदमत में मौजूद था. इस दौरान खेरौना के अलावा विराहिनपुर और मलिक मोहम्मद जायसी की मजार का कच्चा रास्ता बनाने के लिए युवा नेताओं ने खूब पसीना बहाया, फावड़े-कुदाल चलाए और आखिरकार डेढ़ महीने के भीतर तीनों सड़कें तैयार हो गईं. स्थानीय बुजुर्ग बताते हैं कि इनमें कई लोग तो ऐसे थे, जिन्होंने जिंदगी में पहली बार कुदाल-फावड़ा थामा था. कुछ ने तो शायद इन्हें पहले कभी देखा तक नहीं था.

राम नरेश शुक्ल तब खेरौना गांव के प्रधान थे. उनके बेटे राजेंद्र प्रसाद शुक्ल उस समय को याद करते हुए बताते हैं, "गजब का माहौल था. इसी श्रमदान से संजय गांधी की राजनीति शुरू हुई थी. जिन तीन सड़कों पर श्रमदान हुआ था, बाद में वो पक्की हो गईं. डेढ़ महीने तक तो यहां मेला लगा था. अलग-अलग राज्यों से लोग आ रहे थे, श्रमदान कर रहे थे और फिर चले जाते थे. उसके बाद दूसरे लोग आते थे. बड़े-बड़े अफसर यहां डेरा डाले हुए थे."

गांधी परिवार की पारंपरिक सीटें

संसदीय क्षेत्र के रूप में अमेठी 1967 में अस्तित्व में आया था. पड़ोस की रायबरेली सीट से संजय गांधी के पिता फिरोज गांधी और उनके बाद इंदिरा गांधी चुनाव लड़ती थीं. 10 साल तक तो अमेठी एक सामान्य संसदीय सीट के रूप में ही रही, लेकिन संजय गांधी के श्रमदान के बाद यह एक वीआईपी सीट के रूप में तब्दील हो गई. यह रुतबा आज तक कायम है.

हालांकि, श्रमदान के तत्काल बाद 1977 में हुए लोकसभा चुनाव में संजय गांधी इस सीट से हार गए. लेकिन उसके बाद गांधी परिवार या उनके करीबियों ने जीत का जो सिलसिला बरकरार रखा, वो 2014 तक चला. 2019 में हुए पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी उम्मीदवार स्मृति ईरानी ने राहुल गांधी को हरा दिया.

हालांकि उसके पहले भी 1998 में यह सीट एक बार बीजेपी के खाते में गई थी. तब डॉक्टर संजय सिंह ने बीजेपी से जीत दर्ज की थी. संजय सिंह एक बार फिर बीजेपी में हैं. खेरौना गांव में संजय गांधी ने जब श्रमदान किया था, तब मुख्य रूप से वो काम संजय सिंह की ही देखरेख में हुआ था. संजय सिंह की गांधी परिवार, खासतौर पर संजय गांधी से काफी नजदीकी थी.

संसदीय क्षेत्र के रूप में अमेठी 1967 में अस्तित्व में आया था.
गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि जब अमेठी संसदीय क्षेत्र को संजय गांधी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत के लिए चुना गया, तो खुद संजय गांधी ने चुनाव लड़ने से पहले विकास कार्य करने की शुरुआत की. तस्वीर: Vishuv Mishra/DW

श्रमदान के लिए खेरौना को ही क्यों चुना

पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉक्टर संजय सिंह अमेठी राजघराने से संबंध रखते हैं. कुछ समय पहले जब वो कांग्रेस पार्टी में थे, तब उन्होंने इस श्रमदान महोत्सव के बारे में विस्तार से बात की थी. उनका कहना था, "मान के चलिए कि यूथ कांग्रेस के करीब 1,000 लोग यहां आए थे. कुछ तो चार-छह दिन रहकर चले जाते थे, लेकिन बहुत से लोग लगातार यहीं रहे. रात दिन मजमा लगा रहता था. संजय गांधी ने मुझसे कहा था कि आपको यहीं रहना है, खिसकना नहीं है. मैं खिलाड़ी था, लेकिन उनके कहने के बाद मैं भी खेल-वेल सब छोड़कर अपने दोस्तों के साथ डटा रहा."

इस गांव को ही श्रमदान के लिए क्यों चुना गया, इसका किस्सा भी बड़ा दिलचस्प है. अमेठी के एक कांग्रेस नेता उमाकांत द्विवेदी बताते हैं कि साल 1971 के चुनाव में खेरौना गांव में एक जनसभा हुई थी. उस जनसभा में इंदिरा गांधी भी आई थीं और काफी भीड़ जमा हुई थी.

उमाकांत द्विवेदी बताते हैं, "जब अमेठी संसदीय क्षेत्र को संजय गांधी के राजनीतिक जीवन की शुरुआत के रूप में चयनित किया गया, तो खुद संजय गांधी ने यहां से चुनाव लड़ने से पहले विकास कार्य करने की शुरुआत की. इसी क्रम में श्रमदान का फैसला लिया गया. एक बात यह भी थी कि खेरौना गांव अमेठी कस्बे से बिल्कुल लगा हुआ भी है."

बाद में संजय गांधी के सांसद बनने के बाद से ही यह क्षेत्र वीआईपी क्षेत्र के रूप में जाना जाने लगा. गांव में और भी कई सड़कें बनीं, स्कूल बने. लेकिन उस दौर के लोग सबसे ज्यादा उस उत्सवधर्मी माहौल को ही याद करते हैं.

गांव के एक बुजुर्ग दीनानाथ, उस समय युवा थे. वह याद करते हैं, "गांव के तमाम लोग तो इसलिए भी भीड़ लगाए रहते थे कि शहरों के बड़े-बड़े लोग यहां फावड़ा चला रहे थे. यह देखकर गांव वालों को आश्चर्य होता था. इसके अलावा इतनी सुंदर और स्मार्ट लड़कियां भी फावड़ा चला रही थीं, यह देखकर लोगों को भरोसा ही नहीं होता था."

राहुल गांधी का जादू कितना चलेगा

बुजुर्ग महिलाएं क्या बताती हैं

हालांकि खेरौना और दो अन्य गांवों में तीन सड़कें बनीं, कुछ और भी काम हुए, लेकिन किसी भी काम की कोई निशानी नहीं है यहां. यानी कोई पत्थर या निशान नहीं है. यहां तक कि गांव के तमाम युवकों को तो इसके बारे में बहुत ज्यादा मालूम भी नहीं है. अमेठी कस्बे के ही निवासी और बीजेपी के युवा नेता विषुव मिश्र से जब इस बारे में हमने बात की, तो वह हैरान रह गए. कहने लगे, "मुझे तो इसके बारे में कुछ पता ही नहीं है. आज आप ही से पता लग रहा है, जबकि खेरौना गांव में तो मेरा लगभग रोज आना-जाना है."

हालांकि, खेरौना गांव की कई बुजुर्ग महिलाओं को वो दौर भली-भांति याद है. एक महिला उर्मिला देवी कहती हैं कि उस जमाने में औरतें घरों से ज्यादा नहीं निकलती थीं, लेकिन इतनी भीड़ लगी रहती थी कि उसे देखने के लिए लड़़कियां-महिलाएं भी दिन भर चक्कर लगाती रहती थीं. वह बताती हैं, "दूसरी जगहों से आई महिलाएं और लड़कियां जब यहां काम कर रही थीं, तो देखा-देखी यहां की औरतें भी हाथ बंटाने लगतीं."

खेरौना गांव में हुए इस श्रमदान के चलते जो उत्सवधर्मी माहौला बना था, वो अगले ही साल यानी 1977 के लोकसभा चुनाव में धराशायी हो गया क्योंकि चुनावी मैदान में पहली बार उतरे संजय गांधी इसी अमेठी सीट से जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह से हार गए. 1980 में जब दोबारा चुनाव हुए, तो संजय गांधी ने इस सीट पर भारी बहुमत से चुनाव जीता.

उसके बाद से अमेठी संसदीय सीट का गांधी परिवार से ऐसा अटूट रिश्ता बना कि ये अब तक चला. 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी भले ही हार गए, लेकिन अमेठी के लोगों को उम्मीद है कि राहुल गांधी एक बार फिर यहां से चुनाव लड़ेंगे. कांग्रेस पार्टी का अमेठी सीट से अब तक किसी उम्मीदवार की घोषणा न करना भी उनकी उम्मीदों को मजबूत करता है, लेकिन संशय बरकरार है.