1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें

क्या केस पुराने हो जाने के कारण बंद कर दिए जाने चाहिए ?

समीरात्मज मिश्र
२ सितम्बर २०२२

सुप्रीम कोर्ट ने साल 2002 के गुजरात दंगों से जुड़े मामलों को यह कहते हुए बंद करने के आदेश दिए हैं कि इतना समय गुजरने के बाद इन मामलों पर सुनवाई करने का कोई मतलब नहीं है. ऐसे कई मामले हैं जो दशकों दक चलते रहे...

https://p.dw.com/p/4GKHc
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय
भारतीय सर्वोच्च न्यायालयतस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/N. Kachroo

सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात दंगों से जुड़े 9 में से 8 मामलों और बाबरी मस्जिद विवाद से जुड़े सभी मामलों को अप्रासंगिक बताते हुए उन्हें बंद करने का आदेश दिया. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गुजरात दंगों से जुड़े 9 में से 8 केस में निचली अदालतें फैसला सुना चुकी हैं. इनमें राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग यानी एनएचआरसी की याचिका भी शामिल है, जिसमें दंगों के दौरान हुई हिंसा की जांच की मांग की गई थी.

सुप्रीम कोर्ट के नवनियुक्त मुख्य न्यायाधीश जस्टिस यूयू ललित, जस्टिस एस रवींद्र भट्ट और जस्टिस जेबी पारदीवाला की खंडपीठ का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट पहले ही गुजरात दंगों से जुड़े 9 केस की जांच के लिए एसआईटी गठित कर चुका है जिनमें से 8 केस का ट्रायल पूरा हो चुका है और सजा भी हो चुकी है. नारोदा पाटिया से जुड़े मामले की सुनवाई अभी जारी है. इसी तरह से बाबरी मस्जिद मामले में भी यह कहते हुए केस बंद करने को कहा कि अब इस पर फैसला हो चुका है.

यह भी पढ़ेंः बिलकिस बानो केस: सवालों में दोषियों की रिहाई

साल 2002 में गुजरात में हुए गोधरा ट्रेन कांड के बाद पूरे गुजरात में दंगे भड़क उठे थे जिनमें एक हजार से ज्यादा लोग मारे गए थे. हालांकि अनाधिकारिक आंकड़ों की मानें तो मरने वालों की संख्या कहीं ज्यादा थी जिनमें हिन्दू और मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग थे.

सुप्रीम कोर्ट ने दंगों से जुड़े सारे मामलों को अब यह कहकर बंद करने का आदेश दिया है कि अब ये बहुत पुराने हो चुके हैं. पर सवाल है कि क्या पुराने हो जाने के कारण मुकदमों को बिना अंतिम न्याय मिले ही बंद कर देना चाहिए. इससे पहले ऐसे कई मामले हैं जो बंद हो गए थे लेकिन वो फिर खोले गए और उनमें पीड़ितों को न्याय मिला.

सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता दुष्यंत पाराशर कहते हैं कि ऐसा कहीं नहीं लिखा है कि कोई भी मामला यदि पुराना हो जाए तो उसे बंद कर देना चाहिए. इन मामलों में भी सुप्रीम कोर्ट ने यदि कहा है तो उसके पीछे उनके कुछ आधार हैं. दुष्यंत पाराशर के मुताबिक, यह सुप्रीम कोर्ट का मौखिक विचार है, वास्तव में उन्होंने क्या कहा है यह फैसले के बाद पता चलेगा.

किसी भी मामले की सुनवाई और उसे बंद करने के बारे में दुष्यंत पाराशर कहते हैं, "केस अपने फैक्ट और एविडेंस यानी साक्ष्य से डिसाइड होता है. यह कोई रूल नहीं है. सीआरपीसी में हर चीज निर्धारित है. कोई भी कोर्ट उसे काट नहीं सकता. हर केस की परिस्थितियां एक-दूसरे से अलग होती हैं. एफआईआर नया हो या पुराना, अपराध अपराध होता है. कोर्ट का काम है उसकी जांच करे और फिर यह तय करे कि उसमें अभियुक्त को छोड़ दिया जाए या उसे सजा दी जाए.”

बंद हो चुके पुराने मामलों में न्याय और सजा

देश भर में ऐसे कई मामले हैं जो लगभग बंद कर दिए गए थे लेकिन कुछ गवाहों और साक्ष्यों के आधार पर जब वो दोबारा खुले तो पीड़ितों को न्याय भी मिला और अपराधियों को सजा भी मिली. 1984 में दिल्ली, कानपुर और अन्य जगहों पर हुए सिख दंगोंकी भी पिछले दिनों दोबारा जांच के लिए एसआईटी का गठन हुआ. कानपुर में हुए दंगों की जांच के लिए 2019 में राज्य सरकार ने एसआईटी का गठन किया और अब तक एसआईटी इस मामले में कई लोगों को गिरफ्तार कर चुकी है. जबकि दंगों की जगह तमाम सबूत ना जाने कब के नष्ट हो चुके हैं. एसआईटी के हाथों गिरफ्तारी को लेकर भी सवाल उठ रहे हैं लेकिन एसआईटी का कहना है कि उन्हें महत्वपूर्ण सबूत मिले हैं.

मई 1987 में मेरठ के हाशिमपुरा में पीएसी के जवान 50 से ज्यादा लोगों को ट्रकों में भरकर ले गए थे. इसके बाद रात में मुरादनगर के पास नहर में फेंक दिया गया था. कई लोगों को गोली भी मारी गई थी. ज्यादातर लोगों की मौत हो गई थी.

पीड़ित परिवारों की शिकायत के बाद जब हाशिमपुरा कांड चर्चा में आया तो यूपी सरकार ने साल 1988 में मामले की सीबी-सीआईडी जांच के आदेश दे दिए. फरवरी 1994 सीबी-सीआईडी ने 60 से अधिक पीएसी और कुछ पुलिस कर्मियों को दोषी ठहराते हुए जांच रिपोर्ट सौंपी. लेकिन यह मामला अदालत में चलता रहा और 2015 में अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. इस मामले को दिल्ली हाईकोर्ट में चुनौती दी गई और 2018 में दिल्ली हाईकोर्ट ने 42 लोगों की हत्या के मामले में 16 पीएसी जवानों को उम्र कैद की सजा सुनाई.

यही नहीं, साल 1991 में यूपी के हीपीलीभीत में पुलिस ने तीर्थ यात्रियों से भरी बस से 10 सिख युवकों को उतारकर उन्हें आतंकी बताते हुए मौत के घाट उतार दिया था. पुलिस ने अपनी एफआईआर में इन्हें आतंकी बताते हुए इन पर जानलेवा हमला करने का आरोप लगाया था लेकिन मारे गए लोगों के घर वालोंने पुलिस पर फर्जी मुठभेड़ का आरोप लगाया था. पुलिस की इस कार्रवाई के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी दायर की गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सीबीआई जांच के आदेश दिए. सीबीआई ने अपनी चार्जशीट में 57 पुलिसवालों को अभियुक्त बनाया था. अप्रैल 2016 को अदालत ने सभी पुलिसकर्मियों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई. हालांकि कई पुलिस वालों की सजा सुनाए जाने से पहले ही मौत हो गई थी.

ऐसे ढेरों मामले हैं जिनमें लंबे समय तक चली सुनवाई के बाद फर्जी एनकाउंटर जैसे मामलों में पुलिस कर्मियों को सजा हुई है, पीड़ितों को न्याय मिला है और न्याय व्यवस्था पर लोगों का भरोसा बढ़ा है. कई मामले तो ऐसे थे जो बंद कर दिए गए थे लेकिन अदालत के निर्देश पर उनका दोबारा ट्रायल हुआ और फैसला हुआ. सवाल उठता है कि यदि लंबे खिंचने की वजह से ऐसे मामलों को भी बंद कर दिया गया होता तो क्या उन पीड़ितों को न्याय मिलता?

मुकदमा बंद करने का आधार

दुष्यंत पाराशर कहते हैं कि केस पुराना हो या अपराध पुराना हो तो उसे छोड़ने का कहीं कोई नियम नहीं है कानून में. सुप्रीम कोर्ट के और वरिष्ठ वकील और कांग्रेस पार्टी के नेता विश्वनाथ चतुर्वेदी सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से कतई सहमत नहीं हैं और उनका कहना है कि आगे के मामलों में कहीं यह नजीर ना बन जाए और जांच एजेंसियों को उलझे हुए मामलों में छुटकारा पाने का एक बहाना ना मिल जाए.

इन आखों ने देखे बंटवारे के खौफनाक मंजर

डीडब्ल्यू से बातचीत में विश्वनाथ चतुर्वेदी कहते हैं कि मुकदमे बंद हो सकते हैं लेकिन उनका कोई आधार होना चाहिए, "ग्राउंड तो ये है कि साक्ष्य नहीं मिले, गवाह मर गए, केस से संबंधित कोई चीज नहीं रह गई, तो मुकदमा ड्रॉप कर सकते हैं. लेकिन गुजरात मामले में तो अभी लोग हैं, साक्ष्य हैं, उस समय के लोग हैं, ब्यूरोक्रेसी जिंदा है. नई-नई बातें आ रही हैं. उसे ड्रॉप करने का तो ऐसा कोई आधार नहीं दिख रहा है. आप न्यायिक व्यवस्था को ठीक कीजिए कि त्वरित न्याय मिले. अदालतों में मुकदमे लटके न रहें लेकिन मुकदमों को खत्म कर देना ठीक नहीं है. पैसे वाले लोग तारीख पर तारीख लेते रहेंगे और पीड़ित को न्याय नहीं मिलेगा.”

विश्वनाथ चतुर्वेदी कहते हैं कि सीआरपीसी में तो यहां तक प्रावधान है कि साक्ष्य कोई तीसरा व्यक्ति भी पेश कर सकता है जिसका मुकदमे से कोई संबंध नहीं है. उनके मुताबिक, "ऐसा इसलिए किया गया है ताकि अपराधी बचे नहीं और बेगुनाह फंसे नहीं. उन साक्ष्यों को जांचने का काम कोर्ट का है. यदि मुकदमे में लगातार साक्ष्य मिल रहे हैं तो मुकदमा बंद करने का कोई औचित्य नहीं है और न ही उसका कोई कानूनी प्रवाधान है.”

जानकारों का यह भी कहना है कि चूंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले और आदेश अन्य अदालतों के लिए नजीर की तरह होते हैं, इसलिए यदि मुकदमे लंबे खिंचने की वजह से मुकदमों को समाप्त घोषित करने की परिपाटी कायम हो जाती है तो यह न्याय व्यवस्था के लिए ठीक नहीं होगा.