1. कंटेंट पर जाएं
  2. मेन्यू पर जाएं
  3. डीडब्ल्यू की अन्य साइट देखें
कानून और न्यायभारत

चुनाव आयुक्तों की नई नियुक्ति प्रक्रिया है बड़ा चुनावी सुधार

चारु कार्तिकेय
२ मार्च २०२३

सुप्रीम कोर्ट का चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति को सरकार के नियंत्रण से बाहर करना एक बड़ा सुधार है. अदालत ने आयोग के स्वतंत्र होने और सरकार के प्रति अनुग्रहित ना महसूस करने की जरूरत को रेखांकित किया है.

https://p.dw.com/p/4O9Yi
भारत का सुप्रीम कोर्ट
भारत का सुप्रीम कोर्टतस्वीर: picture-alliance/NurPhoto/N. Kachroo

जिन चुनाव सुधारों की भारत को एक अरसे से जरूरत है उनकी लंबी फेहरिस्त में से एक बिंदु को हटाने का काम सुप्रीम कोर्ट ने कर दिया है. सर्वोच्च अदालत ने आदेश दिया है कि अब से चुनाव आयोग के सदस्यों का चयन एक समिति करेगी जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश होंगे.

सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अगर विपक्ष का कोई नेता नहीं होगा तो लोक सभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी का नेता इस समिति का सदस्य होगा. अभी तक चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा की जाती थी.

नियुक्ति अभी भी राष्ट्रपति ही करेंगी लेकिन प्रधानमंत्री की जगह, अब इस समिति की सलाह पर. सीबीआई के निदेशक की नियुक्ति भी ऐसी ही प्रक्रिया के तहत होती है.

सरकार के प्रति अनुग्रह का नुकसान

चुनाव सुधारों के लिए काम करने वाले ऐक्टिविस्ट कई दशकों से इस बदलाव की मांगकर रहे थे. पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने एक ट्वीट में कहा कि यह मांग दो दशकों से लंबित थी.

सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि सरकार नियुक्ति प्रक्रिया पर एक नया कानून ला सकती है लेकिन जब तक ऐसा कानून नहीं आता तब तक अदालत द्वारा बताई गई प्रक्रिया लागू रहेगी. मामले पर सुनवाई एक संवैधानिक पीठ कर रही थी जिसके सदस्य, न्यायमूर्ति केएम जोसफ, अजय रस्तोगी, अनिरुद्ध बोस, ऋषिकेश रॉय और सीटी रविकुमार थे.

पीठ ने अपने फैसले में कहा, "एक चुनाव आयोग जो कानून के शासन का विश्वास ना दिला सके वो लोकतंत्र के खिलाफ है. आयोग के पास बहुत सारी शक्तियां हैं और उनका इस्तेमाल अगर अवैध या असंवैधानिक तरीके से किया जाए तो उसका असर राजनीतिक दलों के प्रदर्शन पर पड़ता है."  

पीठ ने यह भी कहा, "चुनाव आयोगको स्वतंत्र होना ही चाहिए...अगर कोई व्यक्ति सरकार के प्रति अनुग्रहित महसूस करता है तो उसकी मनोदशा स्वतंत्र नहीं रह सकती है. स्वतंत्र व्यक्ति सत्ता में बैठे लोगों की जी-हुजूरी नहीं करेगा."

वित्तीय स्वतंत्रता भी जरूरी

अदालत ने नियुक्ति के साथ साथ चुनाव आयोग की वित्तीय स्वतंत्रता में भी सुधार लाने के आदेश दिए. अदालत ने कहा कि आयोग का वित्त-पोषण विधि मंत्रालय द्वारा दिए जाने वाले सरकारी पैसे gकी जगह भारत की संचित निधि से हो. इस निधि से पैसे निकालने के लिए सरकार को संसद की इजाजत लेनी पड़ती है.

क्या भारत लोकतंत्र के लिए परिपक्व नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते समय चुनावी व्यवस्था से जुड़ी अन्य कमियों पर भी बात की. पीठ ने कहा कि राजनीति का अपराधीकरण और राजनीति में पैसों का इस्तेमाल बहुत बढ़ा है. साथ ही मीडिया के एक बड़े हिस्से ने भी अपनी जिम्मेदारी त्याग दी है और वो पक्षपाती हो गया है.

विपक्षी पार्टियों ने कई बार चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाए हैं और सरकार द्वारा की जाने वाली आयुक्तों की नियुक्ति, विपक्ष के आरोपों का एक प्रमुख आधार रहा है. अदालत के फैसले का ऐक्टिविस्टों और विपक्ष के नेताओं ने स्वागत किया है.

कांग्रेस पार्टी ने फैसले को ऐतिहासिक बताते हुए कहा कि इस मामले में सरकार इस फैसले के पक्ष में नहीं थी.

वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने इस फैसले के लिए सुप्रीम कोर्ट की तारीफ की और कहा कि चुनाव आयोग "सरकार का एजेंट" हो गया है और इस फैसले से उसकी कार्य पद्धति पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा.