अब लोग लड़कियों को गर्भ में कम मारते हैः रिपोर्ट
२४ अगस्त २०२२हरियाणा के एक गांव में रहने वालीं राज (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि बीस साल पहले जो फैसला उन्होंने किया, वही वक्त अब होता तो उनका फैसला एकदम अलग होता. 2002 में राज गर्भवती हुई थीं और उन्होंने अपना गर्भ गिरा दिया था क्योंकि लिंग जांच में बेटी के होने का पता चला था.
नाम ना छापने की शर्त पर डीडब्ल्यू हिंदी को राज ने बताया, "तब हालात अलग थे. तब समझ कम थी. तब परिवार का दबाव झेलने की क्षमता भी कम थी. अब अगर वैसा होता तो मेरा फैसला एकदम अलग होता.”
राज उन करोड़ों लोगों में से हैं जिनमें बेटा और बेटी को लेकर जागरूकता बढ़ी है और अब वे कन्या भ्रूण हत्या के खिलाफ हैं. अमेरिकी थिंक टैंक प्यू रिसर्स सेंटर का ताजा अध्ययन इस जागरूकता की ताकीद करता है. इस अध्ययन की रिपोर्ट कहती है कि 1970 में लिंग जांच तकनीक के आने के बाद भारत में लिंगानुपात में जो अंतर बढ़ना शुरू हुआ था, अब वह घटने लगा है.
प्यू रिसर्च सेंटर ने भारत के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (NFHS) में उपलब्ध कराए गए आंकड़ों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है. रिपोर्ट कहती है कि अब भारतीय परिवारों द्वारा बेटियों की जगह बेटों का जन्म सुनिश्चित करने के लिए अबॉर्शन का प्रयोग करने की संभावना पहले से कम हो गई है.
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इसके लिए रिपोर्ट ने भारत की सरकारों द्वारा सालों तक किए गए काम को श्रेय दिया है. रिपोर्ट कहती है कि ये बदलाव "सालों तक किए गए सरकारी प्रयासों जैसे कि भ्रूण लिंग जांच पर रोक, बेटी बचाओ जैसे विशेष अभियान और समाज में आ रहे विभिन्न आर्थिक व सामाजिक परिवर्तनों का” सामूहिक नतीजा हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक भारत के सिख धर्म में सबसे ज्यादा परिवर्तन देखा जा रहा है, जहां पहले सबसे ज्यादा लिंगानुपातिक अंतर था.
ऐतिहासिक स्थिति
प्राकृतिक तौर पर भी जन्म के मामले में लड़के लड़कियों से ज्यादा होते हैं. 1901 में भारत में हर हजार पुरुषों पर 972 महिलाएं थीं. 1950 और 60 के दशक में भारत में हर 100 लड़कियों पर लड़कों की संख्या 105 के आसपास थी. लेकिन यह तब की बात है जबकि देश में भ्रूण के लिंग की जांच की सुविधा उपलब्ध नहीं थी. 1970 के दशक में देश में भ्रूण के लिंग की जांच की जो तकनीक उपलब्ध थी वह बहुत महंगी और दुर्लभ थी.
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1980 के दशक में भारत में अल्ट्रासाउंड तकनीक की शुरुआत हुई. हरियाणा के कैथल जिले में काम करने वाले डॉ. दीपक शर्मा कहते हैं, "अल्ट्रासाउंड ने हालात को पूरी तरह बदल दिया. बेशक यह तकनीक इसलिए लाई गई थी कि हम डॉक्टर गहराई से जांच कर सकें लेकिन अधिकतर लोगों ने इसका इस्तेमाल भ्रूण लिंग की जांच के लिए किया. यह बहुत सस्ती थी और छोटे छोटे शहरों में भी उपलब्ध थी इसलिए हर कोई जन्म से पहले बच्चे का लिंग जान सकता था. नतीजा, लड़कियां घटने लगीं.”
1971 में भारत में अबॉर्शन को वैध कर दिया गया था. तो जैसे ही लोगों के लिए भ्रूण का लिंग जानना आसान हुआ, कन्या भ्रूणों की शामत आ गई. खासकर उत्तर भारत में तो दोनों तकनीकों ने मिलकर ऐसा कहर बरपाया कि लिंगानुपात ऐतिहासिक रूप से गिर गया. 2011 की भारतीय जनगणना में जन्म के वक्त लड़का और लड़की का अनुपात हर सौ लड़कियों पर 111 लड़कों पर आ गया था. विशेषज्ञ कहते हैं कि अगर कुदरती रूप से जन्म होते रहें तो हर सौ लड़कियों पर 105 लड़के जन्म लेते हैं.
इसका नतीजा यह हुआ कि भारत में हर हजार पुरुषों पर 943 महिलाएं थीं. इनमें ग्रामीण इलाकों की स्थिति (949) शहरों से बेहतर थी जहां हर 1,000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 929 रह गई थी. लेकिन 2011 में यह स्थिति तब थी जबकि सरकारी स्तर पर इस अनुपात को ठीक करने के प्रयास शुरू हो चुके थे और उनके नतीजे दिखाई देने लगे थे. 2001 की जनगणना में हजार पुरुषों पर 933 ही महिलाएं बची थीं.
स्थिति थोड़ी बेहतर हुई
2019-21 के बीच किया गया नेशनल फैमिलि हेल्थ सर्वे दिखाता है कि मामूली ही सही, स्थिति में सुधार तो हुआ है. 2015-16 हर सौ लड़कियों पर 109 लड़के जन्मे थे तो 2021 में यह संख्या 108 हो गई. फिर भी, प्यू रिसर्च सेंटर का अध्ययन कहता है कि साल 2000 से 2020 के बीच भारत दुनिया के सबसे खराब लिंगानुपात वाले देशों में से एक रहा है. अजरबैजान, चीन, आर्मेनिया, वियतनाम और अल्बानिया के बाद उसका छठा नंबर था.
प्यू की रिसर्च के मुताबिक इस बेहतर स्थिति में सबसे बड़ा बदलाव सिखों में आया है. साल 2,000 में सिखों में हर सौ लड़कियों पर 130 लड़के जन्म ले रहे थे. 2011 में यह संख्या 121 पर आ गई थी और अब 110 पर. यह राष्ट्रीय औसत 108 के काफी करीब है. हिंदुओं में यह अनुपात 109 का है, जबकि ईसाइयों में 105 का. मुसलमानों में भी अनुपात राष्ट्रीय औसत से बेहतर है जहां हर सौ लड़कियों पर 106 लड़के जन्म लेते हैं.
रिपोर्ट कहती है कि 2010 में भारत में ‘लापता लड़कियों की संख्या' यानी ऐसी लड़कियां जो जन्म ही नहीं ले सकीं, 4.8 लाख थी जो 2019 में घटकर 4.1 लाख रह गई. हालांकि इन आंकड़ों पर एक बहस यह भी हुई है कि सरकारी आंकड़ों को तोड़ा-मरोड़ा गया ताकि लिंगानुपात को बेहतर दिखाया जा सके.
खतरे कम नहीं हैं
डॉ. दीपक शर्मा कहते हैं कि उनके पास भ्रूण जांचने आने वालों की संख्या में कोई खास कमी नहीं हुई है. वह कहते हैं, ‘मुझे तो नहीं लगता कि सोच बहुत ज्यादा बदली है. लोग तो अब भी आते हैं. फर्क यह आया है कि अब हम कानूनी रूप से बाध्य हैं उन्हें मना करने के लिए. इसलिए बहुत से डॉक्टरों ने जांच और अबॉर्शन करना बंद कर दिया है.'
1996 में भारत में ही भारत में किसी डॉक्टर द्वारा बच्चे का लिंग बताने के लिए जांच करना अवैध किया जा चुका है. इसके बावजूद 2000 से 2019 के बीच लगभग 90 लाख भ्रूण हत्याएं हुई हैं.