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लीथियम का बड़ा भंडार मिलने से मिलीजुली प्रतिक्रियाएं

समान लतीफ (श्रीनगर)
१७ मार्च २०२३

भारतीय कश्मीर में करीब 60 लाख मीट्रिक टन लीथियम का भंडार मिला है. अधिकारियों को उम्मीद है कि लीथियम के खनन से भारत और आत्मनिर्भर बनेगा. लेकिन आलोचक कहते हैं कि इससे ग्लोबल वॉर्मिग में इजाफा ही होगा और कुछ नहीं.

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कश्मीर में झेलम नदी
तस्वीर: ingimage/Wirestock/IMAGO

भारतीय कश्मीर में सलाल एक खूबसूरत गांव है जिसे अब लीथियम की खान के रूप में प्रसिद्धी हासिल हो चुकी है. वो लीथियम को लेकर भारतीय आत्मनिर्भरता का ठिकाना भी बन गया है. लीथियम एक मुलायम सफेद धातु है जो इलेक्ट्रिक वाहनों, मोबाइल फोन और कम्प्यूटरों की बैटरियों में इस्तेमाल होता है. कार्बन मुक्त होने की वैश्विक दौड़ में लीथियम की भारी मांग है.

जम्मू यूनिवर्सिटी में भूगर्भशास्त्र के प्रोफेसर पंकज श्रीवास्तव ने डीडब्ल्यू को बताया कि भारत में लीथियम की खोज एक आश्वस्तिजनक घटना है जो देश को और अधिक आत्मनिर्भर बनाएगी. वो कहते हैं, "दुनिया अक्षय ऊर्जा का रुख कर रही है, इलेक्ट्रिक कारों की अहमियत बढ़ने लगी है और लीथियम-ऑयन बैटरियों की मांग बढ़ रही है. लीथियम का घरेलू भंडार खोज कर भारत इसके आयात पर अपनी निर्भरता घटा सकता है और अर्थव्यवस्था को गति दे सकता है."

इलेक्ट्रिक कारों की बैटरी के लिए कहां से आए कच्चा माल

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले साल अगस्त में देश के स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर घोषणा की थी, "सौर ऊर्जा से लेकर मिशन हाइड्रोजन और इलेक्ट्रिक वाहनों तक, हमें इन अभियानों को ऊर्जा स्वतंत्रता के अगले स्तर पर ले जाना होगा."

लीथियम आर्थिक तरक्की लाएगा या आपदा

59 लाख टन लीथियम की खोज ने भारत को दुनिया के नक्शे पर इस बेशकीमती धातु के पांचवे बड़े भंडार के रूप में ला खड़ा किया है. क्षेत्रीय भूगर्भ और खनन विभाग में एक वरिष्ठ अधिकारी ने डीडब्लू को बताया कि सलाल में मिला लीथियम अब तक का सबसे शुद्ध भी है. दूसरे भंडारों में मिले 220 पार्ट्स पर मिलियन (पीपीएम) के सामान्य ग्रेड की तुलना में सलाल का लीथियम 500 पीपीएम के आला ग्रेड का है.

उन्होंने बताया, "ये देखना दिलचस्प होगा कि ये खोज किस तरह लीथियम के वैश्विक बाजार और विभिन्न इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में इस्तेमाल होने वाली लीथियम-ऑयन बैटरियों के उत्पादन पर असर डालती है."

'डर और खुशी की मिलीजुली भावनाएं'

उधर सलाल में, गांव प्रधान प्रीतम सिंह के मुताबिक "डर और खुशी की मिलीजुली भावनाएं" हैं. उन्होंने डीडब्ल्यू को बताया, "लीथियम की खुदाई के लिए समूचे गांव को विस्थापित होना होगा. हम अपने पुश्तैनी घर गंवा देंगे, लेकिन उम्मीद है कि हमारे बच्चों को रोजगार मिलेगा और गांव में खुशहाली आएगी."

भारतीय सेना के रिटायर्ड फौजी रोमेल सिंह कहते हैं, "मैं इस बात से उत्साहित हूं कि पिछली सरकारों का हमारे गांव पर कभी ध्यान नहीं गया और अब वो देश की अर्थव्यवस्था में योगदान देगा. अपने पुरखों का गांव न रहने का दर्द तो है लेकिन अपने बच्चों के खुशहाल भविष्य की खातिर हम इस कुरबानी को तैयार हैं. और रोजगार आएगा और हमारा रहनसहन भी सुधरेगा."

लीथियम खनन प्रोजेक्ट के आलोचकों को आशंका है कि लीथियम की खुदाई के लिए जिस बड़े पैमाने पर पानी की जरूरत होगी, उससे भूजल पर गंभीर संकट आ सकता है.

यूरोपीय संघ की ग्रीन-टेक माइनिंग योजना का स्पेन में विरोध

25 वर्षीय स्थानीय वकील वैभव रकवाल ने हैरानी जताई कि सर्वेयरों ने ये बात कैसे अनदेखी कर दी कि पहाड़ों की तलहटी पर जहां लीथियम के भंडार मिले हैं, वहां एक प्रमुख नदी बहती है. उन्होंने आगाह किया कि, "अगर वो पहाड़ थोड़ा सा सेंटीमीटर भी धंसा तो चिनाब नदी का रास्ता बदल जाएगा और पूरे इलाके में बाढ़ आ जाएगी."

वो कहते हैं, "स्थानीय लोगों के लिए इससे कोई आर्थिक अवसर नहीं मिलने वाले लेकिन पारिस्थितिकीय तबाही तय है, पीने का पानी भी कम हो जाएगा."

फिलहाल दक्षिण अमेरिका में खोदा जाता है सबसे ज्यादा लीथियम
फिलहाल दक्षिण अमेरिका में खोदा जाता है सबसे ज्यादा लीथियमतस्वीर: Georg Ismar/dpa/picture alliance

'हमारे दिन अब गिनती के'

56 साल की प्रगाशो देवी इस बात से सहमत हैं, कहती हैं, "मुझे चिंता ये है कि इससे पानी का संकट और प्रदूषण बढ़ सकता है. हम तो पहले से पानी की कमी से जूझ रहे हैं और अगर खुदाई शुरू की जाती है तो हमें अपने लिए और अपने मवेशियों के लिए पर्याप्त पानी भी नहीं मिलेगा."

सलाल की दस हजार की आबादी में से अधिकांश लोग, खेती और मवेशीपालन से रोजीरोटी चलाते हैं. प्रगाशो देवी कहती हैं, "सलाल में हमारे तो अब गिनती के दिन बचे हैं. अपने बच्चों की तरह हमने इन खेतों की देखभाल की. इस लीथियम का क्या काम अगर हमें अपने पुरखों का घर छोड़कर जाना पड़े? ये एक त्रासदी है."

प्रगाशो देवी अपने बड़े बेटे के लिए एक मकान बनाना चाहती थी ताकि वो अपने परिवार के साथ अलग रहे. लेकिन उन्हें अपना इरादा रोकना पड़ा क्योंकि अधिकारी, उन्हें हटाकर दूसरी जगह बसने के लिए भेज रहे थे.

दूसरी विकास परियोजनाओं की वजह से ये इलाका पहले भी विस्थापन की मार झेल चुका है. 1980 के दशक में, 690 मेगावॉट की जलबिजली परियोजना के लिए जब एक कृत्रिम झील बनाई गई तो स्थानीय लोगों की खेती की करीब 70 फीसदी जमीन उसमें चली गई थी.